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हैप्पी दीवाली

happy dipawali


भारतवर्ष का सबसे बड़ा त्यौहार दीवाली है। दीवाली वाले दिन पूरा हिंदुस्तान दुल्हन की तरह  जगमगाती हुई रौशनी रूपी गहनों से सजा हुआ होता है। पूरे विश्व में दीवाली का मुकाबला कोई और त्यौहार आज तक नहीं कर पाया है। हिंदुओं का सबसे प्यार भरा और संस्कारों से परिपूर्ण त्यौहार दीवाली है। भारतीय संस्कृति का प्रतीक दीवाली…प्यार और संस्कृति का आदान-प्रदान दीवाली,रिश्तों और अपनों की मिठास दीवाली। दीवाली वाले दिन खुशियों और संस्कारों की गूँज पटाख़ों के रूप में  दूर ब्रह्माण्ड के इस कोने से उस कोने तक  सुनाई पड़ती है। पटाखों की रंग-बिरंगी जो चिंगारियाँ निकलती है, ये रंगीनियाँ हमें कुछ पल के लिए किसी और ही दुनिया की सैर करा देती हैं। दोस्तों चाशनी और अपनों के प्यार में घुला-मिला त्यौहार दीवाली है।
दीवाली का त्यौहार आते ही मैं अपने अतीत में चली जाती हूँ। बचपन में जब हम छोटे हुआ करते थे, तो एक अलग ही मज़ा हुआ करता था त्योहारों का।सबसे ज़्यादा जिस त्यौहार का इंतेज़ार हम किया करते थे,वो तो दीवाली ही था मित्रों। स्कूल में भी एक अजीब सी लहर दौड़ जाया करती थी, हम दोस्तों के बीच में जब दीवाली आने वाली हुआ करती थी। कुछ दिन पहले से ही स्कूल डायरी में हम दीवाली हॉलीडेज की लिस्ट चेक कर लिया करते थे। दीवाली आने से दस-पंद्रह दिन पहले हमारी क्लास के कुछ शैतान लड़के पटाखे फोड़ने लग जाते थे। क्योंकि मैं अपने स्कूल के दिनों में क्लास की मॉनिटर हुआ करती थी, तो टीचरजी मेरी ही ड्यूटी लगा दिया करती थीं,मुझे  टीचर का आर्डर मिलता था,”,रचना चेक रखो, कौन-कौन क्लास में बॉम्ब फोड़ता है। नाम नोट करके मुझे दे देना”। आर्डर तो मिल जाया करता था ,पर अपने साथी दोस्तों के नाम कभी न दिए थे, मैने मैडम को। आख़िर हम कौन  से कम थे,छोटे-मोटे पटाखों के तो हम भी मज़े ले लिया करते थे,क्लास के पीछे वाली साइड में जाकर। दीवाली होलीडेस शुरू होने से एक दिन पहले स्कूल में ज़बरदस्त  दीवाली सेलिब्रेशन हुआ करता था। मुझे आज भी याद है, प्रिंसिपल से लेकर टीचर्स तक इस दीवाली सेलिब्रेशन में सभी शामिल हुए करते थे। सच!वो भी क्या दिन थे,न चिंता न फ़िक्र न था डर  सभी दोस्तों के साथ हाथ मिलाते हुए वादे हुआ करते थे साथ चलने के हरदम।

घर में भी दीवाली आने से एक महीना पहले से ही माहौल बदल सा जाया करता था। मुझे अच्छी तरह से याद आते हैं, वो पल जब माँ और पिताजी पूरी दीवाली की प्लानिंग किया करते थे। पिताजी पहले फौज में अफ़सर थे, सर्विस छोड़ने के बाद हम दिल्ली आ गए थे, पिताजी ने अपना बिसनेस शुरू करने का फैसला ले लिया था, ईश्वर का साथ रहा और पिताजी ने भी दिन रात एक करके अपना बिज़नेस दिल्ली में सेट-अप कर लिया था। अपना खुद का काम होने के कारण बहुत कुछ सीखने को मिला था, किस तरह से अपने  काम की शुरुआत ईश्वर को समर्पित करके की जाती है, सब  सीखा था हिमने। खैर!