कम-जात 

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राजन सोते-सोते बमक पड़ा था. वह एक भयंकर स्वप्न देख कर जागा था. पारुल उस के गले से चिपक चीखें मार रही थी ….उसे …उसे ..

“मार देती ….मुझे ….!” राजन कमरे से बाहर था. “अरे , कहाँ हो ….!” उस ने सावित्री को पुकारा था. “म…म…मैं …!” राजन को पसीने आ रहे थे.

“क्या हुआ ….?” सावित्री बगीचे में थी. उस ने खनकते स्वर में पूछा था. वह प्रसन्न थी कि आज राजन उस के पास था. वह आज अकेली न थी. “क्यों शोर डाला है …?” वह लौटी थी. “आदत कहाँ जाएगी ….!” सावित्री मुस्कराई थी.

लेकिन राजन का सूजा चेहरा देख वह दंग रह गई थी. उसे एक अनिष्ट के दर्शन हुए थे. उसे लगा था – राजन ज़मीन छोड़ता जा रहा था. राजन ….

“मार देती ….मुझे ….” राजन अब भी हक्का-बक्का था.

“कौन ….? कौन मार देती ….?” सावित्री ने हडबडा कर पूछा था.

“पा -रु-ल …….!” राजन ने कठिनाई से कहा था.

“पागल हो गए हो …..?”

“हाँ …! मैं …..मैं …..पागल ……!” गला रुंध आया था – राजन का .

“चलो ! बगीचे में बैठते हैं !” सावित्री ने उसे बांह से पकड़ा था. “खुली हवा में ….दिमाग ठंडा हो जाएगा . शराब का भवका भरा है .” सावित्री का अनुमान था.

आराम कुर्सी पर टाँगे फैलाए राजन इस तरह पसर गया था -मानो जंग हार कर आया कोई जनरल …..अभी भी अपनी भूल स्वीकार नहीं करना चाहता था. सामने कत्थई रंग में डूबा कलकत्ता शहर उसे आज अजीव लगा था. लगा था – शहर नहीं ….वहां खंडहर थे . खिदिरपुर डांक …से लाशें ढोते पानी के जहाज़ ….उस से कहीं भाग जाने को कह रहे थे.

“चाय ….!” कठिनाई से राजन ने कहा था. “वो ….इलाइची वाली चाय …..!” वह तनिक मुडा  था. “पिलाओगी …वो …चाय …?” उस ने आग्रह किया था.

सावित्री को होश लौटा था. उसे प्रसन्नता हुई थी. उस का शक शांत हो गया था. वह जान गई थी कि  …राजन ठीक था.

“क्यों नहीं ……!” सावित्री मुस्कराई थी. “तुम्हें …..इलाइची वाली चाय ….याद है ……?”

“कहाँ भूला हूँ – उस की मंहक …!” राजन ने सावित्री को निहारा था. “लेकिन …..वक्त ….बईमान ने ….नंगा कर दिया , मुझे !” वह टीस आया था. “आदमी …..साला …..सूअर होता है ….!” राजन तड़का था.

“आओ …! चाय बनाते हैं …!!” सावित्री ने पहले दिनों जैसा सुझाव दिया था.

“हाँ, हाँ …..!ये ही ठीक रहेगा …!! चलो ….!!!” राजन उठ खड़ा हुआ था. “कित्ते दिन …गए ….!” उस ने निगाहें पसार कर सावित्री के पूरे परिवेश को घूरा था. “मैं …..भूल ही गया था ……सावो ….”

“पर मैं नहीं ……भूल पाई ….., राजू !” सावित्री गंभीर थी. “लाख कोशिशों के बाद भी ……मैं ……..!” सावित्री की आवाज़ में रुलाई टूट आई थी. न जाने क्यों अचानक वह भावुक हो आई थी.

राजन चुप था. राजन की निगाहें ….कहीं दूर दिगंत में ….कुछ खोजने लगीं थीं. चाय की आती मंहक ने उसे तनिक जगाया था. …सचेत किया था.

