“क्या करोगे सिविल में जाकर?” कर्नल रनबीर सिंह प्रश्न पूछ रहे थे।

पूरे डिवीजन को पता चल गया था कि मैं पेपर पुट अप कर रहा था और नौकरी छोड़ कर जा रहा था। बहुत सारे प्रश्न थे जिनके उत्तर दे देकर मैं थक गया था लेकिन फिर भी कर्नल रनबीर सिंह मुझे बताते ही रहे थे ..

“लेट मी टेल यू वर्मा यहां से गये लोगों को मैंने भूखे मरते देखा है!” उन्होंने मुझे चेताया था। “यहां जैसी नौकरी तो ..” उन्होंने सीधा मेरी आंखों में देखा था।

“बट सर! वी हैव टू हेंग अप द बूट्स इदर टुडे और टुमॉरो!” मैंने उनके सामने सच रख दिया था। “इज देयर ऐनी सॉल्यूशन और सालवेशन, यू टेल मी ..”

कर्नल रनबीर चुप कर गये थे। शायद अब वो अपनी चिंता भी करने लगे थे!

मैंने और कुसुम ने अपने इस नौकरी छोड़कर सिविल में आने के प्रस्ताव को महीनों पीटा था। हमने खूब हिसाब लगा कर देखा था, परखा था कि हमारी तीन बच्चों की गृहस्ति आगे कैसे चलेगी! बड़े बेटे ने दसवीं कर ली थी और अब उसे कॉलेज़ में जाना था। हम यहां फील्ड एरिया में अटके थे, ओर अगर बेटा बोर्डिंग में जाता तो हमारे पास पैसे ही नहीं बचते थे कि हम ..

हम ने अभी तक न कोई घर बनाया था और न हमारे पास और कोई सोर्स ऑफ इनकम थी। कोई प्लॉट भी लेकर न डाला था हमने। हॉं एक लेखन था जिस में मैंने कुछ प्रगति कर ली थी। मेरी कहानियां धर्म युग में छपने लगीं थीं। दो एक उपन्यास भी छप गये थे। नाम था कि चल पड़ा था। हमें उम्मीद थी कि अगर हमने अपने इस हुनर को आगे चला लिया तो हम जीवन के भंवर को काट कर पार जाएंगे! कुसुम का बहुत मन था कि हम लिखें, खूब ही लिखें ओर सेना के बाद लेखन को ही अपना व्यवसाय बना लें!

“कैप्टन साहब!” बाल कवि बैरागी मुझसे बतिया रहे थे। पुस्तक विमोचन के समारोह में मैं ओर वो दोनों बुलाए मेहमानों में से थे। “आप की लेखनी कमाल की है!” उन्होंने मेरी प्रशंसा की थी। “भाई खूब लिखते हैं आप!” वो प्रसन्न थे। “लेकिन मैं आपको एक चेतावनी अवश्य दूंगा!” वो तनिक मुसकुराए थे। “कलम को कभी रोटी का जरिया मत बनाना! वरना तो आपकी प्रतिभा जाती रहेगी!”

“मैं आपकी बात का मान रखूंगा!” मैंने भी उनसे वायदा कर दिया था।

लेकिन अब हम दोनों उस वायदे के बर खिलाफ चल कर कलम को रोजी रोटी में बदल देना चाहते थे! कारण – हमारे पास और कोई सहारा नहीं बचा था!

विद ए हैवी हार्ट हमने त्याग पत्र दे दिया था एंड विद ए लाइट मूड़ एंड माइंड हम सिविल में चले आये थे!

हम दोनों बहुत खुश थे। जैसे हम किसी प्रतिबंधों के महासागर को पार कर किनारे आ लगे थे और अब तो मौज ही मौज थी! अब हम स्वतंत्र थे! जो चाहें सो लिखें और जहां चाहें वहां जाएं! अपनी नींद सोएं और अपनी नींद उठें! एक अलग ही संसार में चले आये थे हम और मान गये थे कि यहां का संसार तो अलग ही था।

मैंने जम कर लिखना आरम्भ कर दिया था। कहानियां छपने लगी थीं। कुछ लेख भी छपे थे। उपन्यासों की बात भी चल पड़ी थी। बच्चों का एडमीशन सेंट्रल स्कूल में हो गया था। घर किराए का था। लेकिन लेखन से जो आमदनी होने लगी थी वह तो ऊंट के मुंह में जीरा था। पेंशन भी मिलती थी लेकिन जब महीने का जमा जोड़ हमने लगाया था तो हैरान थे हम!

