“आपके जमाने में तो कहॉं होता होगा ऐसा? लोड़ी है! आग जल रही है! गप-शप चल रही है और ..”

“नहीं भाई नहीं! आग का और आदमी का रिश्ता बहुत पुराना है! हमारे जमाने में तो अलाव लगा करते थे ..”

“अलाव ..?”

“हॉं-हॉं, अलाव! कंडे लकड़ी जला कर आग के आस-पास बैठ कर लोग सन नुकाते थे। देर रात तक चलता था अलाव और सर्दियों के मौसम में खूब गप-शप होती थी। बड़ी प्रेम-प्रीत थी लोगों में! मनोरंजन के साधन आज जैसे नहीं थे न! कहानी किस्से चलते थे। किस्सागो होते थे जो राजा वीर विक्रमादित्य या राजा भोज की कहानियां कहते थे। इसके अलावा भूत-प्रेत की कथाएं खूब चाव से कही सुनी जाती थीं।”

“होते हैं क्या भूत-प्रेत?”

“ये तो पता नहीं पर हर कोई अपना-अपना सुझाव बताता था भूत-प्रेतों के बारे में। कहा जाता था कि भूतों के पैर उलटे लगे होते हैं, सर चपटा होता है और ऑंखें ..”

“देखा है आपने भूत?”

“नहीं! पर दादी बताती थीं कि एक बार जब वो तारीख भुगत कर मथुरा से आ रही थीं और रास्ते में रात हो गई थी तो भूत ने उनका पीछा किया था!”

“क्यों?”

“उनके पास पेड़े जो थे। मथुरा से खरीदकर लाई थीं। अब भूत को आ गई पेड़ों की खुशबु! लगा पीछा करने। दादी बताती रही थीं कि कभी वो घोड़ा बन जाता था तो कभी गाय! कभी सूअर तो कभी शेर! दादी कहतीं के – मुझे उसने ये डराने का ढोंग रचा था। पर मैंने भी कहा – पेड़ा तो तुझे दूँगी नहीं, तू चाहे जॉन रूप धर ले! फिर मैंने लीक में चलना आरम्भ किया और घर पहुँच गई!”

“ये लीक क्या होती है?”

“बैल गाड़ियां चलती थीं उन दिनों। उस रास्ते को गढ़लीक कहते थे। और कहते थे कि गढ़लीक में चलने पर भूत हमला नहीं करता! इसके अलावा हनुमान चालीसा का पाठ भी लोग भूत से भिड़ंत होने पर करते थे। मात्र हनुमान जी का नाम लेने से ही भूत भाग खड़ा होता है!”

“मतलब कि भूत हमला करते हैं?”

“कहते थे कि ओमी गडरिए को भूत ने जमीन में ओंधा गाढ़ दिया था क्योंकि वो उसके थान पर पेशाब कर बैठा था, गलती से। पीपल के पेड़ के नीचे बना था – थान! उसे पता नहीं था। बस मारा गया बेचारा!”

“डराने वाली बातें हैं सब!”

“डर तो लगता था भाई! अंधेरा होते ही भूतों का डर सताने लगता था। उन दिनों बिजली-सिजली तो थी नहीं! चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा होता था। फिर तो तनिक सा पीपल का पेड़ हिलने लगता तो भूत दिखाई देने लगता था। घर में – अंधेरे में घुसने में भूत और गली कूचे में जाओ तो भूत! भूत का डर बाप रे बाप! रोंगटे खड़े हो जाते थे। कहीं शोर-शराबा होता था और कभी जब जंगल में अकेला जाना पड़ जाता था फिर तो जान लो कि आदमी अधमरा तो जाने से पहले ही हो लेता था! भूतों का खूब दबदबा था .. डर था .. किस्से कहानी थे .. और उनके ठौर-ठिकाने भी थे!”

“आप ने देखा कभी भूत?”

“हॉं! एक बार हो गई थी भिड़ंत!”

“कहॉं ..? कैसे ..? बताओ न ..! इंटरेस्टिंग ..”

“मेरी पहली पोस्टिंग धारचूल में हुई थी।”

“ये कहॉं रहा ..?”

