“कहां चलेंगे साहब?” रिक्शा चालक ने प्रश्न पूछा था।
“जहां झुमका गिरा था!” उत्तर जस्सी ने दिया था।
मैं चुप खड़ा था। मुझे मालूम था कि अब जस्सी अपने मजे स्टाइल में इस रिक्शे वाले के साथ रंग लेगा। स्वाभाविक भी था। कारण – हम लोग ऊपर से आये थे। मतलब कि उन पहाड़ी प्रदेशों से जहां सभ्य समाज की परछाइयां तक जाने से परहेज करती हैं! जहां घर से आये पत्र भी सप्ताहों पुराने होने के बाद हाथ में आते हैं! जहां तापमान शून्य से नीचे खिसकता ही चला जाता है .. और ..
“कौन सा झुमका साहब?” रिक्शे वाले ने खिसियाकर पूछा था।
“अरे क्यों?” जस्सी चहका था। “झुमका नहीं गिरा बरेली के बाजार में?” उसने प्रश्न किया था। “सारा देश गाता है – यार! तुम्हें बरेली में रहकर पता नहीं?” जस्सी ने आश्चर्य जाहिर किया था।
“कोई झुमका नहीं गिरा इहां!” रिक्शे वाला झुंझला गया था। “ये तो फिल्मों की बात है साहब!” उसने जानकारी दी थी।
“तब सिनेमा हॉल पर ले चल! फिल्म ही देख लेते हैं!” जस्सी ने उसे आदेश दिया था।
हम दोनों खूब हंसे थे। यों शहर में महीनों के बाद लौटना कितना अच्छा लगता है – कोई ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों पर पहरा देते सैनिकों से पूछे! यहां की रंग और रौनक का तो अलग ही जायका है! हम दोनों प्रसन्न थे कि कम से कम हमें दस-पंद्रह दिन का ये खेल आयोजन मौका देगा – जब हम इस सत रंगी दुनिया में खेल-कूद लेंगे और फिर चले जाएंगे अपने सफर पर!
सिनेमा देख कर हम देर रात लौटे थे!
“है – मेरे कमरे में कोई ..” हड़बड़ा कर जस्सी उठा था और अपने कमरे में भागा था। उसने बत्ती जलाई थी और कमरे का मुआइना किया था। वहां कोई नहीं था। वह लौटा था और सो रहा था।
मुझे गहरी नींद ने आ दबोचा था। लेकिन अचानक ही जब जस्सी दूसरी बार अपने कमरे में भागा था तो मेरी भी नींद खुल गई थी।
“क्या रे भाई ..?” मैंने जस्सी को कोसा था। “आज सोने नहीं देगा क्या?” मैंने पूछा था।
“नहीं वेम्स?” जस्सी कह रहा था। “है कोई जरूर! मेरे कमरे में है लेकिन दिख नहीं रहा है!”
“पागल मत बना यार!” मैं झुंझला गया था। “सोने दे न! सुबह मेरी तीन इवेंट हैं। तेरा तो कुछ है नहीं!”
जस्सी माना नहीं था। चारपाई पर बैठा रहा था। आस-पास गरमियों में बाहर सोते सभी ऑफिसर जाग गये थे। सभी ने देखा था पर चोर कहीं नहीं था। फिर सबने मिल कर जस्सी को कोसा था। लेकिन अचानक ही रवीश कूदा था, उछला था और जस्सी की चारपाई की ओर इशारे कर रहा था।
“वो .. वो देखो चारपाई के नीचे चोर!” रवीश बता रहा था।
और अब हम सबने मिलकर उसे जस्सी की चारपाई के नीचे से बाहर खींचा था और उस पर खूब लात घूंसे बरसाए थे। पिटता रहा था चोर – और बाद में हाथ जोड़े विनम्रता पूर्वक बोला था – साहब भूखा हूँ दो दिन का। जेल से छूट कर आया था। साहब के कमरे में धरा वो टू इन वन दिखाई दे गया। सोचा ले चलूं। बेच कर खाना खा लूंगा। लेकिन ..
