गतांक से आगे :-
भाग – ५७
अखबार के मुख-पृष्ट पर चित्र छपा था ! आगवानी करता …चन्दन बोस …और राजमाता -महारानी आँफ ,काम-कोटि -पारुल …मोहक …बे-जोड़ ….और भव्य लग रहीं थीं ….!!
लम्बे पलों तक राजन उस चित्र को देखता रहा था .. ऑंखें भर-भर कर निहारता रहा था और अपनी सुधबुध खो बैठा था. जल उठा था – उसका प्रकारांतर ! सुलग उठी थीं उसकी आकांक्षाएं और .. और एक घोर निराशा ने उसे अतलांत में डुबो दिया था ….!
अचानक ही राजन को अपने स्वर्ण-काल के दर्शन हुए थे ! कभी .. वो था .. जो अख़बारों के पन्नों पर समाता न था. वह स .. सा साबो थी .. विश्व सुंदरी साबो .. सेठ धन्नामल की अकेली बेटी साबो .. और उसकी प्रेमिका .. होने वाली पत्नी .. और प्रेयसी ! कैसा उन्माद था ..? कर्नल जेम्स ने उसे तराश कर हीरा बना दिया था ! जब घोड़े पर सवार राजन ट्रैक में रेस जीतने जा रहा होता .. और साबो उसे पुकारती होती .. ‘वक् अप राजन’ तो वह जान लड़ा देता था ! कजरी जैसे .. एक धूम्र रेखा सी पूरे ट्रैक पर छा जाती और वह विजयी – राजन ..
“तुम्ही ने तो सब बेच-खोच डाला …..?” एक उलाहना आता है. “और .. साबो .. को .. अपनी साबो को .. तुमने क्या दिया ?”
हाँ! साबो ने तो सन्यास ले लिया ! अब वो क्या करे ..?
“पारुल ..?” प्रश्न उठा था.
“गई .. पारुल …!!” उसने हाथ झाडे थे. “और जो .. कोना .. रात को आई थी वो ..?” एक प्रश्न और था जिस का राजन को ही उत्तर देना था. “क्या वो .. कोना ..? भेडिये की तरह वह उसके जिस्म को खता रहा था – फाड़-फाड़ कर ! लेकिन कोना ने तो कोई सउर का संवाद तक नहीं बोला !” वह टीस आया था. “और पारुल ..? व्हाट अ ग्रेस ..! कैसा अंग सौष्ठव है, पारुल का !! हे ! परमात्मा !! क्यों .. क्यों छीन ली .. पारुल ….? कौन सा अपराध बना जो ..?”
मन जाग उठा था. कह रहा था – पारुल को फोन मिलाओ ! उसे ‘धन्यवाद’ बोलो. उसकी प्रशंशा करो ..! आभार जताओ पारुल को .. और कहो कि – ‘मै इन्तेजार में हूँ, पारो !’ और बताओ कि .. हाँ ! हाँ ..! बताओ कि जुआ घर में अगर आ जातीं तो ..
“हैं .. नहीं साव ….. !” फ़ोन पर उत्तर आया था.
“क – कहाँ गई हैं…..? म म मैं राजन ..”
“चन्दन बोस के साथ – सैर पर गई हैं !” स्पष्ट उत्तर आया था.
अब क्या करे राजन ! रात तो बहुत दूर थी .. बहुत दूर ! दिन था कि खिला खड़ा था. उसे लगा था कि – वो एक उजाड़ बियाबान में आ खड़ा हुआ है ! लुटा-पिटा राजन न जाने कहाँ आ पहुंचा है ! अचानक वह छीतर की आवाजें सुनने लगा था .. और महसूसने लगा था कि .. सुलेमान सेठ उसे जूतों से मार रहा था .. कोस रहा था .. कह रहा था – कमजात …! तू ..न सुधरा…..!!
ऑंखें भर आई थीं राजन की ……..!
सोना झील के किनारे बैठे चन्दन बोंस और पारुल मौन थे ….!