दीवाली शुरू होने से पहले जो माँ और पिताजी प्लानिंग किया  करते थे ,उसमें सबसे पहले सफाई आती थी, जो हम तीनों बहिन-भाईयों में बाँट दी जाती थी। घर के हर एक कोने की सफ़ाई को डिवाइड कर दिया जाता था, कि कौन क्या चमकाएगा। पिताजी थोड़ा सा लालच भी दे दिया करते थे, कहा करते थे,”,देखना जो मन से काम करेगा उसको दीवाली पर स्पेशल गिफट मिलेगा”। बस!फिर क्या था , गिफट के लालच में हम तीनों बहन भाई जी तोड़ मेहनत से लग जाया करते थे। अंत में इस घर की सफ़ाई वाले competition में पिताजी हम तीनों बहन भाईयो को ही विजयी घोषित कर दिया करते थे। खुश होकर पिताजी कह दिया करते थे”चलो भई अपना-अपना तोहफ़ा बता देना मुझे”। मैं तो इतनी खुश हो जाया करती थी, कि बस!आँव देखती थी न तांव बाज़ार की ओर भईया के साथ निकल पड़ती थी। मुझे हर दीवाली पर अपने लिए एक नया सूट खरीदने का बेहद शौक था, कोई चाहे पिताजी से कोई और  कुछ भी तोहफा माँगे में तो बस नए सलवार कुर्ते को हर दीवाली में अपने गिफ्ट के रूप में पाकर खुश हो जाया करती थी। सफ़ाई तो केवल प्लानिंग का एक ही भाग हुआ करता था, अब दूसरा और महत्वपूर्ण दीवाली का हिस्सा यह हुआ करता था, कि घर के लिए क्या और किस तरह की शॉपिंग करनी है। शॉपिंग विभाग माँ का हुआ करता था,हाँ!लिस्ट बनाते वक्त माँ अपने साथ मुझे ज़रूर शामिल कर लिया करतीं थीं, कहा करती थीं”,मैं बोलती चल रही हूँ, चलो लिखती चलो”। शॉपिंग लिस्ट में सबसे पहले माँ मन्दिर का सामान लिखवाया करतीं थीं। पूजा के समान में लक्ष्मी गणेश की नई मूर्ति हुआ करती थी,…साथ ही प्रसाद में खील बताशे लिखवाया करतीं थीं। मैने एक बार अपनी माँ से पूछा था,”माँ ज़रूरी है,क्या दीवाली पर लक्ष्मी जी और गणेश जी की पूजा करना, हम किसी और देवी या देवता को क्यों नहीं पूजते हैं ,इस दिन”। माँ ने मेरे इस प्रश्न का उत्तर मुझे बहुत ही प्यार से समझाते हुए दिया था। उन्होंने मुझे छोटी सी लक्ष्मी गणेश की एक कथा सुनाई जो मैने अपनी माँ के ही मुहँ से पहली बार सुनी थी,स्कूल वगरैह में इस तरह की कहानियों का हमारे स्कूल के कोर्स में कोई ज़िक्र न था।माँ द्वारा सुनाई गई कहानी कुछ इस तरह से थी…

माँ ने बताया कि कोई भी शुभ कार्य गणेश पूजन के बग़ैर पूरा नहीं होता। गणेश जी बुद्धि प्रदान करते हैं, और विघ्न  विनाशक और  विघ्नेश्वर हैं। माँ ने मुझे  समझाते हुए कहा था, यदि व्यक्ति बहुत पैसे वाला है,लेकिन अक्ल कम है, यानी बुद्धि का आभाव रखता है,तो वह वयक्ति अपने पैसे का इस्तेमाल ठीक से नहीं  कर पायेगा। इसलिए माँ बोली थी, की व्यक्ति का बुद्धिमान और विवेकी होना आवश्यक है। तभी धन के महत्व को समझा जा सकता है। और उन्होंने कहा,”ठीक है बेटा, इसीलिए  लक्ष्मीजी और गणेशजी की पूजा होती है”। लक्ष्मीजी धन का प्रतीक होती हैं। मैंने माँ द्वारा लक्ष्मीजी और गणेशजी की कहानी को अपने दिमाग़ में कुछ इस तरह से जोड़ा,”अरे!हाँ! तभी कुछ लोग दीवाली वाले दिन रात भर घर का दरवाज़ा खुला रखते है, और मन्दिर में रात भर  दीपक जलता रहता है, ताकि  घर में लक्ष्मीजी  खुश होकर प्रवेश करें, कहने का मतलब खूब पैसा आये”। खैर!हमारी लिस्ट लक्ष्मीजी और गणेशजी की नई मूर्ती पर ही अटक गई थी, मैं मुहँ में पेन दबाए बैठी थी, और माँ समझाते हुए रुक कर बोली थीं, “ठीक है, चलो अब आगे लिखो”।आगे की लिस्ट में माँ लिखवा रहीं थीं, खील बताशे प्रसाद के रूप में, दिया, कैंडल्स और सजावट का सामान। आख़िर में माँ यह कहते हुए अपनी जगह से उठकर  चलीं गयीं थीं, कि”मिठाई वगरैह के डब्बे पिताजी की ज़िम्मेदारी है, क्योंकि उन्हें अपने ऑफिस के स्टॉफ में भी तो बाँटनी है”।