“बहुत आनंद आता है ….तुम्हारी ….बनाई चाय में ….!” राजन ने चाय की चुस्की ली  थी. “पर …अब तो …नसीब ही नहीं होती …..!”

“नसीबों का ही तो खेल है ….!” सावित्री ने उल्हाना दिया था.

“हाँ ! खेल तो , नसीबों का ही है !” राजन ने स्वीकारा था. “चलो …! फिर से खेलते हैं …..इस नसीबों के खेल को ….!”

“कैसे ….?”

“बाहर चलते हैं .” राजन का प्रस्ताव था. “वहीँ ….! डायमंड हारबर …..तुम्हारा प्रिय …डायमंड हारबर …जहाँ तुमने …..अपनी पहली कविता लिखी थी ….!” राजन ने सावित्री की आँखों में देखा था.

“याद है ….तुम्हें …..कविता ….?”

“याद तो नहीं है ……पर …कुछ इस तरह के बोल थे कि …..”

“बस, बस !” सावित्री हंसी थी.

“फिर सही …..!” राजन ने आग्रह किया था.

“फिर सही …..!” सावित्री ने स्वीकार था.

कार सावित्री चला रही थी. राजन की नीद खुली थी – अब आ कर. वह महसूस रहा था – कि सावित्री के किरदार में जो कशिश थी ….वो पारुल में …न थी. सावित्री – एक शाश्वत शक्ति स्रोत का नाम था …..तो पारुल …डुबो देने वाला समुद्र थी. पारुल -पागल बनाने वाला एक नशा थी ….जबकि सावित्री जीवन दान देती ….संजीवनी थी !

“लाइट हाउस पर बैठेंगे …!” सावित्री का सुझाव था.

“नहीं ! पुराने किले – में आज गुम हो जाएंगे  !” राजन ने कहा था. “याद है ….जब हम दोनों ….?”

“याद है ! घंटों …..घूमने के बाद भी ….रास्ता न खोज पाए थे …!”

“और आज …..रास्ता खोजेंगे ….ही नहीं ! …किले में ही दफन हो जाएंगे ….! कभी भी बाहर न निकालेंगे …..इस काली दुनियां का मूं देखने !”

सावित्री ने राजन को गौर से देखा था. वह अब भी आहत था. चोट खाया सिपाही था …..घाव खा गया शेर था. वह किसी भी कीमत पर अपनी हार को स्वीकारना नहीं चाहता था. सावित्री से वह रिसते घावों पर पट्टी बांधने का आग्रह कर रहा था.

लेकिन क्यों ….?

“क्या एहसान किया है राजन ने तुम पर जो …..वह तुम से अपेक्षा कर रहा है कि …..?” सावित्री का अंतर आज दरक गया था. उस का धीरज  टूट गया था. उसे पहली बार राजन पर प्रश्न चिन्ह लगाना अच्छा लगा था.

न जाने कैसे सेठ धन्ना मल की आवाजें वह सुनने लगी थी.

“जात का न पांत का …..!” उन का स्वर ऊँचा था. “कुल का न गोत  का …..कौन है ये राजन , बताओ …?” उन्होंने सावित्री को पूछा था. “क्या है ….कहाँ से आया है …..उस के माँ -बाप ….उस का ….”

“ये बेतुके प्रश्न हैं.” सावित्री बिगड़ी थी. “आदमी का करम-धरम देखा जाता है …..साहस और पुरूषार्थ की पहचान की जाती है. यों तो …”

“गीता भी गलत सोचती है …..?” उन का अगला सवाल था. “वह तो तुम्हारी माँ है …जननी है ….वो ….”

पता नहीं ….कैसे और क्यों सावित्री के मन ने ….उस के अंतर ने किसी भी सच को नहीं स्वीकार था. राजन का स्वत्व उस के ऊपर पूरी तरह से छा गया था. उसे सोते-जागते ….उठते – बैठते …..राजन के सिवा और कोई स्वप्न आता  ही न था. उस का वश चलता तो ….वो ….

“मेरा वश चलता तो …तो …मैं …..पारुल को ……..”

“वह किसी की विधवा है !” सावित्य्री ने राजन को टोका था. “वो लोग ….राजे-रजवाड़े हैं ….!”