कविता को लेकर चन्दन बोंस के भीतर समुद्र मंथन चल रहा था. कविता के डी सिंह की आवाजें वह सुन रहा था. वह सुन रहा था .. उसके ताने उल्हाने और सोच रहा था कि …. अन्य दिनों की तरह यह आज न था. आज वह अपनी दूसरी मंजिल पर आ बैठा था. आज वह निर्णय कर चुका था कि … अब से वह कविता को कह देगा – नो नॉनसेंस….! मेरे पास .. पारुल है ! पारुल .. महारानी ऑफ़ काम-कोटि ! तुम हो क्या कविता ..? तुम्हारा बाप भी क्या था ..? मेरे खून पसीने की कमाई पर .. उसने ये सब खड़ा किया ! मुझे फांसा था और .. तुम्हारे साथ चपेक दिया था ! तुम हो .. भी .. क्या ..
“समुद्र में और झील में कितना फर्क है, चन्दन ..?” पारुल ने चुप्पी तोड़ी थी. उसने विस्तीर्ण दृष्टी से चन्दन को देखा था.
“जितना कि .. तुम में .. और तुम्हारी परछाई में !” चन्दन बोस ने भी हंस कर उत्तर दिया था. वह तुरंत लौटा था – कविता को मझधार में छोड़ कर अब पारुल के पास आ गया था. पारुल के गाल लाल-लाल अंगारों से दहक उठे थे !
वह अब आश्वस्त थी. प्रशंशा करता चन्दन बोस अब उसे अपनी मूर्त हुई आकांक्षा जैसा लगा था. उसे लगा था कि अब वह झील नहीं – एक महासागर थी जहाँ उसका अमर प्रेमी चन्दन बोस उसके इन्तजार में डेरा डाले न जाने कब से रहता आ रहा था. आज वो मिले थे .. दोनों का आज और अब परिचय हुआ था .. और आज .. माने के अब वह दोनों ..
“ये सोना झील ..?” अबकी बार चन्दन बोस ने प्रश्न किया था.
“महारानी सोना के नाम पर बनी है .. और महाराजा त्रिभुवन ने ..”
“प्रेमी रहे होंगे, दोनों ..?”
“हाँ ….! उनके प्रेम-प्रीत के किस्से आज भी लोक गीतों में गाये जाते हैं ! पारुल ने चन्दन बोंस को देखा था .. महसूस था .. “कहते हैं .. महारानी सोना का .. सौन्दर्य ..”
“बेजोड़ ही होगा .. तुम्हारी तरह …!!” चन्दन बोस ने पारुल की प्रशंशा करने में चूक न की थी.
“बम्बई में तो समुद्र है ..?” पारुल ने यूँ ही पुछ लिया था. वह बम्बई के बारे में कुछ जान लेना चाहती थी.
“हाँ हाँ! है, समुद्र !” चन्दन ने पारुल को छुआ था. “देखोगी तो दंग रह जाओगी !” उसने पारुल को न्योता जैसा दिया था. “मै चाहता हूँ .. पारुल कि हम लोग .. वहीँ समुद्र के किनारे बस जाएँ ..!” चन्दन बोस ने आज अपनी चिर इच्छित मांग सामने रख दी थी. एक बच्चे की तरह आज वह चाँद पाने के लिए मचल पड़ना चाहता था.
“क्यों ..?” पारुल ने सहज प्रश्न पूछा था.
“वहां का रोमांच ही अलग है, पारुल !” चन्दन बोस बताने लगा था. “एक विचित्र रोमांच मेरे मन में जाग उठता है .. उस हिलोरे लेते समुद्र को देख कर ! कैसा वैभव है .. कितनी जल राशि है .. और कितनी महान काया है समुद्र की ..” उसने मुड़कर पारुल को देखा था. “मुझे तो लगता है जैसे समुद्र मेरा परम मित्र है ! मुझे देखते ही भुजायें फैलाये मेरे स्वागत के लिए चला आता है ! मेरी खैरियत पूछता है और कहता है – यहाँ आकर रहो न, मित्र ! रोज रोज बातें करेंगे …! मै भी अकेला नहीं हूँ. मेरे पास अनमोल खजाने हैं ! मै तुम्हे अपने खजाने बांटूंगा… मै तुम्हें निहाल कर दूंगा और मालामाल कर दूंगा – तुम्हे ! एक बार तुम आन बसों मेरे तीरे .. फिर तो ..” चन्दन बोस ने मुड कर पारुल की चमचमाती आँखों को पढ़ा था. “अब तुम आ गई हो न ! तो मै तुम्हें लेकर .. उसके पास जाऊंगा .. और बताऊंगा कि – हम दोनों अब यहीं रहेंगे, दोस्त ..”