“नहीं बनेगा बानक!” मैंने कुसुम से कहा था। वह भी उदास थी!

भारती जी को जब पता चला था तो उन्होंने सारे मित्रों से मुझे काम देने को कहा था। लेकिन एक पत्र मुझे भी उन्होंने लिख दिया था।

“ये क्या कर डाला कृपाल! नौकरी छोड़ने से पहले पूछ तो लेते? फ्री लांस राइटरों का गुजारा चलता कहां है?” उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था।

और ये सच भी था। मैंने एड़ी चोटी तक का जोर लगा कर देख लिया था लेकिन ढाक के तीन पत्तों तक मैं भी गिन पाया था!

“अपना पब्लिकेशन खोल लेते हैं! हमारे पास अपना खूब है छापने के लिए! और कुछ बाहर से ..”

“नहीं पापा!” हमारा बेटा आशीष बोल पड़ा था। अब वह बड़ा हो गया था। “मुंशी प्रेम चंद भी कहां सफल हुए?” उसने साफ साफ कहा था।

और मैं भी समझ गया था कि छोटा मोटा पैसा तो डूब ही जाएगा और हम मझधार में होंगे! अत: हमने विचार बदल दिया था।

ये पहला मौका था जब मैं घबरा गया था। मुझे अचानक रास्ते के सारे रोड़े दिखाई दे गये थे और लगा था कि अब कर्नल रनबीर की कही कहानी घटेगी! लेकिन तभी मुझे पेड़ पर टंगा अपना गांडीव दिखाई दे गया था। मेरा मन मयूरा चहक उठा था। मैं भागा था और सेना के रीसेटलमेंट या री इंप्लॉयमेंट के ऑफिस में जा घुसा था।

मेरा स्वागत हुआ था और मुझे किताबों का एक बंडल मिल गया था। इन किताबों को पढ़ कर मैं अपना रास्ता खोज सकता था। मैंने नौकरी मांगी थी तो भी आश्वासन मिला था और मैंने अपना नाम लिखवा दिया था। कुछ राहत मिली थी। और जब मैंने अपनी ये विजय गाथा कुसुम को कह सुनाई थी तो वह भी महा प्रसन्न हो उठी थी। लगा था कि अब हमारे सब संकट जाते रहे थे।

बीच में जब मैं नौकरी मांगने गया था तो कैप्टन कपूर ने मेरी खूब खातिर की थी और राय दी थी कि नौकरी के बजाए मैं अपना ही कोई काम क्यों नहीं कर लेता? उसने कई सारे ऑफिसरों के बारे बताया था जो आज खूब खा कमा रहे थे .. और ..

“कोई भी ऐसा काम डाल दें सर जिसमें आपका रुझान हो!” कैप्टन कपूर की राय थी।

बात तो वहीं लौट आई थी। चूंकि मैं लेखक था और अपने लेखन में ही मैं स्थापित होना चाहता था अत: सोचा कि क्यों न एक प्रिंटिंग प्रेस खोला जाये! अपनी किताब कहानियां तो प्रिंट होती ही रहेंगी और बाहर का काम भी करते रहेंगे! फिर जब पैसे का सवाल सामने आया तो किताबों के सुझाए कई रास्ते सामने आये। किताबों में लिखा था कि एक्स सर्विस मैन को बैंक सस्ती ब्याज दरों पर पैसा उठा देते हैं!

जून का महीना था। दोपहरी तप रही थी। मेरे पसीने छूट रहे थे!

“क्या कोलेटरल दोगे मेजर साहब?” बैंक क्लर्क महादेव पूछ रहा था।

“कोलेटरल .. मतलब ..?” मैं चौंक पड़ा था।

“मतलब कि कोई घर, प्लॉट या कोई जमीन जांठा! कुछ तो दोगे कि नहीं?”

“मेरे पास तो कुछ नहीं है, यार!” मैं झुंझला गया था। जैसे मैं नंगा हो गया था उसके सामने – ऐसा लगा था मुझे। पूरी जिंदगी पापड़ बेलने के बाद मेरे पास कुछ भी तो नहीं था!

“फिर कैसे लोन मिलेगा?” वह मुसकुराया था। “आप आर्मी ऑफिसर हैं! मैं आप को अपने अनुभव से बता रहा हूँ कि व्यापार करना कोई मजाक नहीं है! जो दो चार लाख कमा लाए हो न ये भी गंवा बैठोगे! एक बार मूद टूट गई तो गई!” वह कह कर चुप हो गया था।

मैं भी चुपचाप उठा था और चला आया था!

लेकिन अब तक मेरे सिविल के यार दोस्तों को खबर लग चुकी थी कि मैं प्रिंटिंग प्रेस लगा रहा था। मेरे घर लोगों का आना जाना आरम्भ हो गया था। एक से बड़ा दूसरा एक्सपर्ट मुझसे मिल रहा था और मुझे कामयाबी के सपने दिखा रहा था!

“मैडम जी! जब आप के पास करोड़ों रुपये आएंगे तो उनका आप क्या करेंगी?” टीकम का साला भीकम कुसुम से पूछ रहा था। “ये तो धंधा ही ऐसा है कि ..” वह कुसुम को खुश करना चाहता था। “हम तो आपके साथ हैं! बहुत सारे लोगों को सहारा दिया है – हमने! आज सब लखपति और करोड़पति हैं!” वह बताता रहा था। “हमारा क्या जाता है! आज मेरी मॉं आई थीं। तीन सौ रुपयों की जरूरत है। अगर आपकी मेहरबानी हो जाए तो ..?”

“पैसे के लिए तो हम भी दर दर डोल रहे हैं भीकम!” कुसुम ने उसे उत्तर दे दिया था।

टीकम मुझे अलग से बाजार में लिए लिए डोल रहा था!

“यहां हमारा प्रेस लगेगा! ये डबराल साहब हैं। मालिक हैं इस मकान के। दस हजार एडवांस दे दें, फिर तो जब मशीनें लगेंगी तो पेमेंट होगा!” टीकम कह रहा था। लेकिन वो डबराल साहब चुप थे। मैंने भी बहाना मारा था और हम चले आये थे।

लेकिन टीकम ने मेरा जीना हराम कर दिया था।

“सबसे पहले सिक्का उठेगा! अभी से ऑडर देना होगा ताकि मशीन लगने से पहले ही सिक्का तैयार हो जाए! दस हजार एडवांस देकर एक लाख सिक्का का ऑडर थमा देते हैं!” वह हंसा था। “हम भी यहीं से सिक्का लेते हैं!”

“भाई जी चेक चलेगा?” मैं पूछ बैठा था।

“नहीं जी! हम तो कैश लेते हैं!” उसने कहा था।

“तो कल आते हैं!” कह कर हम उठ आये थे।

टीकम तनिक उदास था। आज तीन दिन हो गये थे हमें झक मारते! उसने मुझे चेतावनी की तरह याद दिलाया था – कल मशीनों के लिए कनाट प्लेस चलेंगे वर्मा साहब! चैक बुक साथ लेकर आना!” उसका आदेश था।

“आर यू ए रिअल मेजर अंकल?” शो रूम में सीट पर बैठे मैनेजर ने मुझे एक अप्रत्याशित प्रश्न पूछ लिया था।

मुझे तनिक बुरा लगा था। सिविल में आ कर अब मुझे कभी कभी बहुत अटपटा लगता था जब लोग मेरा मखौल उड़ाने पर उतर आते थे।

“यस यस मिस्टर, हू सो एवर यू आर!” मैं तलखी में बोला था। “आई हैव फॉट ए वॉर .. एंड ..” मैं अपनी आदतानुसार गरजने लगा था।

“माई फादर इज ऑलसो ए रिटायर्ड मेजर!” वह हंसा था। “आई एम प्रमोद!” उसने अपना परिचय दिया था। मैं अब प्रसन्न हो गया था। मुझे लगा था जैसे मेरा ही कोई सहोदर मुझे इस वीराने में मिल गया था! “हाऊ डू यू नो दिस जोकर?” प्रमोद ने मुझे पूछा था।

सोफे पर बैठे टीकम के कान खड़े हो गये थे। चूंकि अब हम दोनों अब अंग्रेजी में बातें कर रहे थे, इसलिए टीकम घबरा गया था।

“जस्ट लाइक दैट!” मैंने कहा था।

“बट ही इज ए फ्रॉड!” प्रमोद ने साफ साफ कहा था। “ही हैज चीटेड मैनी लाइक यू!” प्रमोद मुझे बता रहा था। “इन केस यू रियली वॉन्ट मशीन्समशीन्स आई विल गैट यू एट फैक्टरी रेट। बट वॉच आउट फॉर दिस मैन सिनस यू आर ..” प्रमोद हंस रहा था!

प्रमोद ने मुझे कॉफी पिला कर विदा किया था। टीकम को बात समझ में आ गई थी – बिन बताए! मैं बाल बाल बच गया था लेकिन हमारे नए सपनों का रचा बसा संसार यूं उजड़ जाएगा – इसपर मैं और कुसुम शोक मना रहे थे।

“कपूर भाई! आज के दिन बुलाया था – नौकरी के लिए!” मैंने टूटे पेड़ की तरह कुर्सी पर गिरते हुए कहा था। “बोलो क्या हुक्म है?”

चाय आ गई थी। हम दोनों चुपचाप चाय पी रहे थे। कपूर अपने काम में व्यस्त था। मैं नौकरी पाने के इंतजार में सूख रहा था। फिर कपूर कुर्सी से उठा था और मुझे ले कर बैठक में चला आया था।

“आप को भूखों मरते कितने दिन हुए?” कपूर पूछ रहा था।

“छह महीने!” मैंने तनिक नाराज होते हुए कहा था।

“छह महीने और भूखे मर लो सर!” वह मुसकुराया था। “मैं जानता हूँ कि सैटल होने के बाद आप बर्फी का डब्बा लेकर नहीं लौटेंगे! लेकिन ..”

मैंने कैप्टन कपूर को अब तक की अपनी सारी कथा व्यथा कह सुनाई थी। मैं रोने रोने को था। मैं निराश था। नौकरी की उम्मीद लेकर आया था लेकिन ..

“बुरा तो आपको लगेगा सर!” विनम्रता पूर्वक कपूर कह रहा था। “नौकरी लगेगी तो फिर छूट जाएगी! और तब आप बूढ़े हो चुके होंगे ..” हंस गया था कपूर। “नीबू पानी पिलाता हूँ। आज गर्मी बहुत है!” उसने मुझे धीरज बंधाया था।

नीबू पानी पीते पीते मैं ठंडा पड़ गया था। घोर निराशा ने मुझे घेर लिया था। कुसुम भी निराश होगी मैं जानता था। और .. अपना कोई काम ..? हवा के बादल थे! खाली आसमान में छोड़ा तीर था, लेकिन हमारी गृहस्ति तो मझधार में आ पहुंची थी। हमारे तीन बच्चों के भविष्य का प्रश्न था ओर हम दोनों भी ..

“इससे अच्छी नौकरी कहीं न मिलेगी वर्मा!” कर्नल रनबीर के बोल थे। “बेकार में छोड़ रहे हो इतनी अच्छी ..”

“अब क्या करेंगे?” कुसुम ने ठंडी आह रिता कर पूछा था। आधी रात का समय था। बच्चे सो रहे थे। लेकिन हम दोनों की नींद उड़ी हुई थी!

“शिव दान का ऑफर है हमारे पास!” मैंने डरते डरते कहा था।

“महा चालू है!” कुसुम बिफर पड़ी थी। “आप को तो बेच कर खा जाएगा .. और ..” मुझे अपलक देख रही थी कुसुम। “अगर कोई भला आदमी ..?”

“शायद सदियों तक न मिले!” मैंने दो टूक कहा था। “जब रहना ही यहां है .. इन बदमाशों के बीच .. तो फिर ..? देख लेते हैं! ज्यादा बड़ी रिस्क नहीं है। दस बीस हजार खा भी लेगा तो ..?”

“ठीक है!” ले दे कर कुसुम राजी हो गई थी।

शिव दान के साथ आनन फानन में सब तय हो गया था। उसने मुझे दुकान की चाबी दे दी थी, और बताया था कि मुझे ही दुकान खोलनी थी। माल भी मैंने ही बेचना था। पैसा भी मेरा ही लगना था। शिव दान को मुनाफे का आधा मिलना था। मुनाफा भी हर रोज ही बंटना था!

मुझे शिव दान की हर शर्त मंजूर थी।

आदतानुसार मैं ठीक आठ बजे दुकान के सामने खड़ा था!

बगल वाला हलवाई समोसे बना रहा था। अदबूढ़ा आदमी था। उसने मुझे गौर से देखा था। तनिक मुसकुराया था और फिर पूछ बैठा था –

“मेजर हैं क्या आप .. शिव दान के ..?” उस आदमी ने मेरी कैफियत पूछ ही ली थी। मैं भी जान गया था कि उसने मुझे शिव दान का नौकर न कहने का अहसान कर दिया था। जब कि शिव दान ने खबर उड़ा दी थी कि उसने एक मेजर को नौकरी पर रख लिया था। तभी तो सामने पान वाला मुझे घूर रहा था। झाड़ू वाला भी हंस रहा था। उन्हें मैं एक अजूबा लग रहा था। आर्मी मेजर को यों कभी उन्होंने शिव दान जैसे मक्कार की नौकरी करते न देखा था!

और मैंने भी शायद इस तरह के बाजार को कभी पहले नहीं देखा था!

हलवाई था – अपने खेल का माहिर था! पान वाला भी खा कमा रहा था। झाड़ू वाला, कपड़े वाला ओर परचून वाला सब जैसे हस्तियां थे! और एक मैं था – जो दुश्मन की छाती पर तोपों के गोले दाग सकता था .. आखिरी गोली और आखिरी दुश्मन तक लड़ सकता था लेकिन अपनी रोजी रोटी नहीं कमा सकता था! नीची निगाहों से जब मैंने दुकान का शटर खोला था तो मैं दंग रह गया था!

दुकान नहीं – एक खाली कबाड़ से भर कमरा था। एक मेज कुर्सी थी जो धूल धक्कड़ में दबी पड़ी थी!

“झाड़ू देना भाई जी!” मैंने तुरंत ही एक नया झाड़ू खरीदा था और दुकान की साफ सफाई में लग गया था!

अब सब ने सच मान लिया था कि शिव दान ने मुझे नौकर रख लिया था!

राम बीर – शिव दान का छोटा भाई जब आया था तब मैं साफ सफाई कर चुका था। राम बीर गैस के चूल्हों का मेकैनिक था। और जब शिव दान आया था तो हम माल खरीदने चले गये थे। मैंने दुकान में माल को करीने से सजा दिया था और शाम को घर चला आया था।

“कैसा रहा ..?” कुसुम का प्रश्न था लेकिन मैं उत्तर में कुछ न बोला था।

कैसे बताता कुसुम को कि आज बाजार में मैं बिना किसी मोल तोल के बिका था! कैसे कहता बाजार की कहानी! जो हमने जिया था – वह जिंदगी थी ओर अब जो जीने जा रहे थे – शायद फजीहत ही थी!

“मन नहीं करता तो रहने दो!” कुसुम ने मेरे आहत मन को भांप लिया था।

“नहीं! काम तो करूंगा!” मैंने कुसुम को धीरज बंधाया था। “लेकिन सच मानो – आज मेरा मन हुआ था कि कलम उठाऊं और बाजार पर एक उपन्यास लिख दूं! एक एक करैक्टर .. कुसुम ..” मैं कहता ही रहा था पर कुसुम सुन न रही थी!

“एक प्रभात का चूल्हा देना मेजर साहब!” ये मेरा पहला ग्राहक था जिसे पता था कि मैं शिव दान का नौकर था। “लीजिए पैसे!” उसने मुझे तीन सौ रुपये थमा दिये थे।

“पांच सौ रुपये दो भाई!” मैंने तकाजा किया था।

“अरे नहीं साहब! मैंने पहले ही आप को पचास रुपये जासती दे दिये हैं! आप की खरीद 250 रुपये की है, मैं जानता हूँ! और मैं यह भी जानता हूँ मेजर साहब कि .. और मैं यह भी जानता हूँ कि ..” वह बताता चला गया था।

मेरे पसीने छूट गये थे और वह चूल्हा ले कर चला गया था!

“क्यों उदास बैठे हैं भाई साहब?” शिव दान ने आते ही पूछा था।

“क्या यार!” मैंने अपने आप को कोसा था। “तीन सौ में चूल्हा ले गया!”

“पचास तो दे गया?” शिव दान पूछ रहा था। “अभी तो शाम पड़ी है! माल भी दुकान में भरा है!” वह हंस रहा था। “ऑमलेट मंगवाएं! दोनों नाश्ता करते हैं!” उसने आदेश दिये थे।

और सच में ही शाम तक हमारा खूब माल बिका था!

ग्यारह बजे रात को जब मैं घर पहुंचा था तो मेरा चेहरा गुलाबों सा खिला था। मुझे देख कर कुसुम भी खिल उठी थी।

“आज कैसा रहा?” उसने पूछ ही लिया था।

जेब में नोट भरे थे सो मैंने कुसुम के सामने खाली कर दिये थे!

“आज की कमाई!” मैंने सूचना दी थी।

तीनों बच्चे भी अभी तक सोए नहीं थे! और उस रात हम ने – हम सब ने दीवाली मनाई थी!

उसके बाद तो फिर कभी अंधकार दिखाई नहीं दिया!

मेजर कृपाल वर्मा 1

मेजर कृपाल वर्मा

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