
दुश्मन माने कि-भेड़िया……!!
में बहुत डरा हुआ था . बोधन की मौत का भयाक्रांत द्रश्य मुझे छोड़ ही न रहा था .
तभी मेरे नाना साहेब का आगमन हुआ था . अचानक ही घर भर में एक प्रसन्नता की लहर दौड़ गई थी . कई प्रकार की मिठाइयाँ नानी ने बना कर भेजीं थीं . और भी न जाने क्या-क्या सौगातें वो लाए थे ? पूरे पडौस में भी हल-चल थी – उन के आने की !
सबब वही था . बोधन की मौत का पैगाम पूरे प्रदेश में फ़ैल गया था . सिकंदर लोधी के हिन्दुओं पर किए अत्याचार अब सर चढ़ कर बोलने लगे थे ! और हाँ ! बोधन के दिए श्रापों की भी चर्चा थी . मालिकों के चौराहे पर लोग जा-जा कर बोधन की चिता को हाथ लगा कर उस रज से अपने मान्थों पर तिलक लगा रहे थे ! बोधन कहीं सिकंदर लोधी से आगे के परवान चढ़ गया था !
"क्यों न ….मैं नाना साहेब के साथ ननिहाल निकल जाऊं …?" मैंने अपने आप से प्रश्न पूछा था . "फिर केसर की ढाणी जाना सुगम होगा ! कभी भी ….आंख बचा कर …ऊंट पर चढ़ कर ….केसर ….."
लुभावना विचार था . मेरा तन-मन उजागर-सा हो गया था ! केसर से मिलने की एक उमंग मन-प्राण में उठ बैठी थी ! न जाने अब केसर कैसी होगी ….? मन था कि बार-बार …भाग रहा था …और केसर की ढाणी ही जा कर दम लेता था ! मैंने भी मन पक्का कर लिया था …!
"नही, बेटे ….!" नाना साहेब कह रहे थे . "तुम्हारी छोटी बहिन जा रही है !" उन्होंने सूचना दी थी . "तुम अब बड़े हुए ….!" उन्होंने मुझे सर्वांग देखा था . "कुछ काम-धंधा …सीखो !" उन का कहना था . "शादी से पहले पकड़ो कोई काम ….!!" उन्होंने नसीहत दी थी .
मैं बुझ-सा गया था . पर करता तो क्या करता ….? मैंने फिर से केसर से ही शिकायत की थी . कहा था , "क्या करू, प्रिये ! मेरा तो मन था कि ….और मन है कि ….में हमेशा -हमेश —के लिए ही केसर की ढाणी में बस जाऊं !" और मैंने केसर का स्मरण किया था . "इतना रम्य प्रदेश …मैंने देखा नहीं …! सच केसर ! मेरा मन तो करता है कि …में भी भेड़ों के रेवड़ चाराऊ …ऊंट पर बैठ कर …रेगिस्तान के असीम विस्तारों में भटक जाऊ ….और कभी भी इस गुनाहों के देश में – जहाँ बोधन जैसे संतों को जिन्दा ज़ला दिया जाता है , कभी न लौटूं ! तुम ये द्रश्य देखतीं तो बेहोश हो जातीं …..
"मैं कलेजा फाड़ कर खा जाती – सिकंदर लोधी का ….!" मैं अचानक ही केसर की आवाजें सुनने लगा था . "कायर, कहीं के ….?" उस ने पूरे समाज को गाली दी थी . "चूड़ियाँ पहने बैठे हैं , सब !!" केसर कहती रही थी .
"हाथ-पैर बचा कर ही कोई काम करना , बेटे !" माँ मुझे जाते-जाते हिदायत दे रहीं थीं . "अब तुम अकेले नहीं हो ….! वह भी तो तपस्या कर रही है …?" उन का इशारा केसर की और था .
और फिर केसर से जुड़े-जुड़े में निराशा के रेगिस्तान में अकेला छूट गया था !
केसर -केसर करता मैं …जैसे रेत के ढूहों से …लड़ता …झगड़ता …उसे ही खोज रहा था …पुकार रहा था ….और हर पल उसे पाने के लिए …तरस रहा था ! मेरी मृग-मरीचिका मुझे बार-बार आगे बढ़ने की प्रेरणा दे रही थी …और पानी से लबालब भरे जलाशय मुझे नज़र आ रहे थे …! लेकिन , नहीं ! मैं हारने लगा था …मरने लगा था …! वहां न तो कोई किनारा था …न था कोई अंत और न आरंभ ! मैं था …बस मैं …, अकेला…हेमूं …….प्यासा …थका हारा …और निराश !!
"गंतव्य भूल जाने के बाद ….आदमी का विनाश हो जाता है !" मेरी आत्मा मुझे बता रही थी . "तुम जान-मान कर भटक रहे हो , हेमूं ! तुम जानते हो ….तुम समझते हो ….पर मान नहीं रहे हो ! मंजिल पुकार रही है ….पर तुम उसे याद करना तक नहीं चाहते ….! स्वाभाविक है !! तुम्हें भी हरी-हरी दूब चरने को चाहिए …केसर की ढाणी जा कर तुम भी ……."
उल्हाना था ! सच भी था !! में जान-बूझ कर गुरुलाल गढ़ी नहीं गया था ! मैं मान तो गया था कि गुरु जी ने मुझे मेरा अभीष्ट सुझा दिया है ….बता भी दिया है ….पर मेरा मन ही बाघी हो रहा था ! में इस कठिन मार्ग पर चलने से नांट रहा था …बार-बार !
लेकिन अब फिर से चाहने लगा था ….कि …मैं मुड कर …गुरुलाल गढ़ी पहुँच जाऊं ! मेरे लिए वहां सब कुछ है ….तैयार है ….और सुलभ है !! .
और मैं गुरुलाल गढ़ी चला गया था ! पर था – अशांत !!
"मेरा मन न जाने क्यों कह रहा था कि ….तुम आ रहे हो …!" प्रसन्न हुए गुरु जी ने मुझे गले से लगा लिया था .
"आप याद करें …और मैं न आऊँ ……कैसे हो सकता है …?" मैन गुरु जी को प्रसन्न करने की गरज से कहा था . "याद करने का कोई सबब ……?" मैंने सीधे-सीधे ही पूछ लिया था .
"हाँ, है !" गुरु जी ने मुझे फिर से एक बार तौला था ….नापा था ….और तब एक निर्णय लिया था .
"तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई आरंभ करने का मेरा मन है . " गुरु जी ने स्पष्ट कहा था . "जो मेरे पास पूँजी है ….मैं तुम्हें सौंप देना चाहता हूँ . मेरे तो कोई संतान है नहीं …! फिर शिष्य और संतान में ज्यादा फर्क होता नहीं ….! अतः मैं अपना सब कुछ तुम्हें सौंप देता हूँ !!"
"लेकिन ….लेकिन ….आप तो …."
"उसी की तो बात कह रहा हूँ . तुम्हारी शिक्षा-दीक्षा अब नए सिरे से आरंभ करना चाहता हूँ . मैं चाहता हूँ कि तुम्हें ….हिंदी, संस्कृत और फारसी -तीनो भाषाएँ पढ़नी चाहिए ." गुरु जी ने अपना मत सामने रखा था . "मैं फारसी पढ़ाऊंगा , गुरु माँ – संस्कृत और अरमान शास्त्री हिंदी पढाएंगे ! प्राचार्य अर्थ-शास्त्र की शिक्षा देंगे …और राजनीति मैं स्वयं सिखाऊंगा !" उन्होंने अपनी योजना मेरे सानने रख दी थी .
"इतना ….सब ….?" में तो घबरा गया था .
"हाँ ! सम्राट बनने के लिए …और भी बहुत कुछ सीखना होगा , हेमूं ….!"
"मसलन कि …..?" मैं सब कुछ जान लेना चाहता था .
"मसलन कि ….युद्ध-कौशल ! संग्राम लड़ना ….जीतना …और सैन्य – संगठन …तुम्हें सीखना ही होगा !" गुरु जी बता रहे थे . "सेना का कुशल नेतृत्व ….जीत की कुंजी है ! और कुशल नेता बनना …संस्कारों का खेल है !" गुरु जी तनिक हँसे थे . "ये तुम्हें हासिल करना होगा ….!" उन का आदेश था .
मैं अब हतप्रभ था . मौन था . युद्ध- भूमि के तो मैंने अभी दर्शन तक नहीं किए थे !
"है क्या ….? ये कौनसा कठिन काम है …!" अचानक ही मैं केसर की आवाजें सुन रहा था . "दुश्मन …माने कि ….भेड़िया !" वह हंस रही थी . "घात से मारो ….या छात से मारो ….अँधेरे में मारो ….या उजाले में मारो ….मतलब ये कि उसे छल-बल से मार डालना है !" उस ने मेरे सामने हाथ झाडे थे . "मैं हूँ , न ! हाँ, कह दो …!!" केसर आज अतिरिक्त रूप से प्रसन्न थी .
"मेरी अंतरात्मा का आदेश है, हेमूं ! कि मैं एक ऐसा सम्राट बनाऊं …ऐसा सम्राट ….जो जन-मानस के हर पूछे प्रश्न का उत्तर हो ! हर मांग का पूरक हो ….मेरा सम्राट ! और उस के पास हर मुशीबत का तोड़ होना चाहिए ….! मुझे पात्र तो मिल गया है …." गुरु जी ने मुझे देखा था . "मैं संतुष्ट भी हूँ . मैंने पहले दिन ही तुम में ये पात्रता देख ली थी ! अब मैं वक्त लगाने के लिए ….."
"पर मैं तो अभी कोरा हूँ !" मैं तनिक उदास था ….चिंतित भी ! जैसे मुझे कुछ समझ ही न आ रहा था !!
"ये गुरुलाल गाढ़ी …जासूसों का अड्डा है ! सिकंदर लोधी की एक आँख हम पर है ! द्यान रहे कि ये मेरे और तुम्हारे बीच की बात …किसी और कान में न चली जाए ." चेतावनी दे रहे थे , गुरु जी . "सब से बड़ा गुरु मंत्र – पूर्ण होने से पहले …अपना मंतव्य जाहिर मत करो …!" उन्होंने अब मुझे आँखों में घूरा था . "मेरे और तुम्हारे सिवा …किसी भी तीसरे को …हमारा मंतव्य ज्ञात नहीं होना चाहिए …!!"
और मैंने उसी दिन गुरु जी के मंतव्य को ….अपना जीवन-लक्ष बना कर …अपने अंतर में गहरा गाढ दिया था !!
………….
श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !