प्रतिष्ठा ने पहली बार पहाड़ देखे थे। उसका मन एक अनोखी भव्यता से भर गया था।
वह भागी थी – पहाड़ों की कमर पर। वह डोली थी – बर्फ की ऊंची श्वेत धवल श्रेणियों पर। उसने जी भर कर पहाड़ों की पवित्र बयार को पिया था। उसकी निगाहें पहाड़ी सिलसिलों में जा धसी थीं। वह किसी हाल में भी बंबई लौटना न चाहती थी।
प्रतिष्ठा आपा भूल पहाड़ों के उन दैवीय प्रसारों में खो गई थी।
“कैसा लग रहा है?” मानस ने उसे टहोक कर पूछा था।
जैसे प्रतिष्ठा की नींद खुली हो – उसने नई निगाहों से मानस को देखा था। उसे लगा था जैसे मानस उसे बहका कर बंबई से उड़ा लाया था और अब …
“मन है कि तुम्हें ले कर इन पहाड़ों के पार उड़ जाऊं।” प्रतिष्ठा ने विमुग्ध भाव से कहा था।
“रोका किसने है?” मानस ने भी पूछ लिया था।
“तुमने।” प्रतिष्ठा ने विहंस कर मानस के कंधे पर सर रख दिया था। “तुम जादूगर हो मानस।” वह कह रही थी। “तुमने मुझे सच में बहका लिया है।”
“और तुम जैसे निर्दोष हो?” मानस भी माना नहीं था – पूछ लिया था।
प्रतिष्ठा चुप थी। मानस ने ठीक पूछा था। डोरे तो उसने भी डाले थे – मानस पर। उसने भी भरसक प्रयत्न किए थे – मानस को पाने में। मानस फिल्म प्रोड्यूसर था। मानस एक नाम था। मानस यारों का यार था। पहली मुलाकात में ही उसका मन मानस का हो गया था।
“काम चाहिए।” प्रतिष्ठा ने मारक अदा के साथ मानस से आग्रह किया था।
“पहले कुछ किया है?” मानस ने भी निगाहें प्रतिष्ठा पर निसार करते हुए पूछा था।
“नहीं।” प्रतिष्ठा ने सीधा-सीधा बयान किया था।
दोनों एक दूसरे को लंबे पलों देखते रहे थे।
“हुस्न परी बनाने के लिए – हुस्न परी पहुंच गई है।” मानस का दिमाग बोला था। “डॉन्ट मिस द चांस।” उसे चेतावनी मिली थी। “कोरा माल है। चल गया तो …”
“ऑन ट्रायल?” मानस सोच समझ कर बोला था। “चलेगा?” उसने पूछ लिया था।
“चलेगा।” प्रतिष्ठा ने सलज्ज निगाहों से मानस को धन्यवाद बोला था।
उस पल के बाद ही दोनों कभी जुदा न हुए थे। एक दूसरे के हो कर जीते थे। एक जान – एक प्राण हो कर ही साथ-साथ काम करना चाहते थे।
“मनाली में अब बहुत भीड़ रहने लगी है।” मानस बताने लगा था। “कभी यहां अनमोल एकांत था। इतनी शांति थी डार्लिंग कि मन तपस्या करने को करता था। लेकिन अब …”
“फिल्म बनाओ।” प्रतिष्ठा ने व्यंग किया था।
“चलती हो लंदन?” मानस ने भी प्रतिष्ठा को याद दिलाया था।
प्रतिष्ठा यथार्थ में लौटी थी। उसे बाबूजी का गुस्सैल और गंभीर चेहरा दिख गया था। वह जानती थी कि बाबूजी कभी भी …
“बाबू जी …” प्रतिष्ठा बोल पड़ी थी।
“मां को मना लो।” मानस ने हंस कर कहा था।
“मां बाबूजी से ऊपर नहीं हैं।”
“हैं। होती हैं। तुम जानती नहीं मां चीज क्या होती है।”
“सीधी उंगलियों से घी निकलेगा नहीं मानस।” प्रतिष्ठा ने साफ इनकार किया था।
“चलो। मस्ती मारते हैं।” मानस ने विषयांतर किया था। “सोचते हैं। खोजते हैं कोई टेढ़ी उंगली। घी तो निकालना ही होगा – माई डियर।” मानस ने अपने मनसूबे बताए थे।
प्रतिष्ठा भी चाहती थी कि उसे हुस्न परी का लीड रोल मिले। अगर फिल्म हिट हुई तो फिर उसका रास्ता खुल जाएगा। लेकिन अभी तक तो गहन अंधकार ही था। निरी निराशा ही थी। कोई सूरत नजर न आ रही थी प्रतिष्ठा को। वह चाह रही थी कि मानस ही कोई जुगाड़ बिठाए तो बात बने।
“कुछ करो न मनी।” प्रतिष्ठा ने मानस को मनाया था। “मैं … मैं बिन तुम्हारे …?”
