अब दिल्ली दूर नहीं !!
उपन्यास अंश :-
अपने इष्ट की तरह मैंने अंत में केसर को याद किया था …..अपनी प्रेमिका को ही पुकारा था !!
“यही तो पाठशाला है , पागल !” केसर हंस रही थी . “कौनसी मौत आएगी …?” उस ने मुझे उल्हाना दिया था . “आदमी चौड़े में आता है – तभी तो सीखता है ! खतरों से खेलता है ….तो खतरों के दांत कीलने लगता है ! और है क्या – जीने में …? मरना ….मारना ….! जो पहला वार कर जाय – वही बादशाह !!”
और अब मैं खतरों से खेलने के लिए तैयार था !
लेकिन घर का माहौल अजीव था . माँ थीं कि रोये ही जा रहीं थीं ! न जाने उन्हें किस डर ने आ घेरा था …? लेकिन छोटे भाई-बहिन सब प्रसन्न थे ….कि में दिल्ली जा रहा था ! उन्हें एहसास था कि जब मैं दिल्ली से लौटूंगा तो ….सौगातें लाऊंगा ….बहुत सारे दिल्ली के कहानी-किस्से मेरे साथ आएँगे …और बड़प्पन की एक अलग हवा मेरे साथ आएगी . एक परिवर्तन हमारे घर आ कर पड़ाव डालेगा ….और बहुत कुछ नया-पुराना होगा !!
“इल्म …आदमी इसी उम्र में सीखता है !” शेख शामी लोगों को बता रहे थे . “चौधरी साहब ! मैं कुल सोलह साल का था …जब घर से भागा था . सौतेली माँ ने मुझे हलाक कर देना था ….अगर मैं घर छोड़ कर न भागता ! कहाँ जाऊं – मैं जानता तक नहीं था . बस , एक दिल्ली आते काफिले के साथ हो लिया ! लोगों ने मुझे काम बताना शुरू किया ….तो मैंने भी काम करना आरंभ कर दिया ! बाकी की कहानी चलती रही और आज मैं ….”
सिकंदर लोधी का दाहिना हाथ था – शेख शामी !
“हिन्दू राष्ट्र की स्थापना …!” मेरा दिमाग अब बार-बार इसी उठाए संकल्प को छू रहा था ….बिदक रहा था ….लौट रहा था ….और डर रहा था ! छोटा संकल्प न था – मुझ जैसे अबोध शिशु के लिए ! मैं तो अभी तक ‘राष्ट्र’ की परिभाषा को भी नहीं पहचानता था . गुरु जी ने जो अब तक बताया था – वह तो पुस्तकों के पन्नों पर ही छपा था ….और कहानी-किस्सों_सा कुछ था ! अभी तक कोई ठोस तथ्य मेरे पास न थे . और न ही मैंने कुछ देखा-भाला था . सब हवा में ही था !
ज़मीन पर आसमान उतार देना – मुझे अभी आता कब था ….?
मेरा विदाई समारोह एक घटना बन गया था . लोग आस-पास से मेरे दिल्ली जाने की खबर पा – देखने चले आये थे . उन की आँखों में प्रश्न थे —-मूक प्रश्न ! बोल कोई नहीं रहा था – पर मेरे दिल्ली जाने का मकसद हर कोई जानना चाहता था . हर आदमी जानना चाहता था कि कहीं हम भी शेख शादी ने ख़रीद तो नहीं लिए …?
और जब शेख शामी ने मुझे टम-टम पर साथ बिठाया था – तो लोगों की त्योरियां चढी थीं . उन्हें दाल में कुछ काला नज़र आया था ! शक तो मुझे भी हुआ था . पर मैं तो अब उन के साथ आ बैठा था . ‘अब जो हो सो हो !’ मैंने भी ठान ली थी . जाते-जाते मैंने महसूस था कि – जमा लोगों की आँखों में भी शक उभरे थे …उन के मन में मेरे लिए दुआएं तो थीं ….लेकिन मैं दूसरा ‘प्रेम’ कहीं खान न बन जाऊं – ये डर भी था ! उन्हें दहशत थी कि …मैं भी लौटूंगा ….हिन्दूओं पर कहर धाने के लिए ….और सिकंदर लोधी के साम्राज्य का विस्तार करने के लिए ….
यही सब तो हो रहा था ….!!
टम-टम भागने लगी थी . हवा का एक झोंका आया था …और उस ने मुझे छू कर निहाल कर दिया था . पीछे छूटते पेड़-पौधे अचानक आ -आ कर मुझ से बतियाने लगे थे . मुझे टम-टम की सवारी बहुत ही अच्छी और आरामदेह लगी थी . लगा था – मेरा ओहदा बढ़ा था …..और शेख शामी के साथ टम-टम में बैठ कर मैं बहुत बड़ा हो गया था !
“ऊंट की सवारी …..?” प्रश्न अचानक आया था . “वो ऊंट ….तुम्हारा मित्र ….जो तुम्हें मन-मीत से मिलाने ले गया था ….! सब भूल गए ….?”
“नहीं, रे ! उसे कैसे भूल जाऊँगा ….? मेरा जीवन-आधार तो वही है ! देख लेना …मैं बदलूँगा नहीं . चाहे जित्ते प्रलोभन आएं ….मैं भटकूँगा नहीं .” मैंने एक प्रण जैसा लिया था . लगा था – केसर की ढाणी जा कर ही मेरा दूसरा जन्म हुआ था ….और केसर ने ही मुझे लड़ने का पहला सबक सिखाया था !
टम-टम को दो घोड़े खींच रहे थे . आगे की फड पर कोचवान बैठा था . वह अपने लंबे हंटर की मदद से घोड़ों को हांक रहा था . घोड़ों की रास उस के हाथों में थी . वह रासों के ज़रिए ही घोड़ों को आदेश दे रहा था ….और घोड़े भी उस के दिए आदेश समझ रहे थे और अमल में ला रहे थे ! बड़ी ही हम्मार गति से वो दोनों घोड़े टम-टम को खींचते ही चले जा रहे थे !
टम-टम के पीछे एक नंगा भाला लिए बड़ी-बड़ी मूंछो वाला लम्बे कद-काठ का आदमी खड़ा था . शायद वो शेख शामी की सुरक्षा के लिए नियुक्त था ? शेख शामी पर अगर कोई खतरा आए तो वो उस से भिड़ जाए . उस की आँखें चंचल थीं . वह निगह्दारी करता चल रहा था . खतरा तलाशता वह चौकन्ना था . टम-टम के दायें -बाएं दो आदमी और थे -जो पैदल चल रहे थे . उन का काम भी टम-टम की सुरक्षा करना ही था . एक आदमी हमारे बिलकुल सामने बैठा था . शायद वह टहलुआ था ! उस ने जब शेख शामी को चांदी के गिलास में डाल कर पानी पिलाया था – तो मैं उसे पहचान गया था . उस ने मुझे भी पानी के लिए पूछा था …पर मैं नांट गया था !
अगले पड़ाव पर मैंने देखा था कि लोग शेख शामी के स्वागत में पहले से ही जामा थे !
उस टहलुए ने एक छोटी सीढ़ी को उतार कर टम-टम के साथ रख दिया था . शेख शामी उस सीढ़ी पर पैर रख कर आराम से नीचे उतरे थे . लोगों ने मिला-भेट की थी . कुछ तोहफे भी भेंट किए थे . शेख शामी ने उन लोगों को मेरा भी परिचय दिया था . लोगों ने फिर मुझे शकिया निगाहों से घूरा था ! जल-पान के बाद हमने विदा ली थी .
शेख शामी के टम-टम पर चढ़ते ही टहलुए ने सीढ़ी उठा कर टम-टम में रख दी थी . अब उस ने मेरी और मुड कर देखा था . मैं उछला था और शेख शामी के साथ जा बैठा था . शेख शामी का चेहरा गुलाबों-सा खिल गया था . उन्हें अच्छा लगा था !
