गज़ब के गबरू ज़बान हो !!

उपन्यास अंश :-

प्रात: होते ही आँख खुल जाती है !

मैं आदतानुसार सर्व प्रथम गुरु जी को प्रणाम करता हूँ . उन का स्मरण करता हूँ और उस के बाद …परमात्मा का ऋण चुकाता हूँ . मैं उठा हूँ और बारादरी के बाहर आ गया हूँ . ये बारादरी न जाने क्यों मुझे देखते ही पुकार लेती है ! अपने जिस्म पर बने घाव दिखा कर …अपनी दुःख भरी दास्ताँ सुनाने लगती है ! बताने लगती है कि इसे ….इस के मालिक ने बड़े ही चाव से बसाया था और यहाँ एक गुलोगुल्जार माहौल पैदा हो गया था ! यहाँ सब था ….बगीचा ….बाबली ….घोड़े और आमोद-प्रमोद ! न जाने किस की नज़र लगी कि …….

“तबाही ….बर्बादी ….और ….” मैं बोल पड़ा हूँ .

“हाँ,हाँ ! नर-संहार-सा ही कुछ हुआ था ….! सुनोगे उन चीख-पुकारों को तो रो पड़ोगे ! मैंने देखा था लहू को बहते हुए ….और ….” एक खामोशी छा जाती है .

न जाने क्यों मैं ग़मगीन हो जाता हूँ ? बात काट मैं भागा हूँ ….और पीछे निकल गया हूँ  ! कीकरों का जंगल उग आया है , यहाँ ! अंधी बाबली में मैंने उझक कर देखा है . अँधेरा भरा है . पानी नहीं है . पर कभी पानी तो होगा ज़रूर ! बाबली न जाने क्यों मुझ से नहीं बतियाती ….? मैं चल पड़ता हूँ . देखता हूँ कि ज़मीन पर अभी भी चिन्ह हैं ….कहानियाँ हैं ….और सब अलिखित एक साथ खड़ा होने लगता है !

“मैं सब कुछ जिन्दा रखूंगा ….!” मैंने एक वचन-सा भरा है . “लौट आएगी ….चहल-पहल ….जब ….! हाँ,हाँ ! जब केसर ….”

लो ! मेरे भीतर एक भूडोल आ कर भर गया है ! केसर का जिक्र होते ही मैं ….सोचने लगा हूँ कि मैं इस बारादरी को ….केसर महल बनाऊंगा ! केसर के आने से पहले मैं उसे …एक अनमोल और अनोखी भेंट दूंगा ! बारादरी …नहीं,नहीं ….केसर महल ….और ….

 

“केसर ….?” आज पहली ही बार एक प्रश्न आ कर मेरे गले में अटका है . “केसर ….? बिखरे बाल ….हाथ मैं सोटा  ….और आधा मर्द ….आधी ज़नानी ….? वो ….वो ….यहाँ …दिल्ली में कैसे ….?” और मेरा दिमाग अशरफ बेगम के हुश्न को गवाही के तौर पर बुला लाता है . “शेख शामी यों ही तो नहीं लाए …अशरफ को ….? कितनी बला की खूबसूरत है , ये औरत ! और केसर ….?”

“हे, भगवान् ! क्या होगा मेरी तपस्या का ….? मेरा ….और केसर का प्रेम …..?”

किसी की पेचर से मेरा मौन टूटा है ! वह पानी की मुश्क कमर पर लादे चला आ रहा है . उस ने ‘गड-गड-गड ‘ कर पानी की मुश्क को हौज में खोला है . पानी हौज में बहा है और वह मुझे देखता हुआ लौट गया है ! अब शायद बशीर आएगा ….? अशरफ बेगम के हाथ का बना कुछ खाने के लिए लाएगा . अशरफ बेगम मेरा बहुत ख़याल रखती हैं . लो ! वो आ ही गया !!

“बाले-कुम-सलाम , हुज़ूर !” बशीर हंसा है . “कैसी तबियत है , बादशाहों की ….?” उस ने जुमला कसा है . “ये रहा आप के लिए भेजा ‘सलाम’ और ….ये है -पैगाम कि …शेख शामी सैर से लौट कर …आप के पास आ रहे हैं !” वह हंसा है और चला गया है .

शेख शामी आ रहे हैं – मैं तनिक संभला हूँ . पर क्यों – मैंने प्रश्न किया है . ‘व्यापार , भाईजान !’ मैंने सहज उत्तर को ही पकड़ा है . हाँ,हाँ ! वो मुझे व्यापार के लिए ही तो लाए हैं …? उन का मुद्दा तो धन कमाना है ! जब कि मेरा मुद्दा ….? नहीं,नहीं ! मैं नहीं बताऊंगा ….मैं ….

“कैसे हो , बरखुरदार ….?” शेख शामी पूछ रहे हैं . मैंने उन्हें सलाम किया है . वो प्रसन्न हैं . सैर से लौटे हैं तो तनिक थके भी हैं . बारादरी के बाहर ही एक पत्थर पर आ बैठे हैं . मैं उन के सामने खड़ा हूँ .

“खूब मज़े में हूँ !” मैंने हंस कर उत्तर दिया है .

“बहुत खूब !” उन्होंने प्रसन्नता में सर हिलाया है . “काम-वाम की सुध-बुध है , कोई ….?” उन्होंने पूछा है . मैं चुप हूँ . क्या उत्तर दूं …? “घोड़े की सवारी आती है ….?” उन्होंने फिर से पूछा है . मैं कहना चाहता हूँ कि घोड़े की नहीं …ऊँट की सवारी आती है . पर रुक जाता हूँ . फिर से सोचने लगता हूँ …कि …

“न …न ..नहीं !” मैंने उत्तर दिया है .

“कोई बात नहीं ! कादिर को बता देता हूँ कि ….रुस्तम के पास ले जाएगा , तुम्हें !” शेख शामी बता रहे हैं . “घोड़े की सवारी तो ज़रूरी है …वरना काम कैसे होगा ….? तुम्हें तो रात-दिन घूमना-फिरना होगा !” उन्होंने मुझे पलट कर देखा है . “घोड़े पर सवार हो कर तो सब काम काबू आजाएगा !” वो हँसे हैं . “चलता हूँ !” अब वो उठ खड़े हुए हैं . मेरा मन तो था कि अशरफ बेगम के भेजे सलाम का जिक्र करूं . और …” लग कर घुड़सवारी सीख लो ….और फिर काम …..?” उन्होंने आदेश दिया है और फिर निकल गए हैं .

मैं अपने आस-पास को देखता रह गया हूँ . बारादरी हंस रही है . प्रसन्न है , शायद ! यहाँ पहले भी तो घोड़े रहते थे ….? इसे घोड़ों से लगाव है . यह फिर से बस जाना चाहती है ! केसर ….? मैं रुक जाता हूँ . न जाने क्या हुआ है कि ….केसर का नाम लेते ही …मुझे अशरफ बेगम का हुश्न याद हो आता है !

“अब्बे ! तुझे घुड़सवारी नहीं आती ….?” कादिर ने आते ही मुझे उल्हाना मारा है . “घोंचू ! ये भी कोई कायती  आँक है ….?” वह बिगड़ा है . “कुश्ती तो …इत्ती अच्छी करता है …कि …ज़बाब नहीं …..!” उस ने मुझे घूरा है . “चल , रुस्तम के पास !” वह हंसा है . “तेरे होश ठिकाने आ जांयगे ….!” अब की बार कादिर जोरों से हंसा है . “बहुत सख्त उस्ताद है , ब्बे !” उस ने मुझे सूचना डी है .

मैं डर गया हूँ . अब मैं ‘ये रुस्तम क्या बाला है ?’ के सोच में पड गया हूँ . पर अब जाना तो उसी के पास पड़ेगा ! घुड़सवारी जो सीखनी है ! अचानक मुझे अपना ऊँट याद हो आता है . अरे,भाई ! क्या झूम-खूम कर चलता है …? गर्दन लफा कर …आगे की मुहीम दबाता ही चला जाता है ! पीली रेत के पसरे विस्तारों पर ….यों जाता है जैसे पानी पर दौड़ती – लहर !

“रास्ता लम्बा है ! चलते हैं !!” कादिर ने बताया है . “लौटना भी तो होगा …?” उस ने याद दिलाया है .

घंटों सफ़र करने के बाद ही हम शाही अस्तबल के द्वार पर आ खड़े हुए हैं . जंगल है . चारों और से चारदीवारी के अंदर ही शाही अस्तबल है . पहरे पर खड़ा सिपाही हम दोनों को आया देख चौकन्ना हो गया है . कादिर ने उस से भीतर जाने का अनुरोध किया है !

“कौन ….? कहाँ से ….?” उस ने प्रश्न दागा है . उस की आवाज़ में दम है .

“शामी साहब के यहाँ से ….! मैं कादिर ….उन का बेटा ….”

“और ये ….?”

“अपना भाई है !” कादिर ने बेधड़क कहा है .

“किस से मिलना है ….?”

“रुस्तम …! उस्ताद …रुस्तम …शेख …अल जैदी …..!” कादिर ने उन की पूरी की पूरी शख्सियत बयान की है .

“जाओ !” उस ने हमें आज़ाद कर दिया है .

शाही अस्तबल के आकार -प्रकार को देख मैं दंग रह गया हूँ !

मीलों के विस्तार हैं . अनेकानेक प्रकार की इमारतें ….अहाते ….चारागाह …और घोड़ों के लिए …रषद-राशन के भण्डार ! हम कई बार भटके हैं ….पर कादिर ने रास्ता पकड़ ही लिया है ! कई लोगों ने हमें पूछा है …पर शेख शामी का नाम लेते ही ….हमें रिहा कर दिया गया है ! यहाँ कोई अजनवी नहीं आ-जा सकता – इस होती तहकीकात से मुझे ज़ाहिर हो गया है . और अब मैं उस्ताद रुस्तम के बारे ही अनुमान लगा रहा हूँ !

“बैठो !” एक मझोले कद के सैनिक ने हम दोनों को मांटी की बनी एक गुमटी पर बिठा दिया है  “बुलाएंगे  ….तो जाना !”उस ने हमें हिदायत दी है .

मैं चुप हूँ . डरा हुआ हूँ . .मेरे लिए तो यह सब अज्ञात है ! मैं तो हूँ ही यहाँ अज़नवी ! कादिर और शेख शादी साहब की वज़ह से यहाँ पहुंचा हूँ ….वरना …तो ….

“हिन्दू है ….?” अखाड़े पर पूछा प्रश्न मुझे याद हो आता है . मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं . मैं सतर्क हो जाता हूँ . सोचता हूँ , कादिर को ही बोलने दूंगा . गलती से भी कोई ……

“जा-ओ !” सैनिक ने कहा है . “बुला रहे हैं !” उस ने सूचना दी है .

मैं काँप उठा हूँ ! मैंने परमेश्वर को याद किया है !!

हम दोनों एक कमरे नुमा दफ्तर में आ खड़े हुए हैं . रुस्तम उस्ताद एक लम्बे-चौड़े मचान पर बैठे हैं . उन्होंने हम दोनों को एक साथ देखा है . उन की त्योरियां तनीं हैं ! मैं घबरा गया हूँ !!

“कैसे हैं , शेख साहिब ….?” रुस्तम उस्ताद ने पूछा है . “बड़ा अरसा हुआ , तब आये थे !” वह सहज हुए हैं . “ये ……?” उन्होंने सीधे मेरी और नज़र घुमाई है .

“अपना भाई ….!” कादिर ने संक्षिप्त उत्तर दिया है . “अब्बा इसे घुड़सवारी सिखलाना चाहते हैं !”

“क्यों ….?”

“व्यापार !” कादिर तुरंत ही बोला है . “आना -जाना तो …रहेगा ….न …?”

“हाँ !, वो बात तो सच है ! ” उस्ताद रुस्तम तनिक सहज हुए हैं . “लेकिन रहना यहीं पड़ेगा ….!” उन्होंने शर्त रखी है . “रोज का आना-जाना न हो सकेगा !”

“कोई बात नहीं !” कादिर ने शर्त मानली है .

“कल से ही आजाओ !”उन्होंने कहा है . “तुम भी …..?”

“हाँ,हाँ ! मैं भी आऊँगा ….!” कादिर प्रसन्न है . “आप जैसे उस्ताद मिलें ….तो …?” उस ने उन ही प्रशंसा करते हुए कहा है .

उस्ताद रुस्तम प्रसन्न हो गए हैं . लेकिन उन की निगाहों ने मुझे अभी तक छोड़ा नहीं है !

“गज़ब के गबरू ज़बान हो !!” उस्ताद रुस्तम ने कहा है . “सीखोगे ….तलवार चलाना ….?” उन का प्रश्न है . “तुम ….तो …..” वो अब चुप हैं . मुझे देखते ही रहते हैं . “खैर ! आजाओ …! कल से ही …..”

मुझे उस्ताद रुस्तम का दिया निमंत्रण – मेरी मांगी मुराद जैसा लगा है !!

……………………………………………………

क्रमश:

श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!

 

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