गतांक से आगे :-

भाग -५५

काम-कोटि जैसे कोई तीर्थ था …!!

आगंतुकों के टोल-के-टोल चले आ रहे थे ! आज का आयोजन सर्वथा नया था ! लोग उत्सुक थे – देखने के लिए …..खेलने के लिए …और दर्शन -मेला के लिए ! हवा मैं अजब-सा कोलाहल था …जिज्ञासा थी …और था एक नया आदर ! शदियों के बाद …आज कुछ नया-सा हो रहा था ! वरना तो ….वही ..दशहरा ….और वही …..जंग ….? कितनी विरसता आ गई थी – जीवन मैं ….?

कामरूप भी अपनी काया खोल आज सम्पूर्ण रूप से अपनी भव्य छठा बिखेर लोगों के स्वागत में आ खड़ा हुआ था.

भीड़ देसी थी .. भीड़ विदेशी थी .. भीड़ व्यापारियों की थी .. भीड़ जुआरिओं की थी और भीड़ में शिकारी तक आ छुपे थे ! एक नए युग का आरम्भ जो होना था !!

राजन आज सातवें आसमान पर आ खड़ा हुआ था.

यह उसकी अपनी पहली उपलब्धि थी. उसने अपने चहेते खेल को ही चुना था. उसने चाहा था कि अब वो विचित्र लोक को एक विचित्र नगर ही बना देगा – ठीक लास वेगस की तरह – जहाँ देश विदेश आ जुड़ेगा और मन भर कर खायेगा .. उडाएगा .. खेलेगा….. नाचेगा और गायेगा ! इस तरह की रौनक में राजन का मन रमता था. उसे आनंद आता था जब कोई जी भर कर खाता था .. पीता था .. हँसता था और रोता था ! वह हमेशा उत्कर्ष को ही जीना चाहता था !

राजन को आश्चर्य हो रहा था कि इतने आगंतुक आये थे कि काम-कोटी में पैर रखने तक के लिए एक इंच जमीं न बची थी. बेजोड़ सफलता थी – राजन की !

“सावित्री नहीं आई ?” राजन के सामने खड़ा कैरी पूछ रहा था. “कर्नल जेम्स भी नहीं दिखे ?” उसका प्रश्न था. “फिर तो मै भी बेकार ही आया !” उसने उदास होकर राजन की आँखों में घूरा था.

“लेकिन .. वो साला चन्दन बोंस ठीक टाइम से पहुँच गया है !” राजन कुढ़ कर कहना चाहता था. उसे ये सामने खड़ा कैरी भी आज बहुत बुरा लग रहा था. “चाहो तो .. मिल लो उससे..?” राजन का मन हुआ था कि कैरी को खूब खूब अपमानित करे.

“चलता हूँ !” कैरी ने कहा था और वो चला गया था.

न जाने क्यों राजन का चेहरा लटक सा गया था. बुझे पड़े सदियों पुराने अरमान उसे याद आ गए थे. लेकिन ये शाम दूधिया चांदनी में नहा कर आई थी. यह शाम – राजन के लिए एक महत्वपूर्ण पैगाम लाई थी. यह शाम – पारुल के लिए जहाँ एक नए जीवन की शुरुवात थी .. वहीँ चन्दन बोस के लिए एक खोज थी .. जिसे पाकर वह आत्मविभोर हो उठा था !

मानस के पेट से उभरा काम-कोटी का दृश्य बेहद मोहक और लुभावना था ! विचित्र-लोक न जाने कैसे अपने नाम से भी आगे जा पहुंचा था. दर्शक भावुक थे. तालियाँ लगातार ही बज रहीं थी.

“मै .. राजमाता .. महारानी ऑफ़ काम-कोटि .. आप सभी सज्जनों, मित्रों और आगंतुकों का अभिवादन करती हूँ !” पारुल की मन्त्रपूत वाणी गूंजी थी. उसने उडती निगाहों से चन्दन बोस को देखा था .. परखा था और पुकारा था. “एक नया आरम्भ है आज का उत्सव ! भारत के लिए, ‘भाग्य विधाता’ जैसा हमारा ये प्रयास आपकी इस प्रसन्नता का प्रतीक है – हम जानते हैं !” पारुल ने दृष्टि घुमाई थी. “देश विदेश से आये हमारे सभी मेहमान हमे अति प्रिय हैं ! हम आपको निराश नहीं करेंगे .. आशाओं से भी आगे के ऐसे आयाम बाँटेंगे आपको कि आप कृतार्थ हो कर लौटेंगे – और पुनः भी पधारेंगे .. काम-कोटी में ..!”

