देश-भक्त !
ज्वालामुखी – उपन्यास अंश :-
मुंह फाड़े। ..खड़ी हिन्दू-मुसलमान की दरार ..दहाड़ मारते ..’काफिर’ …..और मज़बी जैसे शब्द …लताड़ता समाज …शशिकांत के भीतर …एक बहुत गीला-सा लिज़लिज़ापन भर देता है। कैसे टूटे ये भ्रम – वह सोच नहीं पाता !
शकीला ने साँस ली है। शकीला को होश लौट रहा है। शशिकान्त के भीतर बैठा देश-भक्त आदेश देता है – फिनिश हर ! नागिन होश आते ही फन मारेगी – शशि ! बार करने के अलावा ..अब उस के पास कुछ और नहीं बचा है।
शशिकांत …स्त्री पर वार नहीं कर पाता।
वह महसूसता है कि …हिन्दू नामक वह प्राणी ..घोंघे की तरह का है। ऊपर से कठोर …भीतर से निरा पानी …! हिंसा की हड्डियां उस के ज़िस्म में नहीं होतीं। स्वभाव से तो न वह शिकारी है ….और न ही मांसाहारी। वैदिक -बुद्धि वाला वह एक अत्यंत ही दयालू प्राणी है। वो पेड़ से भी प्रार्थना करने के बाद ही फल तोड़ता है …और खाने के बाद पेड़ का उपकार भी मानता है …! हिंसा करने में कातर …लेकिन …अन्याय के सामने वह सीधा खड़ा हो जाता है ! उसे स्वयं मिटने में ज्यादा आनंद मिलता है …किसी और को मिटाने में तो उस के हाथ और हृदय दोनों ही कांप -कांप आते हैं।
क्या इसी वैदिक व्यव्हार के लिए वो ..हमेशा से ठगा नहीं गया है ?
आदेशानुसार एक नीले रंग की वैन शकीला को लेकर भाग जाती है !!
श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!