“माशा अल्ला …!” वो अनायास ही बोल उठे थे . “ये ज़वानी भी क्या चीज़ होती है ….?” उन्होंने अपने दोनों हाथों को पसार मेरी प्रशंशा की थी . “आदमी न पहाड़ को देखता है …न नदी को !” उन का कथन था .
पर मुझे तव न पहाड़ का ज्ञान था ….और न ही नदी का ! पर हाँ, ज़वानी के जोश को मैं ज़रूर झेल रहा था !
शाम ढलने को जा रही थी …..पर अभी तक दिल्ली की कोई खोज-खबर न थी !
अचानक ही हम एक मोड़ काट कर कल्लू की सराय में विश्राम करने घुस गए थे . मैंने पहली बार ही किसी सराय को देखा था . अच्छे और उम्दा मकान बने थे . सामने के विशाल दरवाजे के पीछे एक बहुत बड़ा अहाता था – जहाँ घोड़े -गाड़ियाँ और टम-टम आ कर रुकते थे . यहीं पर आगंतुकों का स्वागत-सम्मान होता था ….और उन के लिए व्यवस्था क्या होगी …इस की भी जानकारी मिल जाती थी . सराय का मालिक कल्लू स्वयं शेख शामी के स्वागत में हाज़िर हुआ था . बड़े ही अदब से वो उन्हें एक महल नुमा इमारत में ले गया था . मुझे भी एक दो कमरों का ठिकाना बताया गया था …और मैं भी वहां जा पहुंचा था . टम-टम और बाकी लोगों के लिए ठिकाना अलग था !
आकर्षक द्रश्य था – सराय का ….!!
मैंने देखा था कि वहां ….बहुत सारे लोग आ-जा रहे थे ….और वो सराय में ठहरे भी थे . उन सब को देख कर मैंने अनुमान लगाया था ….कि यहाँ दूर-दराज़ के लोग आ कर ठिकाना पाते हैं …और अपना -अपना कारोबार करते हैं . यहाँ सब का स्वागत था ….सब के लिए सेवाएं उपलब्ध थीं ….और सब के मनोनुकूल सब था !
“क्या खाना पसंद करेंगे , कुंवर सहाव …..?” मेरे सामने खड़ा कल्लू मंद-मंद मुस्करा रहा था .
“कुछ भी ….!” मैंने हिचकते हुए कहा था . आज पहली बार किसी ने मुझे मेरी पसंद पूछी थी .
“मुर्ग-मुसल्लम चलेगा ….?” उस ने मज़ाक के तौर पर पूछा था . वह जानता था कि में हिन्दू था ….और मांस नहीं खाता था .
“अरे, नहीं !” मैंने भी सहजता से कहा था . “जो दाल-भात हो ….सो ही चलेगा …!” मैंने उत्तर दिया था .
कल्लू हंसा था ….और चला गया था !
“ये कल्लू का साम्राज्य है ! इसे कल्लू ने पैदा किया है ! इसे कल्लू ही चलाता है !” मेरा दिमाग मुझे बताने लगा था . “यही है – किसी भी साम्राज्य की परिभाषा !!” मैंने मान लिया था . “यहाँ सब का स्वागत है ….सब के लिए सब कुछ है …..सब प्रसन्न हैं …..सब अपने-अपने कारोबार में व्यस्त हैं …..और कल्लू सब की सेवा में खड़ा है !!”
“अब दिल्ली दूर नहीं ….!” सुबह सराय से निकलते वक्त शेख शामी ने कहा था . “बस , दो पहर तक लग लेंगे ….!!”
मुझे उन पलों में शेख शामी मेरे लिए दुआएं मांगता कोई दरवेश ही लगा था ! और लगा था कि वह मुझे बता रहा था कि ….मेरा सपना अब मुझ से ज्यादा दूर न था !! और वह कह रहा था कि में देर से नहीं ….सवेर से ही दिल्ली को पा लूँगा !!
और अब में भी दिल्ली को ही खुली आँखों देखने के लिए लालायित था !!
…………………..
श्रेष्ट साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!