तालियाँ बजती रही थी. राजन स्टेज पर आ गया था. पारुल का जादू लोगों के सर चढ़ कर बोल रहा था.

“अब श्री चन्दन बोंस हमारे प्रयास पर एक नजर डालेंगे !” राजन का स्वर संयत था. उस का मन तो था कि चन्दन बोस को जूतों से मारे और उसका खून पी ले ! पर वक्त उसे मजबूर किये था.

“मित्रों!” चन्दन बोस की धारदार आवाज गूंजी थी. “सच-सच कहता हूँ .. अपने ईमान धर्म पर हाथ रखकर बोलता हूँ .. कि .. कि ….” रुका था चन्दन बोस. उसने निगाहें भर कर फिर एक बार पारुल को देखा था. “दुनिया जहाँ की ख़ाक छान मारी मेने .. पर .. पर .. इतनी सुन्दर महारानी .. काम-कोटी की राजमाता .. और प्रजा पलक .. प्रशाशक .. मेने कही नहीं देखी !” वह हंस रहा था. पारुल लाज के दरिये में डूबी थी. पब्लिक तालियाँ बजा रही थी और राजन विवश खड़ा खड़ा चन्दन बोस को मारक निगाहों से घूरे जा रहा था. “और न ही मेने कहीं और इतना भव्य विचित्र लोक देखा है जिसे हमारे श्रेष्ट विश्वकर्मा .. श्री राजन ने तैयार कराया है !” चन्दन बोस ने राजन को प्रसन्न करना चाह था. वह गंभीर खड़े राजन के मनोभाव ताड़ गया था. पारुल पर टिकी उसकी निगाहों का विरोध करता राजन – उसका मित्र नहीं शत्रु था !

तालियों और उठे शोरगुल में चन्दन बोस की आवाज डूबने लगी थी.

“लाक्षागृह नहीं है, ये ..!” चन्दन बोस की आवाज ने लोगों को जैसे फिर सचेत किया था. “पांडवों को जला कर मार डालने का उपक्रम .. ये नहीं है !” उसने समझाया था. “ये तो मित्रो द्यूत क्रीडा के लिए रचा .. विचित्र लोक है .. जहाँ युधिष्टिर अपनी प्राणों से भी प्यारी द्रौपदी को दाव पर लगाता है.” चन्दन बोस ने लोगों को निहारा था.

राजन खबरदार हुआ लगा था. अचानक ही उसे सावित्री का चेहरा नजर आया था. फिर पारुल का हुस्न उजागर हुआ था. लेकिन उसकी आँखों की रौशनी इन उजालों का मुकाबला न कर पाई थी. लगा था – वह तो दाव पहले ही हार चुका था – अब तो वह नंगा था .. और कपडे उतार कर जुआ खेल रहा था. उस से किसी ने क्या लेलेना था ..?

“परिणाम ..?” चेतावनी के तौर पर ही चन्दन बोस ने पूछा था. “परिणाम पांडवों को भी भोगना पड़ा था !” वह बता रहा था. “राज-पाट गँवा कर ..” चन्दन बोस की आवाज गंभीर थी.

लगा था – चन्दन बोस जुए की जड़ों को उखाड़कर आज ही सूरज को दिखा देगा !

“लेकिन .. वास्तव में ही ये लोक विचित्र है, मित्रो !” वह लौटा था. “यहाँ .. इस विचित्र लोक में बैठ कर जुए का लुत्फ़ लेना .. जुआ खेलना .. हारना .. जीतना .. और पीना-पिलाना एक अलग ही दुनिया है ! लोग इसे व्यसन कहते हैं ! कहते रहें !! खेलने वाले .. कहाँ किसी की परवाह करते हैं ? पत्ते पुकारते हैं तो जुआरी शलभ की तरह दीपक की लौ को देख दौड़ा चला जाता है ! कौन परवाह करता है – राज-पाट की ? किसे याद रहता है… कि वो .. वो …” चन्दन बोस ने लोगों को परखा था. सब ध्यान मग्न थे. भले बुरे की परिभाषा में उलझे थे.

“मित्रों !” चन्दन बोस की आवाज फिर चटकी थी. “मै .. माने कि मै चन्दन बोस न जाने क्यों इस जुए के खेल से कतराता हूँ .. बहुत डरता हूँ ! मात्र दाव लगाने के प्रश्न पर मेरी तो पिंडलियाँ कांपने लगती हैं ! मै नर्वस हो जाता हूँ.” वह डरा था. लोग मुस्कुराए थे. उन्हें हारता .. भागता .. चन्दन बोस अच्छा लगा था. “मौका पड़ते ही मै भाग लेता हूँ .. गिरता पड़ता भागता ही जाता हूँ .. मुड़ता भी नहीं .. देखता तक नहीं कि मै ..” हंस रहे थे लोग .. जोर जोर से हंस रहे थे.

राजन को चन्दन बोस झूंठ बोलता लगा था. लगा था – वह पारुल को प्रसन्न करने के लिए नाटक कर रहा था. था तो एक नम्बर का ४२० पर अपने आप को साहूकार सिद्ध करने में लगा था.

“आप लोग बहुत बहादुर हैं !” चन्दन बोस की आवाज खनकी थी. “जीवट वाले लोग हैं, आप !” वह कहने लगा था. “हार जीत के आगे आप नहीं झुकते ! शूरमाओं की तरह आप तो लगातार एक के बाद दूसरा दाव गोली की तरह दागते हैं ! चुटकियों में जीवन जीत लेते हैं .. हार जाते हैं .. और ..”

एक चुप्पी छाने लगी थी. चन्दन बोस ने जैसे सारे जुआरिओं को निरुत्साहित कर दिया था. राजन को रोष आने लगा था. लेकिन पारुल प्रसन्न थी – चन्दन बोस झुंट न बोल रहा था – सब सच-सच बता रहा था !

जुआ कोई अच्छा खेल न था .. कोरा व्यसन ही तो था …..!!

“मै कायर हूँ मित्रों !” चन्दन बोस जैसे हिम्मत कर फिर से बोला था. “मै भागूँगा .. मै यहाँ से भागूँगा ..!” वह अपने इरादे व्यक्त कर रहा था. “जब तक मै इस जुए की मार से बाहर न निकल जाऊं तब तक भागता ही रहूँगा, मित्रो !!” उसने राजन को कई पलों तक देखा था. “अब आप अपना खेल आरम्भ करें ..!!” उसने जैसे अनुमति दी थी. तालियाँ बजी थी कि चन्दन बोस ने लोगों की जान छोड़ दी थी ..

विचित्र लोक में एक विशेष प्रकार की गहमागहमी लौटी थी. पत्तों की पुकार सुनकर हर कोई बावला हो गया था ! राजन ने आकर्षक ईनाम रक्खे थे. और शर्तें बे-मामूल थीं. वह आज चाहता था कि लोग आज जी भर कर खेलें और खूब कमायें !

पारुल और चन्दन बोस अलग अलग दरवाजों से बहार आये थे और आकाश के नीचे खेलती चांदनी के पार दोनो आ मिले थे ! दोनो ने बाहें पसार कर एक दुसरे का स्वागत किया था. दोनो ने ही एक दुसरे का स्पर्श कर अपना अपना आभिजात्य बताया था ! दोनो ही एक मन .. एक प्राण और एक जान होकर मिले थे .. और आलिंगन बद्ध .. न जाने कब तक खड़े ही रहे थे !

वक्त अपना नाम भूल गया था. हवा को अपना काम याद न रहा था. और चाँद भी अपनी चांदनी को भूल उनके ही पास आ खड़ा हुआ था ……!!

बेखबर खड़े थे .. वो, प्रेमी द्वय !!

क्रमशः

मेजर कृपाल वर्मा साहित्य

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