“सच ..?” पारुल ने पूछा था.
“सच .. पारुल ! सच में ही मै और तुम उस अपने दोस्त के पास ..”
“काम-कोटि कैसी लगती है, तुम्हे ..?” पारुल ने पासा पलटा था.
“नई नवेली .. एक दुल्हन जैसी !” चन्दन बोस ने पारुल को आगोश में समेटा था. “अबोध .. अजान .. और .. असहज ! काम-कोटि अपने प्रियतम को पुकारती लगती है – चुपके चुपके घूँघट को उठा कर देखती और उसे बुलाने के लिए इशारे करती .. काम कोटि अपने आप में उत्तम है .. बेजोड़ है …..!”
“आते रहिये न आप…., ओह सच, चन्दन ..” पारुल बहक गई थी.
“मेरी जान अभी छोड़ दीजिये ..!” चन्दन बे-तहाशा हंसा था. कितनी विमोहक हंसी थी उसकी.
“बम्बई आओ ….!” उसने फिर से संगठित होकर कहा था. “एक विस्तार मिलेगा तुम्हे, पारुल ! एक अलग ही संसार है वहां ! पूरा विश्व जैसे बम्बई शहर में आकर इकठ्ठा हो गया हो – ऐसा प्रतीत होता है !” चन्दन बोस ने ठहर कर कई पलों तक पारुल को परखा था. “और मै तुम्हारी मुलाकात .. उस समूचे विश्व से कराऊंगा .. जिसे मै भली भांति जनता हूँ, पारुल !” माथे पर चूमा था पारुल को चन्दन बोस ने.
“क्यों चाहते हैं आप .. ओह .. सच ..” पारुल हंसी थी. “भाई थोडा टाइम तो लगता ही है !” वह कह रही थी. “वैसे मुझे ‘चन्दन’ नाम बेहद पसंद है !”
“धन्यवाद…..! वैसे मै तो चाहूँगा कि तुम मुझे चन्दन न कह कर कुछ और ही कहो ! अपना नाम धर लो .. जैसे कि .. ‘चंदू’ ..”
“नहीं…..!! अच्छा नहीं है ! मै तो चन्दन ही कहूँगी ! और तुम ..?”
“मै भी पारुल ही कह कर बुलाऊंगा. मुझे भी यही नाम सूट करता है !”
“चलो – कुछ तो तय हुआ ही !” पारुल ने विहंस कर कहा था.
“हाँ ! तो मै अगली बात कह रहा था .. पारुल ! मै .. मै तनिक-सा स्वार्थी हो जाना चाहता हूँ, इस बार ! मै तुम्हारे साथ आ जाना चाहता हूँ- मनसा – वाचा – कर्मणा !” चन्दन बोस ने एक घोषणा जैसी की थी. “हम दो – अब एक होकर चलेंगे ! मेने सब सोच लिया है ..” चन्दन बोस ने ठहर कर पारुल की आँखों में झाँका था. “लेट्स .. लेट्स .. बिकम वन, पारुल !” इमानदार आग्रह था – चन्दन का.
“रोका किसने है ..?” पारुल ने विहंस कर पूछा था. वह समर्पित थी. उसने मन प्राण से स्वागत किया था इस निमंत्रण का.
“लव .. यू स्वीट……!” झुक आया था पारुल के ऊपर चन्दन. वह पारुल के भीतर प्रवेश पा गया था. “यू आर .. माय लाइफ .. माय वाइफ…..!!” जोर देकर बोला था चन्दन.
“सच्च ..?” कटीली मुस्कान के साथ प्रश्न किया था पारुल ने.
“सच्च……!!!” चन्दन ने स्वीकार कर लिया था, सब कुछ.
पूरे वायदे .. पूरे कायदे .. और कौल-करार – पल छिन में तय हो गये थे ….!
चन्दन बोस खुश खुश स्पेन चला गया था ……!!
क्रमशः
मेजर कृपाल वर्मा साहित्य