“चाय पिलाओ इसे यार!” रवीश बोला था। सुबह होने को थी। हम लोगों की चाय आ गई थी मैस से। “बेचारा भूखा-प्यासा है!” रवीश कहता रहा था।
और हम सब ने चोर की खूब खातिर की थी। उसे चाय पिलाई थी। और खाने के पैसे दे कर विदा किया था।
खेल के मैदान में हमारा पहला दिन अच्छा न निकला था। मुझे और जस्सी को चिंता होने लगी थी। हम तो इस बार चैंमपियनशिप जीतने की शर्त लेकर बरेली आये थे। और जो आसार हमें नजर आये थे आज वो तो बेहद निराशा जनक थे। हमने अपनी योजना बदली थी और मैं और जस्सी जान लगा कर मुकाबला जीतने में जुट गये थे।
लेकिन जब जस्सी ने मेरा नाम डिकैथलॉन में डाला था तो में उससे झगड़ पड़ा था!
“क्या यार!” मैंने जस्सी को आंखों में घूरा था। “मेरे बस का नहीं – ये डिकैथलॉन! बलबीर कौन बुरा है, यार ..?”
“उसे तीन इवेंट पकड़ा दिये हैं वैम्स! यार अगर हार गये तो कैसे मुंह दिखाएंगे कर्नल नायर को? तुम तो जानते हो उसे! खून पी लेगा यार!” जस्सी उद्विग्न था।
और मरते मराते मैं अब डिकैथलॉन से जूझ रहा था। दस आइटम थे और सब के सब जानलेवा थे। लेकिन मुकाबला तो था ही और जान लड़ा कर ही जीतना था। जस्सी ने दो दौड़ें जीत ली थीं। हमें उम्मीद बंधने लगी थी कि हम कुछ जरूर कर पाएंगे! और शंभु ने सौ मीटर की दौड़ का जब रिकार्ड तोड़ा था तो हम लोगों की खुशी का ठिकाना न रहा था!
मैं पोल वॉल्ट से जूझ रहा था। अंतिम ऊंचाई को पार करने के दो मौके गंवा चुका था। क्या था कि पोल बीच में फिसल जाता था और टच हो जाता था! अंतिम मौका था अतः मैंने निश्चय किया था कि मैं इस बार सफल होकर ही रहूँगा!
“देट्स ग्रेट वैम्स!” जस्सी था जो जोरों से चीखा था। कारण – इस बार मैंने मोर्चा मार लिया था और अच्छी कूद की थी मैंने!
लेकिन जैसे ही मैं गद्दे पर आकर गिरा था मुझे लगा था कि कुछ गलत हुआ है। फिर पता चला था कि मेरा बायाँ पैर तनिक तिरछा होकर गद्दे पर पड़ा है और पैर में मोच आई है! मैं कठिनाई से उठा था और लंगड़ाता हुआ बाहर आया था!
“कोई नहीं, यार!” जस्सी ने पैर की देख-भाल करने के बाद कहा था। “बेंडेज बांध!” उसने सुझाया था। “ठीक हो जाएगा!” वह कहता रहा था।
उस दिन हमने खूब शोहरत बटोरी थी। हमने मोर्चा मार ही लिया था। हमें कुल पांच पॉइंट और चाहिये थे। सो तो हमारी योजना के अनुसार तय थे। लेकिन शाम को मेरे पैर में खूब दर्द हुआ था और मैं बिना दर्द की गोली खाये सो भी न सका था!
“लगता नहीं है – दौड़ पाऊंगा जस्सी!” मैंने आह भर कर कहा था। “साला पैर तो सीधा ही नहीं पड़ रहा है!” मैं हैरान था।
“लुट जाएंगे यार वैम्स!” जस्सी घबरा गया था। “तेरे बिना इस दौड़ की इवेंट को और कौन कर पाएगा?” उसका प्रश्न था – जो सही था!