शॉपिंग की ज़िम्मेदारी हमेशा से ही  मेरे बड़े भाई साहब की रहा करती थी। कभी-कभी उनके साथ समान उठवाने में मदद करवाने और घर की सजावट का सामान पसन्द करने के लिए मैं भी साथ हो लिया करती थी। हम अपने पास के  बाज़ार तिलक-नगर जो कि दिल्ली का फेमस मार्किट है, वहीं से दीवाली की शॉपिंग किया करते थे। हमारे घर के नज़दीक ही पड़ता है,तिलक-नगर। शॉपिंग ख़त्म होने के बाद मार्किट से लौटते वक्त मेरे बड़े भाई साहब मुझे कुछ चांट टिक्की भी खिलवा दिया करते थे, सच!कहूँ तो दीवाली की शॉपिंग कम, पर मैं टिक्की खाने के लालच में ज़रूर साथ हो लिया करती थी। बाज़ार बहुत ही सुन्दर ढंग से सजा होता था,पूरे बाज़ार में केवल दीवाली के सामान की ही रौनक हुआ करती थी।  पूरा मार्किट चारों तरफ से मिट्टी के दीये, खील-बताशों के ढेर, लक्ष्मी गणेश की सुन्दर, सूंदर मूर्तियाँ और  मिठाई की दुकानें  कई तरह की मिठाई से भरी होती थीं।  सजावट के समान की भी देखने लायक वैरायटी दुकानों के बाहर लटक रही होती थी। पूरा का पूरा बाज़ार ज़बरदस्त  रंगीन और रौनक वाला लगा करता था ,मन तो होता था, कि शॉपिंग के बाद भी यहीं बाजार में घूमते रहें। वैसे तो मैं और मेरे बडे भाई साहब कार से ही जाया करते थे, शॉपिंग करने। पर कभी किसी दीवाली पर मेरा मन रिक्शे में जाने को भी हो जाता था,दिल्ली में रिक्शे की सवारी करने का अपना अलग ही मज़ा है। और अब तो बैटरी वाले रिक्शे चल पड़े हैं, मुझे तो भई रिक्शे की सवारी करने में बहुत मज़ा आता है। मन होता है, कि एक बार पूरी दिल्ली का चक्कर रिक्शे से ही लगा दूं।
माँ मुझे और भईया को कहकर भेजा करतीं थीं, की”धनतेरस की शॉपिंग रहने देना,वो में और पड़ोस वाली आंटी साथ में ही करने जाएँगे”। मुझे याद है ,धनतेरस से एक दिन पहले माँ और पिताजी हम बच्चों को बिठाकर डिसकस किया करते थे,प्यार में  माँ-,बापू बोला करते थे,”हाँ!भाईयों किस टाइप का बर्तन लाये इस बार, पिछली बार तो प्लेट और स्टील की कटोरियाँ लाये थे”। हम भी खुशी में कोई भी बर्तन का नाम ले दिया करते थे,और कह दिया करते थे,”की माँ इस बार धनतेरस से पहले जब आप आंटी के साथ बर्तन लेने जाओ तो हमारी पसन्द का फलाँ बर्तन ले आना”। दीवाली की तैयारी के दौरान धनतेरस की बात चल ही रही थी,कि पिताजी ने हम तीनों बहन-भाईयों का टेस्ट कर डाला,”हाँ!भई बताओ !धनतेरस का दिन क्या महत्व रखता है, धनतेरस का दिन दीवाली से पहले”। अब सब चुप!