apradhilal‘लेकिन सच मानो प्रतिमा .. मै तुम्हे ही प्यार करता हूँ!’ प्रभाती लाल फिर प्रतिमा के हातों को छु लेता है|  प्रतिमा की आँखों के सामने तिमिर के काले-काले छल्ले छा जाते हैं| अपने हात वापस खिंच … चेहरे को ढांप … प्रभाती लाल के किये दावे को दुहराती है| ‘मै तुम्हे प्यार करता हूँ .. किस लिए ..? मै सुन्दर हूँ .. मेरी देह गोरी-चिट्टी है .. मुझसे वासना का वास्ता है .. मुझे भोगने को मन करता है .. यही न ..?’ उसे नारी-सौंदर्य की विडंबना पर हंसी आने लगती है| हर प्रेमी द्वारा दोहराया एक ही संवाद भिन्न-भिन्न अर्थों से भर जाता है| हर इंसान के भावाकुल मन से विवश हुई प्रशंशा उसे याद आने लगती है| शायद हर आदमी .. हर औरत से .. हर औरत को भोगने से पहले .. यही शब्द-जाल बिछाता है| औरत इसे मान लेती है| यह जानते हुए भी की .. कथित गुण उसमे नहीं है .. औरत पुरुष वाणी के जादू पर मुग्ध हो सब सच मान लेती है| कम से कम उन पलों में तो .. वाह कच्ची जरुर पड़ जाती है! फिर तो आदमी बोलने का मौका ही कहाँ देता है ..?

उपन्यास अंश – अपराधी लाल

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