
मैं बिल्ली हूँ !
“मैं बिल्ली हूँ ! मैं चाहूँ तो आज दिल्ली को बया के घोंसले की तरह फाड़ कर फ़ेंक दूँ !!” वह रुकी थी. “और हाँ, अगर मैं न चाहूँ तो ….एक पत्ता तक न हिलने दूँ. विरोधियों की क्या मज़ाल जो …”
“वो कह रहे हैं …कि पिछले तीन सालों में उनहोंने …”
“ख़ाक किया है ….! ” उस ने हाथ फेंक कर कहा था. “देश टूटने के कगार पर खड़ा है …! देखते नहीं – चारों और होता नर-संहार …लुटती इज्जतें …होते काण्ड …और भूखा मरता मज़दूर ….आत्महत्या करता किसान …! रोज़गार को तो …हिरन चर गए !! खाली हाथ …कब तक खड़ताल बजाएंगे …?” वह कहती ही जा रही थी.
जमा भीड़ प्रसन्न थी. सब के चहरे चमक रहे थे. सब स्वस्थ और सानंद थे. सब ने टिका कर कमा लिया था. सब के पास अपार संपत्ति थी …धन था …और विदेश तक में उन की पहुँच थी ! उन सब को पता था कि …अगले चुनावों तक के लिए उन के पास मसाला था. अब तो तोड़-फोड़ ही करनी थी …करानी थी ….और जनता को इतना तक बहकाना था …कि वो विरोधियों की जान को आ जाए !
“हाँ, भोंपू …?” उस ने प्रश्न पूछा था. “कैसा प्रचार-प्रसार चल रहा है …?”
“मौसी …ओह, नो ..! सॉरी , मैम ! ‘माँ ‘ कहा है , हमने …!! पूरे भारत की ‘माँ ‘ …बता कर आप का रुतबा बढ़ा दिया है …! अब कोई ‘मौसी ‘ नहीं कहेगा …सब ‘माँ ‘ कह कर बुलाएंगे ….!!” भोंपू ने जब बताया था …तो एक बारगी जमा भीड़ उछल पड़ी थी. ‘मौसी …माँ …की जय ..!!’ नारे गूंजे थे. ‘नहीं, रे ! पागलो …’भारत माता की जय ‘ …” किसी ने टोका था. ‘नहीं,नहीं , यार ! ‘माँ ‘ की जय बोलो …! हमारी ‘माँ ‘ की जय …!! बात नहीं बनती, भाई ! नारा हर बार अधूरा रह जाता है ! रह जाए। काम तो बनता है …! हमें तो काम चाहिए …दाम चाहिए …नाम चाहिए …! बाकी सब विरोधियों का …ले जाएं ‘हिन्दू राष्ट्र ‘ को घर …!! ”
“तुमने कुछ किया, पिल्लै …?” माँ-मौसी का प्रश्न आया था.
पिल्लै से सम्बोधित हुआ चूहा चौंका था. पहले तनिक सिकुड़ा था …फिर कुछ फैल-फूट कर बोला था, ‘किया क्यों नहीं है …, माँ …न न ..मौसी ..न माँ ! किया है ! विरोधियों पर खूब भोंका हूँ ! गालियां तक दी हैं ….”
“पर तुम तो बोलते तक नहीं थे ….?”
“अब तो खूब-खूब भोंकने लगा हूँ, मैडम। ..! अब डर काहे का …सैंया भए कोतबाल ….”
हंसी -मज़ाक का दौर शुरू हुआ था। मीटिंग थी भी – खुशियां मनाने की। हार को जीत का जामा पहना कर सभी चूहे प्रसन्न थे. उन्हें बताया गया था …कि अगले चुनावों तक सब ठीक हो जाएगा ! उन सब को फिर से कमाने-खाने का मौका मिलेगा ….और विरोधी फिर से भूखे मरते नज़र आएँगे !
“ये लोग –जो सब आए थे …, कहाँ गए …?” मैडम ने आँखें नचा कर प्रश्न पूछा था. “कहाँ गए , बिल्लू, …टिल्लू , …लालू और कालू …? कुल …तीन हो , तुम …? क्यों …? पूरा ग्राउंड भरना था …? भीड़ में दिल्ली को खो जाना था …! और ….यहाँ …कुल तीन ….?”
सन्नाटा छा गया था। कोई भी बोल नहीं पा रहा था। किस की मौत आई थी जो …बोलता …? आए तो सब थे …! सब के सब दिल्ली में ही मौजूद थे …सब के सब थे ..पर कहाँ थे …? अब ये कौन बताए …? वैसे पता तो सब को ही था …!! भोंपू क्या नहीं जानता था ..? पिल्लै को क्या पता नहीं था …? और ये …
विरोधियों के साथ लंच खाते – बिल्लू ने बताया है …कि उस ने पार्टी नहीं छोड़ी है ….कल्लू का कहना है कि ….वो उन की मौसी नहीं …’माँ ‘ उन की है ! लल्लू ने बयान दिया है कि वो …पार्टी कभी नहीं छोड़ेगा – विपक्ष के साथ गुलछर्रे उड़ाना एक अलग महत्व की बात है !!
“मैं भी विरोधियों के साथ लंच लूंगी , बता दो भोंपू ……कि ….”
और बिल्ली दरबार विसर्जित हो गया था …!!
बुरा न माने मेरी तो समझ में कुछ आता-जाता नहीं है ! सैनिक और राजनीति में चूहे-बिल्ली जैसा ही कुछ है !!
श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!