भोर का तारा

युग पुरुषों के पूर्वापर की चर्चा !

उपन्यास अंश :-

बाबू जी को रिश्ता पसंद था. बाबू जी को लड़की पसंद थी. बाबू   जी को आता दान – दहेज़ भी दिखाई दे गया था. घर के सभी सदस्य प्रसन्न थे. आस-पास में भी चर्चा थी – कि मेरी शादी खूब बढ़-चढ़ कर होनेवाली थी. शादी  ….ऐसी शादी   …जो अभी तक तेली-मोहल्ले में किसी की नहीं हुई !

जसोदाबेन की गुण -गाथा भी चर्चा में थी.

लड़की में कितने गुण थे – इस की गणना की जा चुकी थी. लड़की के खानदान का अलग से बखान होने लगा था. नई रिश्तेदारी   …जुड़ने से परिवार को क्या लाभ होनेवाला था – इसे भी समझ लिया गया था. जब लड़कीवालों को मेरे विरोध का पता चला था – तो उन्हें कह दिया गया था – लड़क तनिक-सा जिद्दी है ! पर है – होनहार !! लड़की के भाग जाग जाएंगे।

पूरा का पूरा माहौल मेरी शादी के पक्ष में आ कर खड़ा हो गया था – सिवा मेरे !

एक बार मैंने सोचा कि चुपके से जाकर जसोदा को बता दूँ    …कि मैं अभी शादी करने के लिए रज़ामंद नहीं हूँ। तुम मुझ से शादी करने से नांट जाओ। पर ये संभव कहाँ था ? हंसिए मत , वो दिन   …वो ही दिन थे – आजवाले दिन नहीं थे ! वो युग मोबाइल फोनों का युग नहीं था ! वो युग – लड़की,लड़कों के साथ-साथ घूमने का युग भी नहीं था !

लड़की -लडके एक दूसरे को देखते-समझते कहाँ थे ?

“तो क्या – गाय-बैलों की तरह   ….या फिर भेड़ -बकरियों के समान होता था – शादी का स्वांग  ….?” कोई मुझसे आज पूछ रहा है. शायद वक्त भी आज मेरी गवाही न दे।  पर यह सच था. आज के बच्चों की तरह हमारी ज़ुबानें खुलती कहाँ थीं !

बिना मेरे स्वीकार के   …बिना मेरी अनुमति के  ….मेरी शादी की रश्में शुरू हो गईं थीं. घर में शादी होने की उमंग भर गई थी. गीत-नांद गाए जा रहे थे. छेते धरे जा रहे थे।  पंडित जी की परामर्श पर शुभ-लगन निकाल लिया गया था. बरात-बारातियों का आना-जाना तय हो गया था. मेरे लिए नए कपडे सिलवाए गए थे. मुझे ले जा कर  ….परिवार की प्रथाएं और भूमियों का पूजन हो रहा था. हवन -यज्ञ का चलन भी चालू था.

एक चुहल थी – एक ख़ुशी थी  …एक सौहार्द था  …जिसे सब लोग मना रहे थे  …गा-गा कर सुना रहे थे….., सिवा मेरे !

स्कूल में भी मेरी शादी होने की भनक पहुँच गई थी. मेरे मित्रों ने मुझे छेड़ना आरम्भ कर दिया था. यशोदाबेन का नाम तक उन के पास पहुँच गया था. और वो ये भी जानते थे कि मैं अपनी होती शादी के पक्ष में नहीं था.

“कलट्टर बनना चाहता है !” मित्रों में चर्चा थी. “मेंढकी भी नाल ठुकवाएगी   ….” उन का उल्हाना था।  “ये अपनी औकात में रहता ही कब है   ….?” मेरे प्रति आम राय बन चुकी थी.

मैं चुप था. मैं शांत था. मेरा सोच ठहर गया था. मेरी उड़ान रुक गई थी. मैं किसी तोड़-फोड़ के फेर में न था. मैं चाहता था कि  ….मैं इस आनेवाली घटना को सह लूँ   …समझ लूँ   ….! मैं चाहता था कि  …ठहर कर कोई निर्णय लूँ   …!

शादी की रश्म  …एक बे-बुनियाद बात की तरह पूरी हुई !

मेरी समझ  ….मेरा सोच  …या मेरी भावनाएं  …मेरी शादी में शामिल ही कब हुईं  …? होनेवाली दुल्हिन को न तो मैंने देखा था  …न मैं उसे जानता ही था  …और न ही मैं उसे पहचानता था. अजीव ही चलन था – शादी का ! दो आत्माओं को बिना उन की अनुमति के समाज ने शादी जैसे पवित्र बंधन में बांध दिया था.

पडित जी ने मंत्रोच्चार किए थे – पर मैं उन का मतलब तक नहीं जानता था. अग्नि के समक्ष सात फेरे लिए थे – पर उन का अर्थ तक मुझे ज्ञात नहीं था. मेरा और यशोदा का   …न मन मिला था  …न तन ! हम अभी तक कोरे थे…..पर पति-पत्नी बन चुके थे ! अजीब ही रिश्ता था – जो बिना हमारी सम्मति के कायम हो गया था !

शादी पर यशोदा हमारे साथ नहीं आई थी. तब चलन ही नहीं था. हम बिना दुल्हन को लिए ही लौट आए थे.

अब मेरा मन फिर से उड़ने लगा था.

“छात्रों में से  ….कोई बोलना चाहता है   ….?” पंद्रह अगस्त के होते जलसे पर प्रधानाचार्य पूछ रहे थे. “अगर कोई है तो मंच पर आए  …!” उन का खुला निमंत्रण था.

आज भी मैं नहीं जानता कि मैं क्यों खड़ा हुआ था ! और मंच पर आ कर मैंने माइक संभाल लिया था. मैं बोल रहा था  ….मैं बोले ही जा रहा था  …!

“हमने कुर्बानियां दे कर इस आज़ादी को हासिल किया है !” मैं कह रहा था. “हमारी ये अनमोल आज़ादी  …हमें जान से भी प्यारी है !” मैं बता रहा था. “हमारा देश   …हमारा उद्देश्य   …हमारा नारा  ….हमारा किनारा  ….!” और न जाने क्या-क्या कह रहा था, मैं !

हाँ,हाँ   …! तालियां वज रही थीं  …..! जमा लोग मुड़ -मुड़ कर तालियां बजा रहे थे  ….मुझे उत्साहित कर रहे थे  …!

“लड़का होनहार है   …!”

“अच्छा बोलता है   …!!”

“किस का है  …?”

“क्या  ….? दामोदर दास तेली का बेटा है ….!”

मेरे सर पर बम की तरह गिरा था – मेरा ये परिचय   …!!

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श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!

 

 

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