“ये पड़ता है – यू पी नेपाल के बॉडर पर! महाकाली नदी दोनों देशों के बीच की विभाजन रेखा है। और धारचूल महाकाली के तट पर बसा एक छोटा सा कस्बा है। तब तो यू पी में पड़ता था। पिथौरागढ से आगे है। एकदम चीन के सामने जाकर रुकते हैं!”

“चीन के सामने क्यों?”

“ये किया-दिया सब चीन का ही तो है! 62 की लड़ाई तो सभी को याद है! कितनी बुरी हार हुई थी भारत की? बेचारे सैनिकों का तो शर्म से सर ही झुक गया था!”

“पर ये हुआ कैसे?”

“कोई तैयारी ही नहीं थी! आजादी के बाद हमने सोचा था कि हम तो अहिंसा का परचम फहराएंगे! सब से दोस्ती और भाईचारा बनाएंगे! लड़ने की तो बात ही नहीं करेंगे! और इसी मंसूबे को लेकर हम चीन के दोस्त बन गए थे। उसे हमने सिक्योरिटी काऊंसिल की सीट भी दान दे दी थी और तिब्बत भी पकड़ा दिया था। हमें उम्मीद थी कि चीन अब हमें चैन से वंशी बजाने देगा! लेकिन चीन ने ऐसा रौंदा हमारी सेना को कि भारत की खूब जगत हँसाई हुई थी! अब आकर देश की ऑंखें खुली थीं तो देश में चारों ओर चौड़ा हुआ पाया था! इतने लम्बे चौड़े – 3500 किलो मीटर के बॉडर पर कोई तैयारी ही नहीं थी! सब खाली पड़ा था!”

“फिर .., फिर तो ..”

“अब आ कर तैयारियां शुरु हुईं थीं। सड़क बनाना और सुरक्षा चौकी तैयार करना सब से बड़ा काम था। बड़ा ही जानलेवा पहाड़ी इलाका है ये और मौसम की मार से तो पैर उखड़ जाते हैं! लेकिन देश की सुरक्षा का सवाल था और चीन से डर था कि वो कभी भी कुछ भी कर सकता था।”

“लोग तो कहते हैं – वहॉं तो घास का तिनका तक नहीं उगता! फिर उसके लिए जान देना कौन सी बुद्धिमानी है?”

“इसी मुगालते में तो मारा गया भारत! हिमालय दुनिया का सबसे ज्यादा वैभवशाली प्रदेश है! मैंने तो जब जाकर देखा था तो मैं दंग रह गया था! क्या नदी, क्या पहाड़, जंगल और जानवर ..? क्या है – जो हिमालय हमें नहीं देता? और उसी हिमालय को हमने असुरक्षित छोड़कर घर की राह गही! अपराध नहीं तो और क्या है ये?”

“पहले हमारे लोग तो हिमालय को अपना प्रहारी मानते थे? और ये भी मानते थे कि ..”

“हमारा स्वर्ग कैलाश मानसरोवर हमें वहां जाकर मिलता था? हा-हा-हा-हा और वो सब बातें भुलाकर हम घर आ बैठे थे!”

“कैलाश-मानसरोवर ..?”

“यही रास्ता तो था – आम यात्रियों के लिए कैलाश-मानसरोवर जाने का। महा काली नदी के साथ-साथ रास्ता चलता था और आज जो खबरों में है – लिपुलेख, काला पानी, ढोकलाम और फिर माना-मलारी ग्लेशियर – तक लोग यात्राओं पर निकलते थे। यात्रा पर निकलने से पहले अपनी सारी जमीन-जायदाद अपने वारिसों के नाम लिख कर जाते थे!”

“क्यों?”

“अरे भाई ये कोई दा-चार दिन या एक दो माह की यात्रा नहीं होती थी! ये तो सालों का प्रोग्राम होता था। लोग मानकर चलते थे कि वो लौटेंगे नहीं। वही उसी स्वर्ग में समा जाएंगे!”

“लेकिन ..?”

“लेकिन क्यों? पांडव भी तो गलने गये थे ग्लेशियर में? हमारा मोक्ष तो था ही हिमालय! तपस्वियों के लिए भी तो हिमालय ही एक मात्र स्थान था!”

“हॉं था तो! पर फिर हमने ..?”