क्योंकि एकदम सही परिभाषा तो भाई साहब को भी न आती थी, में और छोटा वाला भाई तो खैर अभी छोटे थे। हमें स्कूल में भी न समझाया गया था, धनतेरस का महत्व। पिताजी ने चुप-चाप हम तीनों की तरफ देखते हुए हमें  धनतेरस का महत्व समझाया था। पिताजी का कहना था, की धनतेरस के दिन नए बर्तन का  खरीदना शुभ माना जाता है। पुराने बर्तन के बदले लोग नए बर्तन खरीदते हैं। इस दिन चांदी के बर्तन खरीदने से और अधिक लाभ माना गया है। धनतेरस और स्वास्थ्य का भी गहरा संबंध माना गया है। धनतेरस वाले दिन से ही दीवाली मान ली जाती है, और पूरे घर को दिए और लाइट से रौशन कर दिया जाता है। पिताजी ने कहा था,”इसीलिए हम लोग धनतेरस से एक दिन पहले से  ही घर में लाइट वगरैह टाँग लेते है, और धनतेरस वाले दिन दिए भी जलाते हैं”।
शॉपिंग भी हो चुकी होती थी,और घर की सफ़ाई वगरैह भी हो गयी होती थी। घर का कोना-कोना देखने लायक चमका करता था। धनतेरस से एक दिन पहले हम अपने सारे घर में लाइट वाली लड़ी टाँग दिया करते थे। आस-पड़ोस में देख लिया करते थे ,की कुछ भी हो हमारा घर ही सजावट में फर्स्ट नम्बर पर आना चाहिए। कुछ गेन्धे के फूलों की माला से भी हम अपने घर की सजावट किया करते थे। हमारा घर धनतेरस से एक दिन पहले ही दुल्हन की तरह सज जाया करता था। कॉलोनी में हमारा घर ही सबसे सुन्दर लगा करता था, दीवाली पर। अपने मायके की दीवाली में कभी नहीं भूल पाती हूँ, धनतेरस वाले दिन से ही सेलिब्रेशन शुरू हो जाया करता था,घर पर। धनतेरस वाले दिन लाइट के साथ हम लोग सात मिट्टी के दिये भी जला दिया करते थे, क्योंकि सात मिट्टी के दियों की मान्यता होती है, धनतेरस वाले दिन…ऐसा माँ ने बताया था। धनतेरस वाले दिन से ही हम बहन-भाई पटाखे फोड़ने लग जाया करते थे। घर में तरह-तरह के पकवानो के बनने की खुशबू आने लगती थी। गुजिया,बेसन के लड्डू और मठरी इन सब की तैयारी हो जाया करती थी, और बाज़ार से जो मिठाई आती थी वो तो खैर!अलग से हुआ ही करती थी। छोटी-छोटी टिकली वाले पटाखों को पिस्तौल में डालकर बजाने के भी हमनें खूब मज़े लिए हैं। धनतेरस, छोटी दीवाली और फिर बड़ी दीवाली वाला दिन आ ही जाता था, जिसका हम सब को ख़ासकर हम बच्चों को बेहद इंतेज़ार रहता था। श्री रामचन्द्र जी के वनवास से अयोध्या लौटने के दिन को हम भी खुशी और धूम-धाम से मनाया करते थे, दीवाली के रूप में।
दीवाली वाले दिन की शुरुआत हम अपने पिताजी के ऑफिस से किया करते थे। पूजा की सारी सामग्री लिस्ट बनाकर  ऑफिस ले जाया करते थे। माँ , पिताजी हम सब और पिताजी का पूरा स्टॉफ सबसे पहले दीवाली का पूजन ऑफिस में ही किया करते थे। ऑफिस में पूजन विधि के पश्चात सारे स्टॉफ मेम्बेर्स को पिताजी अपने  हाथों से मिठाई का डिब्बा और दीवाली का एक-एक उपहार सभी को दिया करते थे। ईश्वर की दया से पिताजी की मेहनत रंग लाई थी, और बिज़नेस भी अच्छा चल रहा था, बिज़नेस की तरक्की की खुशी में सारे स्टॉफ को दीवाली पर बोनस भी दिया जाता था। ऑफिस में छोटा सा और मनभावन दीवाली का फंक्शन करने के बाद हमारा सारा परिवार घर लौटता था। वापिस आते-आते हमें दोपहर ही हो जाया करती थी, दोपहर का खाना-वाना खाकर हम सब शाम के त्यौहार की तैयारियों में लग जाया करते थे। सबसे पहले हम मिट्टी के सारे दिए पानी के बर्तन में डुबो दिया करते थे,माँ कहा करती थी, कि ऐसा करने से दिये तेल कम पीते हैं। थोड़ी सी देर बाद हम उन दियों को पानी में से निकाल कर उल्टा रख दिया करते थे, पानी निचुड़ने के लिए। शाम के अँधेरा होने पर सारे घर की लाइट ऑन कर लड़ी वाली लाइट भी जला दिया करते थे। अरे! एक बात तो मैं आप सब को बताना भूल ही गयी कि हम धनतेरस वाले दिन से एक दिन पहले ही अपने घर के मन्दिर की साफ-सफाई कर उसे एकदम चमका लिया करते थे, बहुत ही सुंदर लकड़ी का बड़ा सा मन्दिर हुआ करता था हमारे घर में। हाँ!