“सो व्हाट …?” राजन गरजा था. “मैं …मैं……”

“शादी करोगे …..पारुल ….से ….?”

“करूंगा ……!” राजन ने बे रोक-टोक कहा था. वह भूल ही गया था कि सावित्री – उस की पत्नी …उस के साथ बैठी गाड़ी चला रही थी.

“कम जात है ……ये …राजन …!” सेठ धन्ना मल के स्वर फिर से गूंजे थे. “ऐसे लोगों का कोई दीन -ईमान  …..नहीं होता …, बिट्टो !”

सावित्री की आँखें सजल हो आई थीं. पहली बार वह अपने किए पर पश्चाताप कर रही थी. पहली बार उसे राजन के भीतर बैठा कोई ‘कम-जात’ पुरुष दिखाई दिया था. पहली बार राजन ने सूरज से मुकाबला हारा था.

होटल, सागर -संगम …उन दोनों का चहेता भ्रमण केंद्र था. वहीँ …उस के स्विमिंग पूल पर बैठ कर …घंटो तक वह आइसक्रीम खाते ….गोते लगाते …और गप्पें लड़ाते थे. आज वहां ….अप्रत्याशित भीड़ थी. सावित्री का मन तो वैसे भी खट्टा हो गया था. घास पर पड़ी कुर्सियों पर बैठे वो दोनों दृश्य का जायजा ले रहे थे.

“देखा ! इन के तीन बच्चे हैं . हम भी सोचा करते थे कि …हमारे तीन बच्चे होंगे …एक बेटी और दो बेटे ….!” राजन का स्वर गंभीर था. “लेकिन ….?” उस की द्रष्टि घूमी थी और सावित्री पर केन्द्रित हो गई थी. लगा था – वह सावित्री को ही मुजरिम करार दे रहा था.

“परमात्मा का खेल है, ये ….!” सावित्री ने संयत होते हुए कहा था. “मैंने तो खूब माँगा था ….खूब-खूब …..”

“क्यों नहीं दिया , उस ने ……?” राजन ने पहली बार प्रश्न पूछा था.

सावित्री चुप थी. वह चुप ही बनी रही थी. वह जानती थी कि आज राजन ….उसे ज़लील करना चाहता था ….वह चाहता था कि ….किसी भी कीमत पर वह उसे …पारुल ला कर दे-दे !

“बच्चे तो पारुल के भी नहीं हैं …..!” सावित्री एक लम्बे सोच के बाद बोली थी.

“हो जाएंगे …” राजन का उत्तर था. जैसे वह यह सब सोचे बैठा था ….सावित्री को लगा था.

“मैं…..पहला बेटा गोद ले लूंगी …..!” सावित्री ने बात मोडी थी.

“क्यों …..?”

“तुम पर और पारुल पर …मेरा हक़ होगा !” सावित्री विहंसी थी. “अरे, भाई ! तुम मेरे हो ….फिर तुम्हारा बेटा …..?” सावित्री ने राजन की आँखों में देखा था.

“चलो, चलते हैं !” राजन उठ खड़ा हुआ था. “ये साली जगा तो बकबास …हो चुकी है !” उस ने लोगों के जमघट को देख कर कोसा था.

शाम ढल चुकी थी. रात का पहला पहर था. राजन की आँखें कलकत्ता शहर की बत्तियां गिन रहीं थीं. उस की समझ काम न कर रही थी.

“मुझे …क्लब छोडती जाओ ….!” राजन ने आग्रह किया था.

जैसे ही सावित्री ने गाडी मोडी थी वह फिर से  बोला था.  “अरे नहीं ! मुझे तुम गेस्ट हाउस छोड़ दो ….!” सावित्री फिर से गाडी मोड़ने लगी थी. “अरे, रे ….! नहीं, नहीं ….!” वह अनमना हो कर बोला था. “गाड़ी रोक दो ….!!” उस ने आदेश दिया था.

सावित्री ने भी गाडी बीच सड़क पर ही रोक दी थी.

राजन गाडी से उतर कर चला गया था….!!

 

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