
मिली थी ..मेरी लाश ,तुम्हें ..?
“दीनू ने खबर दी थी , मुझे ! ‘मामा मर गए’ मामी !!’ .वह बिलख-बिलख कर रो रहा था . …..’कादिर …कमीने ने ….मामा की आँख में तीर मार कर ….” उस ने स्पष्ट कहा था . “हाथी के ऊपर से ही औंधे आ गिरे थे , मामा ! मेरे तो तभी छक्के छूट गए थे . मैंने निगाह उठा कर देखा था – कि …कादिर ने मुझे भी निशाना बना कर तीर मारा था . ‘दो तीर मैं दो शिकार करने की उस की साजिश थी !’ वह हाथी पर सवार था ….और मैं था – घोड़े पर ! उसे शक हो गया था कि …मैंने उसे मामा पर तीर चलाते देख लिया था ! वह डर गया था कि …अगर …मामा जिन्दा बचे तो ……/”
“का-दि -र ….!” मेरी दांती भिच गई थी , हेमू ! तभी …..उसी क्षण मैंने उस का खून पीने की शपथ ले ली थी ! मैंने तुरंत ही दीनू को परिवार को लेकर भाग निकलने को कहा था . तभी मैं समझ गई थी कि ….अब क़यामत हम पर टूटेगी ….! लेकिन ……”
“लेकिन ….?”
“कादिर ने किसी को भी भागने नहीं दिया ….! वह दीनू के पीछे-पीछे ही चला आया था . वह जानता था कि ….अब उस की जान खतरे में थी . उस ने पूरे परिवार को मेरी आँखों के सामने ही क़त्ल करा दिया ….और …..मुझे बंदी बना लिया !”
“और ….दीनू ….?”
“दाद देती हूँ, दीनू को …..मैं , हेमू !” केसर तनिक मुस्कराई है. “न जाने कब …और कैसे …दीनू मौत की मुठ्ठी में से ….हवा की तरह अलोप हो गया था . मैंने भी चाहा था …कि …दीनू ……”
मैं बहुत देर तक दीनू के ही बारे सोचता रहा था .
दीनू – याने जनरल दिना करण – मेरा भांनजा ,…अपनी जवानी के उत्कर्ष पर था . मैंने ही बड़े मन से उसे …युद्ध-कौशल सिखाया था . दिना करण जितना चतुर घुड सवार …मैंने अब तक नहीं देखा था ! दिना करण बिजली की चमक की तरह …वार करता था …और लम्हों में ….दुश्मन को चीर-फाड़ कर रख देता था . जनरल दिना करण के सामने से मैंने अकबर के सिपह सालार – बैरम खान को तुगलकाबाद की लड़ाई में मैदान छोड़ कर भागते देखा था ! घिग्घी बंध गई थी ….बैरम खान की जब दस हज़ार घुड सवारों के साथ ….जनरल दिना करण ने धावा बोला था …और गिध्धों की तरह …बैरम खान के लश्कर को लम्हों में ही काट-पीट डाला था .
यही कारण था कि ….आज भी मैंने दिना करण को – हाथियों के जत्थे के पीछे से निकल ….बैरम खान पर बगल से वार करना चाहा था ….और …फिर मैंने उस की व्यूह -रचना को सीधे अपने हज़ार हाथियों के आक्रमण से रौंद डालना था .
हमारी जीत अवश्यम्भावी थी . लेकिन …….
“कादिर का क़त्ल कर मैं …दिल्ली में बिल्ली की तरह बिला गई …!” केसर बताने लगी है. “मैं किसी तरह ….किसी भी कीमत पर ….अपने हेमू को पा लेना चाहती थी ! खोज लेना चाहती थी . ….मैं चाहती थी , हेमू ….कि ….जो हो सो हो …! मेरा कुछ भी हो …..पर मैं तुझे पा लूं !! तुझ तक पहुंचूं …..! .मैं …चाहती थी कि …किसी तरह से दीनू को खोज लूं ….”
“मिला ….?” मैं पूछता हूँ . मुझे अपनी मौत की घटना को सुनने में आज आनंद आ रहा था .
“कहाँ ….?” बेबसी में हाथ झाडे हैं , केसर ने . वह विछुब्ध लगी है. “लेकिन ……मैं अपने आप को ….रोक न पाई थी, हेमू ! मैं ….तुम्हारी लाश को सूंघ कर …..अपने सच्चे प्यार को साक्षी मान कर ….दुश्मनों के खेमों की ख़ाक छानने लगी थी . मुझे किसी का भी डर न था …न मौत का …और न ही मिलती यातना का ! मैं चाहती थी कि किसी तरह भी मैं तुम्हारी लाश को ले लूं ! लेकर भाग लूं ….तुम्हें अपने आँचल की छाँव में लेकर ….फिर से जिला लूं ….! तुम्हें …….मेरे प्रियतम ….मैं ….फिर से उस हिन्दू राष्ट्र के सिंहासन पर विराजमान करू…जिसे मेरी आँखें भूल ही न पा रही थीं . लेकिन …..” जारो-कतार हो-हो कर रो रही थी , केसर !
“मिली थी ….मेरी लाश ….., तुम्हें …..?” मैंने रोती केसर से पूछा था.