हम दोनों के सामने एक संकट आ खड़ा हुआ था!
“दौड़ तो लूंगा साहब!” दलबीर ने हामी तो भरी थी। “लेकिन ..” उसका शक था कि वो शायद ही जीते!
जस्सी का चेहरा उतर गया था। मुझे भी गम सता रहा था। अब हो तो क्या हो?
“दौड़ ले वैम्स!” जस्सी ने कातर आवाज में कहा था। “यार! जो हो सो हो!” वह कह रहा था। “एक बार मन की बात मान लेते हैं!” उसने आग्रह किया था। “पट्टी बांध ले कस के और थोड़ा सा ..”
“कहता है तो चल कर लेते हैं!” मैं भी मान गया था। कारण इज्जत का सवाल था। हम जीत रहे थे और अगर ये इवेंट हाथ से निकल जाती तो फिर तो ..
आज फाइनल था। दर्शक दीर्घा में आगन्तुकों की भीड़ लगी थी। सत रंगी भीड़ को देख कर मेरा मन मचल गया था। अगर आज .. इन सबके सामने मैं हारा तो हमेशा के लिए मन हार जाएगा – मैं सोचे जा रहा था! कोस रहा था मैं अपनी लंगड़ी हुई बाईं टांग को लेकिन विकल्प तो कोई नहीं था!
मुझे तीसरा लेन मिला था। मैं झुकाया खड़ा था अपनी लेन पर। मेरा मन तनिक उदास था। अन्य खिलाड़ियों के होंसले बुलंद थे। उन्हें पता था कि मेरी बाईं टांग में मोच थी और ..
“गैट-सैट गो!” बंदूक बोल पड़ी थी और दौड़ आरम्भ हो गई थी!
आहिस्ता से मैंने पैर उठाया था और दौड़ना आरम्भ कर दिया था!
मैं सबसे पीछे दौड़ रहा था। तनिक सा लंगड़ा भी रहा था। बाईं टांग से उठते पीड़ा के पारा वार मुझे बार-बार रुक जाने को कह रहे थे! कह रहे थे कि – कृपाल जान है तो जहान है! लेकिन अचानक ही मैंने भिन्न प्रकार की चीख चिल्लाहट सुनी थी!
“वैल डन अंकल!” दर्शक दीर्घा में बैठे बच्चों में से एक खड़े होकर कह रहा था और मेरी ओर हाथ हिला रहा था!
“कीप इट अप अंकल!” शायद एक लड़की थी – जो जोरों से चिल्लाई थी!
मैंने निगाहें पसार कर बच्चों के एनक्ललोजर में बैठे उनकी भीड़ को देखा था! नन्हे-नन्हे गुलाब के फूलों से बच्चे थे! रंग बिरंगे परिधानों में सजे ये भविष्य के सिपाही मुझ सहोदर को उत्साहित कर रहे थे – जो दौड़ में सबसे पीछे घिसट रहा था .. पर दौड़ रहा था .. लंगड़ाता हुआ भी दौड़े ही जा रहा था!
ये मेरे लिए दर्शाया स्नेह मुझे भा गया था। मैंने हाथ उठा कर उन सबके स्नेह को स्वीकार किया था और आगे जाते अपने प्रतिद्वंदियों को परखा था। पहला ही चक्कर था और मैं उन सब के पीछे था – पर ज्यादा पीछे न था। पैर की पीड़ा तनिक सी कम हुई थी। शरीर भी गरम होने लगा था। मन खुलने लगा था। साहस लौटने लगा था। और मेरा कदम अनायास ही बढ़ने लगा था!
दूसरे चक्कर में जब मैं अगले टोल से आ मिला था तो मेरी मित्र मंडली ने खुलकर तालियां बजाई थीं। अब मैं उनका हीरो था। वो सबसे आगे जाने वाले प्रत्याशी पर ताली न बजा कर मेरा इंतजार करते थे और सामने आने पर तालियां बजाते थे!
