‘मै बताना चाहता हूँ .. निवेदिता कि …|’ प्रनभ की जुबान लडखडा गई थी| कालिख के कुएं में दुबका उसका मन आज भी उसको रहस्य उजागर न करने को कह रहा था| लेकिन आज प्रनभ की निवेदिता के प्रति मोह की भावना सक्रिय और सचेत हो उठी थी| ‘मै विवाहित हूँ …! मेरे बच्चे … घर और …’ वाह कठिनाई से ही उगल पाया था|
निवेदिता गंभीर दृष्टि से प्रनभ को परखती रही थी| प्रनभ की आँखों में सच्चाई थी| एक सच्चे प्रेमी की तरह वाह स्वीकार का आनद उठा रहा था| स्वयं को बहुत ही हल्का महसूस रहा था| अपनी खामियों के स्वीकार का सुख आदमी को तोड़ता नहीं .. ऊपर उठता है|
‘उस में बुरा क्या है ..?’ निवेदिता ने बहुत देर बाद जुबान खोली थी| शायद भले-बुरे के पाथेय की जुगाली कर उसने एक समझौता उगला था| ‘मुझे भी पता था कि तुम … कुंवारे नहीं हो .. तुम स्त्री-भोग के सुख से अपरिचित नहीं हो!’ वाह रुकी थी| प्रनभ एक अपराधी की मुद्रा बनाये निवेदिता के दिए फैसले सुन रहा था| ‘एक प्राप्ति के पीछे में हर हादसा बर्दाश्त करने को तैयार हूँ .. प्रनभ! जितना कहोगे .. बलिदान करुँगी .. प्यार करुँगी .. सेवा करुँगी ..! जहाँ जिस हाल में भी रहोगे .. साथ दूंगी! तुम्हारे साथ रह कर तो मै .. मौत से भी मुकाबले जीत लुंगी .. पन्नी!! लेकिन .. अगर तुम न मिले .. तुम्हारा प्यार न मिला तो .. शायद ..’
- उपन्यास अंश – आस और प्यास