“हाँ, मिली थी …!” केसर ने हिलकी रोक कर कहा था . “कैसे बयान करू….कैसे बताऊं तुझे , हेमू ……कि …तेरी लाश के साथ ….मेरी ही इन आँखों के सामने …कितना-कितना अत्याचार हुआ …..कितना-कितना अनादर हुआ ….ठोकरें पड़ीं ……और फिर ….”
“क्यों ….? केसर मैं तो सोचता रहा था कि …मैं तो अफगानों का सिरमौर बन चुका था ….और ……”
“कहाँ, रे …!” विलख आई थी , केसर ! “मुग़लों …और अफगानों के खेमों में तुम्हारी मौत को लेकर घी के चिराग जल रहे थे ! तुम्हारा ‘हिन्दू’ होना ….ही तो तुम्हारा सब से बड़ा गुनाह था, हेमू ! तुम्हारी बहादुरी ….युद्ध-कौशल ….और दूरदर्शिता के सभी – अफगान और मुग़ल ….ओहदेदार कायल थे . मानते थे कि कभी शादियों में ही ….ऐसा बहादुर और …महान सेना नायक पैदा हुआ करता है ! अकबर तो तुम्हें कैद कर ….अपने साथ लाने के लिए लालायित था ! लेकिन ……?”
“लेकिन ….?”
“बैरम खान ….तुमसे खार खाता था !” केसर ने पते की बात बताई थी . “तभी तो ……तभी तो …..अकबर के आने के बाद ही फैसला हुआ था !”
“कैसा फैसला ….?”
“तुम्हें जिन्दा रख कर – अकबर ……अपना सहयोगी बनाना चाहता था . लेकिन मैंने बैरम खान को कहते अपने कानो से सुना था , ‘सांप है ये , जहा पनाह ! इसे जिन्दा छोड़ना आप का आखिरी गुनाह होगा !!”
“तो …..?” अकबर ने बैरम खान को ही पूछा था .
“लो तलबार ! कलम कर दो , इस का सर !!” आग्रह था, बैरम खान का .
“नहीं ….!” साफ़ नांट गया था , अकबर , हेमू ! ‘मुझ से ये न होगा …बैरम ….!’ उस ने कहा था . ‘मैं ….इस आदमी की ….हद से ज्यादा क़द्र करता हूँ . ” उस के शब्द थे . और तब …..उन पलों में मेरा मन हुआ था कि मैं …दौड़ कर अकबर के पैर पकड़ लूं ….तुम्हारी जान की भीख मांगूं ….! अकबर नया पठ्ठा -जवान था ! कुल चौदह साल का तो था ही ! इतनी सुंदर और आकर्षक पिंडी मैंने भी मुग़लों में पहली बार ही देखी थी .”
“लो ….! छू-दो इसे तलबार से !!” बैरम खान ने खेल खेला था . और जैसे ही अकबर ने तुम्हारे शारीर को ….तलबार से छुआ था – बैरम खान ने तुम्हारा सर धड से अलग कर दिया था ! ओह , हेमू ….! ” केसर की आँखें चुचाने लगी थीं . “मैं ……मरने -मरने को थी ….मैं पागल हो गई थी ….मैं कपडे फाड़ने लगी थी …मैं ……दौड़ कर औंधी हो कर तुम्हारी लाश पर …जा गिरना चाहती थी . मैं ….भाग निकली थी …..लेकिन ….”
“लेकिन ….?” मैंने ग़मगीन स्वर में पूछा है .
“लेकिन …. तभी किसी ने मुझे …..बलिष्ठ बांहों में समेट लिया था ….मुझे सहेज लिया था …..मुझे लेकर हवा हो लिया था ….!”
“दीनू होगा ….?” मैंने अंदाज़न पूछा है .
‘हाँ ….! दीनू ही था ! कह रहा था – किसी रहम की उम्मीद मत रखना , मामी ! चाहे अकबर हो …..या ….कादिर हो …या आदिल हो …पर ये सब हैं -बैरम खान ही ! हिन्दुओं के तो सब खून के प्यासे हैं ! तुम्हें पाकर ….तो ….” दीनू की आँखों में खून उतर आया था . “न जाने भगवान् ने हमारी प्रार्थना …क्यों नहीं सुनी …?” वह उलाहना देता रहा था . “न जाने क्यों ….मेरे महान मामा का इतना बुरा अंत ला दिया ….? न जाने ….अब इस देश का ….हिन्दूओं का ….हिन्दू धर्म का ….क्या होगा , मामी …?” वह भी फूट-फूट कर रोने लगा था . “मेरे जीवित होते हुए …मेरे मामा की लाश का अपमान हुआ ….! लेकिन , मामी – लेकिन , मामी ….”
“मत रो , दीनू ….!” मैंने उसे स्नेह पूर्वक पुकारा था . “मत रो , मेरे लाल !” मैंने कहा था .
“उम्मीद का दामन हम भी न छोड़ेंगे ….! आज नहीं तो …कल …..कल नहीं तो उस से अगली कल ….हम इन आताताइयों को ….जिन्दा न छोड़ेंगे ….! तुम्हारे मामा का स्वप्न ….’हिन्दू राष्ट्र’ ….एक सच्चाई बनेगा ज़रूर , दीनू ! तुम देख लेना मेरे लाल कि ….”
“और आज वो वक्त आ ही गया है , केसर ….! ये देखो …..!!”
लेकिन ये क्या …? केसर तो गई ……!!
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श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !