
पारुल का मन सन्यास लेने से नांट गया था !
भाग – ४०
कलकत्ता पहुंची पारुल को सावित्री ने दौड़ कर आगोश में भर लिया था !
दो परछाईयाँ मिली थीं ….भारहीन …संज्ञाविहीन ….असमप्रक्त …और विरक्त हो कर मिलीं थीं ! प्रेम था …सौहार्द था ….अपनापन था ….और था एक निमंत्रण ! दोनों को एक दूसरे की दरकार थी ! दोनों को मिलन की चाहत थी . दोनों एक दूसरे में विलीन हो गई थीं ….और भूल गईं थीं अपने अपने गम ! एक अनाम सुख था – जो दोनों के शरीरों को सुख प्रदान कर रहा था . लगा था जैसे दोनों की आत्माएं एक साथ उत्तीर्ण हो गईं थीं ….मुक्त हो गई थीं ! आँखें भी एक दूसरी को निहार कर निहाल हो गई थीं !
पारुल फूट-फूट कर रो पड़ी थी . उस की हिलकियां रोके न रुक पा रहीं थीं . उस का मन था कि वह खूब रोये ….बह जाने दे मनोविकारों को …हो जाने दे अंतर को साफ़-स्वच्छ ….और बहा दे अपने तमाम गम ! सावित्री उसे एक सहारा लगी थी ….एक छाया लगी थी -अपनी ….और सहोदर सी ही कुछ थी …जिस पर भरोसा किया जा सकता था !
लेकिन सावित्री पारुल का पीला पड गया चेहरा देख दंग रह गई थी !
ज़रूर कोई अंतर्व्यथा थी जो पारुल को भीतर से तोड़े दे रही थी ! सावित्री ने अंदाजा लगाया था . था तो कुछ ज़रूर जिस ने फूल-सी पारुल को जर्जर किया था …और तोड़ डाला था ! पारुल की आँखों से टपकती निराशा …ग़मगीन चेहरा …और दुर्बल हुआ शरीर …उस की निराशा की कहानी कहने को बाध्य करता लगा था !
“बीमार थी ….?” सावित्री ने प्रश्न पूछा था .
“न …न …! बीमार तो नहीं …पर ..वो तन से ज्यादा …मन की पीड़ा ….”
“जानती हूँ , तेरा गम ! ये वैधव्य …बहुर बुरी बला है , मेरी बहिन ! मैं समझ सकती हूँ …! जोड़ा बिछुड़ जाए तो ….जीने का मन ही नहीं बनता !” सावित्री ने पारुल की आँखें पढ़ीं थीं . “बहुर प्यार करती थी न , उसे ….?” सावित्री ने स्वाभाविक प्रश्न पूछा था .
पारुल चुप थी . क्या बताती ….?
“प्रेम-रोग है ही बुरा ….!” सावित्री ने कहा था . “लेकिन लगने के बाद …परिणाम तो भोगना ही होता है ….? मुझे ही देख लो …..” तनिक सी हंसी थी , सावित्री .
“क्या है कि ….” पारुल समझ नहीं पा रही थी कि क्या उत्तर दे . “समीर बहुर ही महत्वाकांक्षी था ! उस का चक्रवर्ती महाराज बनने का सपना …” पारुल झूठ बोल रही थी .
“छोडो इस सपने को , पारो ! आज का संसार स्वेछाचारी है ! सत्ता से लोग परहेज़ करने लगे हैं . अब सब स्वतंत्र रहना चाहते हैं !”
“सौरी ,दीदी ! पर मेरी मुशीबतें ….” पारुल फिर से परेशान होने लगी थी . उस ने देखे वो दु: स्वप्न …अचानक उसे याद हो आए थे ! उस की आँखों में भय भरने लगा था !
“मेरे पास छोडो न , अपनी मुशीबतों को ….?” सावित्री ने उसे सहारा दिया था . “राजन खाली बैठा है !” उस ने विहंस कर बताया था . “जौमदार घोडा है . इसे दौडाओ ….!! समझ लो कि …काम-कोटि को ….” सावित्री ने एक सुंदर सुझाव पारुल के सामने रख दिया था .
चुप थी पारुल . राजन के बारे वह फिर से एक हिसाब लगा लेना चाहती थी . आदमी दोधारी तलवार होता है ! अगर कभी उल्टा पड जाए …तो गया गला ! राजन को पति-पुरुष के रूप में स्वीकारना …सावित्री की तमाम मुशीबतों को बे-मोल भोगना था ! जो सावित्री का न हो सका ….वो फिर पारुल का कैसे हो सकता था …?
“पागल से ब्याह कर लिया …..!” अचानक पारुल सिल्वी की आवाजें सुनने लगी थी . “क्या करती …? पैसे दिए थे …और फिर लात मार कर भगा दिया ! अब ऐश करती हूँ . जान छूट गई , बालाओं से ! कोई नहीं लौटा ….”
“लेकिन ….मैं …तो ….” घबरा रही थी , पारुल .
“पागल से ….पेड़ से ….पत्थर से …शादी कर लो ! चाहे तो किसी कुत्ते से ….” सिल्वी हंस रही थी . “तांत्रिक ने …ठीक उपाय बताया था , पारुल !
“कुत्ते …से …शादी ….?”
“हाँ,हाँ ! कुत्ते से …..!! आईडिया …तो जान छुडाना है….न …?” अब पारुल का दिमाग बोल रहा था . “डालते रहो टुकड़ा ….! हिलाने दो उसे , दुम !! अभी तक तुम पुरुषों को नहीं जानतीं ..? मन है तो -तुम्हारे ! और मन गया तो …..”
पारुल गंभीर स्थिति का सामना करने लगी थी !
राजन का मन पारुल पर था . वह उस के लिए पागल था . उस ने सावित्री जैसी पवित्र पत्नी से संबंध विछोह कर लिया था . उस ने सरे आम पारुल को पा लेने का ऐलान कर दिया था ! वह हर कीमत देने को तैयार था ! वह अँधा था ,पागल था ,बेहोश था ! अभी , हाँ अभी उसे मुफ्त में हासिल किया जा सकता था ! अपनी शर्तों पर राजन को पा कर पारुल की तमाम मुशीबतों का अंत आ जाना था !
कम-स-कम समीर सैकिया का सर्प तो उसे छोड़ ही देगा ….? और शायद …वो सांपिनें भी नहीं लौटेंगी ….? काम-कोटि तो उस का था ….उसी का रहेगा ….और ….
“गुजारा तो करो …!” अब की बार पारुल का मन बोला था . “फिर राह …चलते-चलते ….कोई …यों ही …मिल गया था ….” वह चुपके से गाने लगी थी .
उल्लास-सा कुछ पारुल के मन-प्राण में भरने लगा था !
जीवन एक यात्रा है – पारुल महसूस रही थी . सफ़र है ! पड़ाव तो आएँगे ही ! और कौन सा पड़ाव कब आ जाए …., कौन जाने …? हाँ ! उसे चलते रहना है …चलते जाना है …निरंतर एक नदी की तरह बहते-बहते …गंतव्य पर पहुँचना है !
“मेरा तो …ये ही आखिरी पड़ाव है , पारुल ! अब मैंने तो जिद कर के …अकेला ही जीना है !” उस ने पारुल की आँखों को पढ़ा था . “हाँ, एक बेटे की ज़रूर-ज़रूर …जिज्ञासा है ! कृष्ण ….गोपाल ….कन्हैंयाँ ….मेरे आँगन में आएं ….! तनिक-सा द्वन्द ….क्रीडा ….और शरारतें ….! और फिर वो ….उन की बांसुरी ….! सच में पारो ! मेरा मन अब उस …कन्हैयाँ के लिए बाबला हो आया है !” रुकी थी, सावित्री . पारुल चुप थी . “बेटे से ज्यादा …मैं उसे परमात्मा रूप में पा लेना चाहती हूँ ! तेरा बेटा मिल जाए तो ….तर जाऊंगी , बहिन !”
“बहुत दूर की सोच रही हैं , दीदी !” पारुल का मौन टूटा था .
“हाँ, अब तो दूर की सोच कर ही चलना है , पारो ! अकेली हूँ . एक बार गलती कर चुकी हूँ . खैर ! हुआ ….सो …हुआ …!! पर अब से …..”
वो दोनों चुप थीं ! पर उन दोनों के बीच एक कोलाहल उठ बैठा था ….एक जंग जारी हो चुकी थी ! और उन के पक्ष-विपक्ष उठ खड़े हुए थे !!