“लड़ना नहीं चाहते थे हम चीन से! हा-हा-हा-हा! सोच बैठे थे कि सब दोस्ती में चल जाएगा! लेकिन जब मार पड़ी तो भागे! मानेंगे नहीं – रात दिन तैयारियां चलती थीं। काम बहुत कठिन था। सड़क बहुत खराब थीं। ऊपर पहाड़ों पर खच्चर सामान ढोकर पहुँचाती थीं। हम लोग भी बंकर बनाने के लिए साज सामान ऊपर चढ़ाते थे। ऊपर से चीनियों के हमले का डर भी बना रहता था!”

“क्यों?”

“इसलिए कि ये धारचूल वाला रास्ता उनके लिए भारत में घुसने का सबसे आसान रास्ता है! तभी तो आज भी ढोकलाम में चीन बेस तैयार कर रहा है। उसे लगता है कि वह इस आसान रास्ते से सीधा भारत में प्रवेश पा जाएगा!”

“तो क्या चीन ..?”

“अब कहॉं ..? हा-हा-हा-हा! उड़ गया वो वक्त तो! अब तो हमारी पूरी और मुकम्मल तैयारियां हैं! मुझे याद है कि सेसेना पर हमने किस तरह बंकर तैयार किये थे और अब तो चीन हमारा बाल भी बांका नहीं कर सकता!”

“सेसेना कहां पर है?”

“ये कैलाश-मानसरोवर के रास्ते पर ही पड़ता है! धारचूल से 13 किलो मीटर तक छोटी गाड़ी चलती थी। उसके बाद ऊपर के लिए पैदल का रास्ता था और उसी पर खच्चर भी जाती थीं। सेसेना की ऊंचाई 9 हजार फीट है। हमने यहां तोपखाने को लगाया था। यह सबसे बड़ा काम था – कारण, चीनी चाहे जिस ओर से आते मार खाते! सेसेना को फतह करना उनके लिए असंभव ही था!”

“क्यों?”

“इसलिए कि हमने सेसेना पर एक प्रकार से पूरी व्यूह रचना रची थी। तोपों के लिए मोर्चे और बंकर इस तरह तैयार किये थे कि किसी भी प्रकार का हवाई हमला तोपों का कुछ नहीं बिगाड़ सकता था। तोपों के गोलों को सहेजने के लिए बंकर बनाए थे। सैनिकों के रहने के लिए बंकर थे। आगे की चौकियों पर पिल बॉक्स तैयार किये थे जो हर हथियार के लिए अभेद्य थे! हमने हर मोर्चे, बंकर, तोप के मोर्चे और आगे की चौकियों को ट्रेंच खोदकर जोड़ा हुआ था ताकि चीनियों का फायर आने पर भी हम मेल-मिलाप कायम रख सकें! हमारे पास खाना, दाना ओर गोला-बारूद सब प्रचुर मात्रा में थे! हम हर तरह से संगठित और सावधान थे!”

“तो क्या आपकी भिड़ंत यहीं – सेसेना में हुई थी भूत के साथ?”

“हा-हा-हा! हॉं भाई! यहीं भिड़े थे हम भूत से ..!”

“कैसे?”

“ये कमीशन मिलने के बाद मेरी पहली ही पोस्टिंग थी। मैं नया-नया था और मुझे सेसेना जाने के आदेश मिले थे। सैनिकों के साथ मुझे वहां एक माह तक रहने को कहा गया था। मैं अकेला ही ऑफिसर था बाकी सब धारचूल में थे। दो खच्चरों पर अपना सामान लादे मैं और मेरा सहायक सेसेना पहुँचे थे तो शाम होने वाली थी!”

“सेसेना पीर पर मत्था टेकना है, साहब!” मुझसे सुबेदार महाबीर ने आग्रह किया था।

“ये कौन सा पीर है, साहब?” मैंने यूँ ही प्रश्न पूछ लिया था।

“कहते हैं – कोई कैलाश-मानसरोवर जाता यात्री यहॉं मर गया था और यहीं पर उसकी समाधि बनाई गई है! वह सेसेना का पीर है। यहॉं सब उसका चलता है .. उसकी रजा से चलता है!”

“मैं चुप था। मैं अनुमान लगा रहा था – सेसेना पीर के बारे में। मैं अब इस तरह की धारणाओं में विश्वास नहीं करता था। मैं सोचता ही रहा था तो सुबेदार महाबीर बोले थे – जो भी पहली बार सेसेना आता है – पीर पर प्रसाद चढ़ाता है। जवान लोग छुट्टी काटकर आते हैं तो अवश्य ही पीर के लिए कुछ चढ़ावा लाते हैं! बड़ी मान्यता है इस पीर की, साहब!”