तीसरे चक्कर पर मुझे पता था कि अब कदम बढ़ाना होगा और लीड में आना होगा ताकि जीतने की संभावनाएं बढ़ जाएं! और अब मैं दूसरे लेन में आगे जाते खिलाड़ी के ठीक पीछे आ गया था। मेरे मित्रों ने जम कर तालियां बजाई थीं!
पूरी जमा दर्शकों की भीड़ अब जैसे मुझे ही देख रही थी – एक अजूबे की तरह! उन्हें भी आश्चर्य हुआ था कि किस तरह मैंने अंतिम चक्कर में आगे आकर लीड ले ली थी और अब मैं संभलकर अपने लेन पर दौड़ रहा था!
बगल वाले खिलाड़ी ने कोशिश की थी कि वह मुझे स्टेप आऊट कर दे! लेकिन मैंने भी अपना कदम बढ़ाया था, सांस को संभालकर कदम से जोड़ा था और अब अंतिम दाव खेला था! मैं आगे था .. आगे-आगे चला ही जा रहा था और ..
मेरी मित्र मंडली के हर्षो-उल्लास का ठिकाना न था! कूद-कूद कर .. नाच-नाच कर वो मेरी होने वाला विजय को सराह रहे थे .. गा रहे थे!
मैं विजयी हुआ था तो मेरी पूरी मित्र मंडली दर्शक दीर्घा से उठकर मेरे पास दौड़ आई थी। मैं भी हारा-थका वहीं लेन में बैठ गया था – उनके पास और सांसे जोड़ने लगा था!
“अंकल .. मैं दीपू, मैं मोनू, मैं हीरू और मैं तुलसी!” उन्होंने बारी-बारी मुझे अपने परिचय दिये थे और फिर मुझे प्रश्नों में घेरा था।
“आप एक्टिंग कर रहे थे अंकल ..?” दीपू का पहला प्रश्न था।
जटिल प्रश्न था। कारण – सैनिक तो एक्टिंग नहीं आक्रमण करता है! सीधा शेर की तरह आक्रमण करता है – वहां – जहां गोलियां बरस रही होती हैं, गोले फट रहे होते हैं, ग्रिनेड से वार हो रहा होता है और नैपाम बम दागे जा रहे होते हैं! इन सब को अपने सीने पर ओटते हुए चंद संवादों के सहारे सच में ही विजय श्री से हाथ मिलाता है – एक्टिंग नहीं करता!
“नहीं बेटे!” मैंने स्नेह पूर्वक दीपू से कहा था। “देखो ना ये मेरी बाईं टांग!” मैंने प्रमाण पेश किया था और उन सब को अपनी लंगड़ी हुई टांग की मर्मांतक कथा कह सुनाई थी।
“अंकल! इतना दर्द होने के बाद भी आप दौड़े?” अब मोनू पूछ रहा था।
“नहीं तो हार का मुंह देखना पड़ता मोनू!” मैं मुस्कराया था। “हारना नहीं चाहिये हमें। हारने के बाद भी हारना नहीं चाहिये! फिर से तैयारी करो जीतने की .. और ..”
“लेकिन अंकल ..” तुलसी बोली थी।
“उठाओ मुझे!” मैंने बात काट कर कहा था। “पकौड़े नहीं खाने?” मैंने पूछा था। “वो देखो सब लोग तो ..”
और अब उन सब ने मिलकर मुझे खड़ा किया था और हम लोग चाय पीते दर्शकों के हुजूम की ओर चल पड़े थे। हमें आते उन सब ने सही सलामत निगाहों से देखा था!
“वैल डन कृपाल!” जरनल मान मेरी पीठ थपथपा रहे थे। “आई एम प्राउड ऑफ यू!” उनका कहना था।
एक सैनिक को हार जीत से भी ज्यादा सम्मान सुहाता है!
मैं गदगद हो उठा था!

मेजर कृपाल वर्मा