भोर का तारा !

युग पुरुषों के पूर्वापर की चर्चा !

उपन्यास अंश :-

तब मान्यताएं ही ऐसी थीं – कि उच्चकुल के कुलीन लोग ही समाज के आदर्श थे।  उन से ही आशाएं की जाती थीं कि वो समाज के सामने उन सामर्थों के साथ आएं – जो आम आदमी से अलग थीं।  आम आदमी  …..को मात्रा समाज एक लहोकर के रूप में देखता था।  रियाया  …और रैयत – के लोग किसी गिनती में नहीं आते थे।  वो तो समाज के सेवक थे।  उन से उच्च आदर्शों की कोई अपेक्षा ही नहीं रखता था।

इट वाज   …दी   ..साइलेंट सेक्शन   …ऑफ़ दी  ..पीपुल   …हू    …नेवर   …स्पोक   …!!

“चींटी के तो पर ही लग गए    …!” मेरे दोस्तों, सहयोगियों और मेरे मित्रों के ये एलान थे।

लेकिन प्रधानाचार्य ने मुझे दुलारा था  …प्रोत्साहित किया था  ….प्यार किया था  – और मुझे सम्मानित भी किया था !

“कहाँ से आये थे    …ये विचार   …?” मैं अब स्वयं से ही पूछता रहा था.

उस दिन के बाद ही मुझे एहसास हुआ था कि मैं – एक नहीं , दो हूँ ! कोई और भी मेरे साथ मेरे ही शरीर में रहता है ! वह है – ज़रूर !! वह मेरा  मित्र है ! वह मेरा पथ-प्रदर्शक है ! वह मुझे बहकाता नहीं है  ….सच बातें बताता है ! मुझे उस की बात अवश्य सुननी चाहिए , मैंने निर्णय लिया था !

“तेल का भाव नहीं मिल रहा है  ….!” घर में एक बेचैनी भर गई थी. “तेल बाज़ार-भाव से   …ऊंचा है ! हमें परता नहीं खाता ! घाटा जाएगा   …..” बाबू जी चिंता-मग्न थे.

“लेकिन क्यों   …?” मैंने प्रश्न पूछा था. मैं अब घर की गति-विधियों में शामिल रहने लगा था.

“मशीनों का तेल  ….सस्ता मिल रहा है  …! मशीनों का तेल    ….उस से बरामद हुई खल  ….और    …वो बड़ा व्यापार हम छोटों को खा रहा है ! धंधा चलेगा नहीं !” सारी बिरादरी की एक राय थी.

मेरे चौंकने का वक्त था। मेरे भीतर – मेरे साथ रहनेवाले मित्र ने मुझे बताया था कि  ….अब परिवर्तन आएगा   …ये कोल्हू जाएगा – धंधा पिटेगा – और अब एक नया मार्ग प्रशश्त होगा !”

“कौन सा मार्ग    …., मित्र    ….?” मैंने पूछा था.

“कोई भी दिशा चुन लो  …!” उत्तर आया था.

“पूँजी कहाँ है   ?” बाबू जी ने हाथ झाड़ कर कहा था. “ये जो है – सो तो मिटटी हो जाएगा    …! कौन खरीदेगा अब कोल्हू   ….?”

बस्तियों में सन्नाटा आ बैठा था।  एक आता परिवर्तन साफ़-साफ़ परिलक्षित होने लगा था।  धोबियों का धंधा जा रहा था  ….क्योंकि घर-घर लोग कपडे धोने का साबुन बनाने लगे थे।  नाइयों की भी मुशीबत थी।  लोग सैलूनों में जा-जा कर हेयर- कट ले आते थे।  कोई किसी कामवाले को उस का हक़ देकर खुश न था।  मज़दूर की मेहनत मुफ्त जाने लगी थी।

परिवार की आमदनी गिरने के साथ-साथ घाटा भी पड़ा था।

“क्या करें , मित्र   ….?” मैंने उत्तर माँगा था – अपने आप से !

“धंधा कर लो ! कोई छोटा-मोटा धंधा    …जिस में कि ज्यादा पूँजी न लगे।” एक राय आती लगी थी।  “जैसे कि   …रेलवे स्टेशन पर चाय की दूकान खोल लो   ….!”

“आइडिया  ……!!” मैं उछाला था. “गुड आइडिया    …!!” मैंने एलान किया था.

लेकिन जब मैंने यही प्रस्ताव बाबू जी के सामने रखा था – तो वो मुझे आश्चर्य भरी निगाहों से देखते ही रहे थे !

“कुँए से निकले   ….भाड़ में गिरे   …!” उन की प्रतिक्रिया थी।  वो प्रसन्न नहीं थे. अपने अच्छे-खासे व्यापार को यों बंद कर   ….और स्टेशन पर चाय बेचना कोई भली बात नहीं थी.

“मैं   …मैं  …आप की मदद करूंगा  …!” मैंने एलान किया था. “आमदनी कैश में होगी। हमें शाम को ही पैसे मिल जाएंगे   ….! लागात भी कुछ नहीं   …हम चाहें तो उधार मैं भी सामान ले सकते हैं।  शाम तक का उधार – चलता है। कोई भी दुकानदार देदेता है ! मैं जुगाड़ लगा लूँगा   ….! आप फिकर न करें, बाबू जी ! हम भूखों नहीं मरेंगे   ….हम  ….!!” मैं आम अपनी आदत के अनुसार एक विकल्प खोज कर उसे अब सिरे चढ़ा देना चाहता था.

मेरी बात सच थी. मेरी युक्ति कारगर थी. हमारे परिवार की गुजर हो सकती थी.

तब मैंने भी अपना एक नया रूप देख लिया था !!

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श्रेष्ट साहित्य – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!

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