“इन अंधविश्वासों के लिए मेरे दिमाग में जगह नहीं है, साहब!” मैं कह देना तो चाहता था लेकिन फिर चुप-चाप तनिक मुस्कराकर मैं अपने बंकर में चला आया था।

मेरा बंकर अलग ऊपर पहाड़ी पर था!

पहाड़ की काया में खोदकर तैयार किया छोटा सा ये बंकर – मेरी दुनिया थी! टीन कर शीट से चारपाई का निर्माण हुआ था तो छत पर बल्लियां लगा कर मिट्टी डाली हुई थी और दरवाजे पर टाट का पर्दा टंगा था। लालटेन थी जो छत से लटकी झूल रही थी। यही मेरा स्वर्ग था।

अंधेरा घिर आया था। रात का मिजाज बिगड़ने लगा था। पहाड़ों का मौसम अजब-गजब होता है। पल में तोला तो पल में माशा! लेकिन मैंने सोने की तैयारियां की थीं। जूतों को तनिक ढीला किया था। बेल्ट को आगे से खोल दिया था और फिर अपनी स्टेन गन पर मैग्जीन चढा कर सेफ्टी कैच लगा दिया था। मतलब ये कि खतरा आने पर और ऑंख से नींद जाने पर सीधी गोली दागने की तैयारी! कारण – वही हमारा दुश्मन – चीन और कोई नहीं!”

“नींद आ जाती है ..?”

“स्लीपिंग बैग में घुस कर गहरी नींद आती है! सैनिक का डर दरवाजे पर खड़ा होकर पहरा देता है!”

“फिर तो भूत नहीं आया होगा?”

“नहीं! आया था। मुझे लगा था – किसी ने मुझे हिलाया है। मैंने ऑंखें खाली थीं तो लालटेन हिल-डुल रही थी। नीम अंधेरा था। सब शांत था। मैंने फिर से ऑंखें बंद की थीं। लेकिन कुछ लमहे ही गये होंगे कि मैं जमीन पर उलटा आ गिरा था। मेरी टीन की बनी चारपाई उलट गई थी। मैंने फुर्ती से स्टेन गन संभाली थी और सेफ्टी कैच को खोल दिया था। अब मेरी ऑंखें दरवाजे पर टिकी लक्ष्य खोज रही थीं। मैं समझ गया था कि सेसेना पीर ने मुझ पर हमला कर दिया था। लेकिन वह सामने क्यों नहीं आ रहा था और ट्रिगर पर धरी अपनी उंगली को संभाल रहा था ताकि फायर करने में चूक न हो जाए! मुकाबला – सेसेना पीर से था .. मुकाबला भूत से था, मुकाबला हवा से था! चूंकि मैंने पीर को मत्था नहीं टेका था, प्रसाद नहीं चढ़ाय था अतः उसका हमला स्वाभाविक था! मुझे बताया गया था कि वह कई सैनिकों की जान पहले भी ले चुका था! और आज मेरी बारी थी!

लेकिन मेरे सामने कुछ था ही नहीं! मैं भी गोली किस पर दागता?

“वर्मा साहब!” एक धारदार आवाज मैंने सुनी थी। मैंने पहचान लिया था कि आवाज सुबेदार महाबीर की ही थी। अचानक दिमाग में आया था कि सेसेना पीर यहॉं से डर कर भागा है और वहॉं सुबेदार साहब को पकड़ लिया है! और अब वह मुझे मदद के लिए पुकार रहे हैं!

“क्या हुआ साहब ..?” मैंने पलट कर आवाज दी थी। “भूत .. सेसेना भूत आया है क्या?” मैंने जोरदार आवाज में पूछा था।

“भूत नहीं – भूचाल आया है साहब!” सुबेदार महाबीर ने उत्तर दिया था। “दो अम्यूनीशन बंकर ढह गये हैं!” उसने सूचना दी थी। “आप तो कुशल हैं?” वह पूछ रहा था।

“और .. भूत ..?”

“भूत होता कहॉं है ..?”

मेजर कृपाल वर्मा 1

मेजर कृपाल वर्मा

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