तो  दीवाली की शाम दिए जलाने से पहले हमारा सारा परिवार लक्ष्मी और गणेशजी की पूजा के लिए एकत्र होता था। माँ पूजा की थाली सजा दिया करती थी, जिसमें घी से भरा बड़ा सा मिट्टी का दीपक,प्रसाद के खील-बताशे और लक्ष्मी गणेश जी को भोग लगाने के लिए मिठाई हुआ करती थी। माँ बहुत ही सुंदर स्वर में लक्ष्मीजी की आरती  गाया करती थीं,हम सब भी अपनी माँ के साथ पूरी श्रद्धा के साथ पूजा में उपस्थित होते थे। पूजा समाप्त होने के बाद हम बहन-भाई पटाखे छोड़ने बाहर अपने दोस्तों में भाग जाया करते थे। हम सब ने अपने नए-नए कपड़े तो पहन ही रखे होते थे,माँ और पिताजी भी तैयार होकर अड़ोस-पड़ोस में दीवाली की मिठाई देने और “हैप्पी दिवाली”कहकर त्यौहार की बधाई देने जाया करते थे। उसी तरह से हमारे यहाँ भी हमारे अड़ोस-पड़ोस वाली आंटी अंकल अच्छे से तैयार होकर हमारे घर भी हमें  त्यौहार की ढेर सारी शुभकामनाएं देने आया करते थे। मुझे तो दीवाली  पर अनार,चकरी और फुलझड़ी चलना ही सबसे ज़्यादा पसन्द आता था, भईया लोग तो बडे-बडे बॉम्ब पटाख़े फोड़ा करते थे, जिनकी आवाज़ सुन कर मैं डर के मारे कमरे में ही भाग जाया करती थी। हाँ!हमारे पड़ोस में एक दीदी रहा करती थीं, काफी अच्छा आना-जाना था उनका हमारे यहाँ। दीदी रंगोली बनाने में बहुत ही एक्सपर्ट थीं, हम छोटे थे, और माँ के पास इतना टाइम न हुआ करता था, इसलिए  दीदी ही हमारे घर के आँगन में धनतेरस से पहले बहुत सुंदर सी रंगोली बना जाया करती थीं। लक्ष्मी पूजन के बाद ही हम मिट्टी के दिए वगरैह जलाते थे। दीवाली वाले दिन घर में बने हुए माँ के हाथ की खीर, पूरी और आलू की कचोरियों का स्वाद तो आज भी मेरी ज़बान पर वैसा का वैसा रखा है। सच!खूब धूम-धाम से मनाया करते थे , दीवाली का त्यौहार सबके साथ। दीवाली का एक बहुत ही मज़ेदार क़िस्सा यह है,कि त्यौहार ख़त्म होने के कई दिन बाद तक मैं और मेरा छोटा भाई खील-,बताशे खाने के मज़े लिया करते थे….वो रंगीन मीठे खिलौने जिनमें घर,घोड़ा, हाथी और कुत्ता आदि बने होते थे, खाने में बहुत आनन्द आता था, सच!आज भी उन रंगीन खिलौनों की याद कर जो हम बहन-भाई पूरी दोपहर खील के साथ खाया करते थे… मुहँ में एक बार फिर यादों की चाशनी सी घुल जाती है।
‌अभी तो दीवाली ही ख़त्म हुई थी, पर हमारे दीवाली होलीडेस अभी भी चल रहे थे। अभी हमारी दो छुट्टियाँ और बाकी थीं। माँ अगले दिन की रसोई में कई सारे पकवानों की तैयारी कर रहीं थीं, क्योंकि अगले दिन गोवेर्धन पूजा थी….