यों तो पारुल को सावित्री का सात्विकी जीवन …बेहद आकर्षक लगा था …लेकिन वो जो उस का अपना ….काम-कोटि का क्रम …जीवन शैली ….होती हल-चल ….और चलता राज-पाठ …अचानक ही उस के सामने आ खड़े हुए थे !!
“क्या कहूं , अमृत से ….., महारानी जी …….?” अचानक मही लाल की आवाजें उग आई थीं . अचानक ही वह अपने महारानी के चोले में लौटी थी . अचानक ही एक शाही रूह उस के चोले में प्रवेश पा गई थी . “वो ….कह रहा है …..”
“अभी नहीं !” पारुल के कठोर स्वर थे . “कहो ! फिर बात करेगा ….” पारुल ने आदेश दिया था .
मही लाल ने मुड कर प्रश्न नहीं किया था ! वह चला गया था !!
और फिर वही क्रम बरकरार चलता ही रहा था ! राज महल में बतियाता …उन का एक विगत था …एक शान-शौकत थी …और एक सिलसिला था ! तय शुदा वहां सब था ….खाना …नहाना …कपडे पहनना …दरबार …आफिस …प्रजा और उन का पालक ! सब ज्यों-के-त्यों आ खड़े हुए थे – पारुल के पास !
सब श्रेष्ठ था ! दरबार हाल से लेकर …ड्राइंग रूम तक …किचिन से लेकर …बैड रूम तक …सब का सब अद्वितीय था . कहीं कोई खोट छांटा ही न जा सकता था ! यहाँ तक कि नाश्ते की लगी टेबिल पर पारुल का आ कर बैठना ….और पांड्या की सर्विस – सभी सर्व श्रेष्ठ था !
और फिर उस का हुकुम चलता था ! उस की राय चलती थी ! उस का वजूद भागता था . लगता था – एक अलग से चलायमान हुआ संसार ….उस का था …उस के अधीन था ! बिना उस की नज़र के पत्ता तक नहीं हिलता था – काम-कोटि में !!
लेकिन करे -तो-क्या करे ….? समीर सेकिया का सर्प …..और उस की बेटियों की ….वो सान्पिनों जैसी परछाइयाँ ….उस के कदम तोड़ रही थीं ! चाह कर भी पारुल काम-कोटि लौटने का संकल्प न ले पा रही थी !
छटपटा रही थी – पारुल ….!!
“नीद नहीं आ रही …..?” अचानक सावित्री ने उसे मुशीबत से उबारा था . “ये राजन का ही बेड -रूम है ! मैंने तो सोचा था कि ….तुम …..?” तनिक मुस्कराई थी, सावित्री . “चल ! आ-जा मेरे साथ !! मोहन के चरणों में सो ….! सारी व्यधा कट जाएगी ….!!” सावित्री ने उसे निमंत्रण दिया था .
एक बार फिर पारुल लौटी थी . उस ने एक बार फिर सावित्री के साथ …जीने पर द्रष्टिपात किया था ! पूजा-पाठ ….भगवान् को भोग लगा कर खाना …उसे नहलाना …सुलाना …उस की आरती उतारनी …उस का गुणगान करना …सब आज उसे ढोंग न लगा था ! एक उपचार जैसा लगा था . तमाम रोगों की एक दबा जैसा दिखा था !
दे कर लेना …पा कर बांटना …और मिल कर जीना -सहल तरीके थे -जीवन यापन के ! लेकिन जितने ये सहल थे …इन्हें ग्रहण करना उतना ही कठिन था ! आदमी तो सारा का सारा संसार स्वयं ही सटक जाना चाहता था !
“लो. एक चटाई तुम लो ! तुम तकिया भी लेलो ! आदत नहीं न …ज़मीन पर सोने की ….?” ये सब सावित्री लाड में कहे जा रही थी . “इस तरह …समाधि-सी लगाओ ….और सो जाओ ….! केशव स्वयं आ कर तुम्हें सुलाएंगे ….” सावित्री का स्वर अलौकिक था !
आश्चर्य था ! इतनी गहरी नीद पारुल आज तक कभी न सोई थी !! संसार से बंधन मुक्त होने का ये अनूठा मंत्र था ! उसे लगा था – वह किसी दूसरे लोक से लौटी थी . और लगा था – उस लोक में …यहाँ जैसा मानसिक प्रदूषण न था !!
लेकिन पारुल का मन अभी से संन्यास लेने से नांट गया था !!
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श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!