प्यासा

मैं लौट आया था ! उसे तो मेरे आने का भान भी न था।  वह आदमी भी मुझे पहचान न पाया था. लेकिन केतकी जान गई थी कि मैं उसकी चाल को ताड़ गया था. अब उसे मुझे कोई झांसा देना था. उस आदमी का अर्थ बताना था. कहना था कि वो -अलां फलां आदमी उस का यार नहीं। …उस का प्यार नहीं। …और न उस का कोई और था।  वह तो कोई राहगीर था। …भटका हुआ कोई था जो कुंए के पास चला आया था…..और पेट भर पानी पीना चाहता था.

“पुण्य का काम है, सुकर्म ! और प्यासे को प्यासा छोड़ना – पाप है !” केतकी ने मुझे दर्शन समझाया था.

“पर मेरे हिस्से का पानी उसे क्यों पिलाती हो …?” मैं पूछ लेना चाहता था.

“वो अनाथ है. मैं उसे बचपन से जानती हूँ।”

” फिर मेरी ज़रुरत  …….?”

“थी। तभी तो   ……!”

अब मैं क्या कहता ? केतकी का काम निकल गया था. वह आदमी अब हंस रहा था. मैं ही था जिसे रोना आ रहा था.

और फिर मैं लौट आया था. प्यासा  तो था. लेकिन उस के कुंए का पानी मैं क्यों पीता  …?

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