गोवेर्धन पूजा से मुझे अपनी नानी जी का गाँव याद आ जाता है। एक बार हम दीवाली पर अपनी ननिहाल गए हुए थे, नानी के घर पर ही पूरी दीपावली की छुट्टियाँ बिताई थीं। इसलिए मुझे गोवेर्धन वाले दिन नानी का घर याद आ गया था, गोवेर्धन पूजा तो गाँव में हमारे दिल्ली से भी कहीं अच्छी तरह  नानी के घर मनाई जाती है। गोवेर्धन वाले दिन हमारी नानी सुबह से ही अन्नकूट की तैयारी में लग जाया करती थीं, और बड़ी सी  कढ़ाई चढ़ाकर सारे दिन के लिए ढ़ेर सारे  पकवानो की तैयारी शुरू कर दिया करती थीं। गोवेर्धन पूजा के विषय में नानी से ही पता चला था, कि गोवेर्धन पूजा में गोधन यानी गायों की पूजा की जाती है। नानी ने बताया था, कि गाय उसी प्रकार पवित्र होती है जैसे नदियों में गंगा। गाय को देवी लक्ष्मी का स्वरूप भी कहा गया है। नानी ने हमें समझया था, कि जैसे लक्ष्मी धन और सुख समृद्धि प्रदान करती हैं,ठीक वैसे ही गाय अपने  दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती है। गाय के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही गोवेर्धन पूजा की जाती है। मुझे याद है, ननिहाल में बड़ा सा बिटोरा बनाकर उसकी गोवर्धन वाले दिन पूजा की जाती थी। बिटोरा यानी के गाय के गोबर से बने हुए उपलों का घर। जो चूल्हे में खाना पकाने के काम आते हैं।गोवेर्धन पूजा पर फिर से हम पकवानो के मज़े लिया करते थे। अगले दिन तक भी बचे हुए पकवान कूद-कूद कर खाया करते थे। गोवेर्धन का एक दिन बीच में छोड़कर ही  भारतवर्ष के सबसे पवित्र त्यौहार,”भइया दूज”आया करती थी। यह त्यौहार भाई बहन के रिश्ते को प्यार की डोर से मज़बूत बनाता है। हिन्दू धर्म का सबसे पवित्र त्यौहार माना गया है ,ये। भैयादूज वाले दिन मैं सुबह-सुबह ही नाहा-धोकर नए कपड़े पहनकर तैयार हो जाया करती थी। थाली में रोली टीका सजाकर रख लेती थी। दोनों भाई भी तैयार होकर आ जाया करते थे ।माँ ने मुझे सिखाया था, कि बेटा इस दिन रोली टीका लगाकर बहनें अपने भाईयों के उज्जवल भविष्य की कामना करती हैं। माँ के समझाए हुए तरीके से ही मैं भी अपने दोंनो भाईयों को रोली टीका कर उनके भविष्य की उज्ज्वल कामना किया करती थी,और मज़े की बात तो यह है, की मैं यह भी प्रार्थना करती थी, कि है!भगवान मेरी और मेरे छोटे भाई का लड़ाई झगड़ा कम हो। आज जब मैं अकेले में बैठ कर यह लड़ाई झगड़े वाली बात सोचती हूँ, तो अपनी मासूमियत पर हँसी आ जाती है।
‌दीवाली हॉलीडेज भी ख़त्म और त्योहारों की रौनक भी ख़त्म हो जाया करती थी। फिर वही स्कूल की भाग-दौड़ शुरू। अपने बचपन के त्यौहारों की मीठी यादें हमेशा मेरे साथ रहेंगी। वो त्यौहारों पर माँ-बापू के त्यौहारों के महत्व को कहानी के रूप समझाना और हम बहन भाइयों का माँ के हाथ के पकवानो का मज़ा लेते हुए त्यौहार मनाना कभी न भूलूँगी मै। अपने मायके की मिठास भरी त्यौहारों की यादें हमेशा रह जाएंगी मेरे साथ। हालाँकि विवाह के पश्चात ससुराल में भी त्यौहार बेहद धूम-धाम से मनाते हैं,  पर फ़िर भी मायके की मिठास के आगे फीके रह जाते है। इस दीवाली पर भी अपनी उन बचपन की अनमोल और चाशनी से भरी मीठी यादों को लिये… मैं आप सभी मित्रों और आपके परिवारजनों को इस दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ देती हूँ।
‌Wish you a very Happy Diwali!!

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