
मुझे मत चुनो !!
मैं जीतने के लिए ही तो हारा था !
यों तो सब कुछ लुट चुका था। सब कुछ बदल चुका था। न वो नाम था ….न वो गांव ! न वो हवा थी …न आसमान। यहाँ तक कि रास्ते भी नए थे। एक भ्रम था …विभ्रम था …अनजान-सा एक संसार था -जिस के बीचोँ -बीच मात्र वक्त की एक ठोकर ने मुझे ला कर बीज की तरह रोप दिया था।
अब मुझे इस नए परिवेश में पनपना था …उगना था …बड़ा होना था ….और फलना -फूलना था।
मैंने आँख उठा कर देखा था। विस्तार थे …सूने मरू-विस्तार ! कहीं पर किसी भी मंजिल का नाम न लिखा था। कहीं भी कोई ठिकाना दिखाई न दिया था। लेकिन मेरे जिद्दी मन ने कहा था ,”वो देखो ,किशन ! प्रथम सोपान ….!! तुम वहीँ तो पहुंचना चाहते हो ,न ? चल पड़ो। मंजिल तो चलने से ही तय होती है – कदम-दर-कदम ! घबराना मत ! एक -न-एक दिन तुम पा जाओगे उन सोपानों को ! तुम्हारा नाम होगा ….तुम्हारा यश होगा …तुम्हारा गुणगान होगा ….और होगा तुम्हारा दिया-किया साम्राज्य !!
मेरी कल्पना ….? ठीक है …सच है …शास्वत है ! बनाओ अपना संसार …दो इसे एक नाम .., नहीं,नहीं ! अपना नाम मत देदेना। वक्त और है, बंधू ! सब कुछ तुम्हारा ही होगा , पर तुम्हारा कुछ भी नहीं होगा …! तुमने दूसरों के नाम लिख कर …सब कुछ अपने नाम रख लेना है !
“कैसे …? येतो संभव ही नहीं ….?”
“है , संभव है …! आँख उठा कर इतिहास को देख लो !! राष्ट्रपिता के नाम पर कौनसी जागीरें लिखी है …? लेकिन …तुम तो जानते हो कि -भारत ही क्यों, समूचा विश्व आज उस का गुलाम है !”
‘चल पड़ता हूँ !’ मैंने इरादा किया था। ‘अतुल जी का अनुशरण करता हूँ। हमारी मंजिल एक है …आदर्श एक हैं ….और अतुल जी अकेले हैं !! आसान रहेगा …, बहुत ही आसान ! एक पहचान बनाने के लिए मुझे मुंह न खोलना पड़ेगा। सब स्वयं हो जाएगा।’
और हुआ भी ! सब कुछ स्वयं ही होता चला गया ! मैं सोपान-दर-सोपान चढ़ता ही चला गया। मेरा नाम ….सितारों-सा चमक गया – चाँद बन गया …सूरज भी बना …और दहकने लगा !
“लो जी ! हो गया काम !! अब सब आसान है। सब हाथ में है। पार्टी बुलंदियों पर है। कौन रोक पाएगा ,,,?” मैंने सगर्व कहा था। “और सच में मुझे अब महत्वपूर्ण पद …और अपूर्व प्रतिष्ठा प्राप्त होनेवाले थे ! मैं अब महा-नायक की भूमिका निभाने वाला था !”
लेकिन …एक तूफान और चला आया ! उड़ा ले गया – मेरा जीता सब सम्मान !! गई कुर्सी …गया वक्त …! मैं अकेला विलाप करता छूट गया ! हार गया ….फिर से हार गया …! न जाने कौन-कौन नाम …कैसे-कैसे नेता ….विचित्र-सी संज्ञाएँ …और बेहूदे अनुमान आ कर आसमान पर टंग गए थे।
“मेरा अपराध , प्रभो …?” मैंने विनय पूर्वक पूछा था।
“तेरी नियति है, पुत्र !” उत्तर आया था। “तू जीतने के लिए ही हारेगा , हर बार , बार-बार ! क्यों विचलित होता है, रे ? ये संसार तो किसी का भी सगा नहीं है ! देख लेना …ये जीतने वाले – एक दिन धूल चाटेंगे ! लेकिन तू …”
“बस,बस , प्रभो ! अपने भविष्य को अपने पास ही रखो ! मुझे तो डर लग रहा है …!” मैंने हाथ जोड़े थे।
मित्रो ! आता-जाता मुझे भी कुछ नहीं ! मैं भी आप लोगों के हाथ जोड़ता हूँ कि अपने निर्णाय आप अपने ही पास रखो …और जिसे चाहो राष्ट्रपति चुन लो !!
श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!