“सोचते हैं।” मानस ने वायदा किया था।
दोनों प्रेमियों को मनाली का जादू भी मोहित न कर पा रहा था। दोनों की जीवन डोर हुस्न परी फिल्म के साथ बंधी थी।
मरेंगे या जीएंगे उन दोनों प्रेमियों को अब कुछ पता न था।
सुबह-सुबह टेलीफोन की घंटी बजी थी तो सीता देवी बमक पड़ी थीं।
एक सप्ताह से प्रतिष्ठा घर से गायब थी। उन्हें आशंका हुई थी कि हो न हो उसी के बारे कोई सूचना हो। बहुत डरी हुई थीं सीता देवी। घर में टेंशन भरा हुआ था। विलोचन शास्त्री तीन दिन से सोए न थे। ज्वान जवान बेटी का यों अचानक घर से गायब हो जाना किसी हादसे से कम न था। कई बार मन हुआ था कि पुलिस में रिपोर्ट लिखवा दें। लेकिन बबलू ने रोक दिया था। चुनाव जो सर पर थे। अगर कुछ हुआ तो बदनामी होने का डर था।
सीता देवी ने डरते-डरते फोन उठाया था।
“हैलो मां।” फोन पर जब उन्होंने प्रतिष्ठा की आवाज सुनी थी तो रो ही पड़ी थीं। “हैलो मां। मैं प्रतिष्ठा बोल रही हूँ।” सीता देवी ने सुना था और दहाड़ें मार कर रो पड़ी थीं।
“तू … तू है कहां?” कठिनाई से बोल पाई थीं सीता देवी। “पागल हो गए हैं हम।” उन्होंने शिकायत की थी।
“मां। मेरी बात ध्यान से सुनो।” प्रतिष्ठा ने मानस की आंखों में आंखें डाल कर कहा था। “धीरज से काम लो मां!” उसने हिदायत दी थी। “बाबू जी कहां हैं?” प्रतिष्ठा का प्रश्न था।
“घूमने निकल गए हैं।” सीता देवी ने उत्तर दिया था। “सूख गए हैं … तेरे …”
“मां …!” प्रतिष्ठा ने हलका सा झिड़का था सीता देवी को। “अब मैं कोई दूध पीती बच्ची हूँ क्या?” उसने कड़क आवाज में पूछा था। “मुझे अब मेरा मरना जीना दिखता है मां।” प्रतिष्ठा का स्वर स्वस्थ था। “कैरियर नहीं बनाना मैंने?” प्रतिष्ठा ने समझाया था – सीता देवी को। “मौका मिल रहा है मां। विधू के पापा ने कोशिश की है। दो सीटें मिल रही हैं लंदन में। सोशल साइंस की डिग्री मिल जाएगी – एक साल में।” प्रतिष्ठा बता रही थी।
“तो क्या तू लंदन जा रही है?” बीच में बोल पड़ी थीं सीता देवी।
“हां मां। मैं और विधू परसों दिल्ली से फ्लाइट पकड़ लंदन जा रहे हैं।” सूचना दी थी प्रतिष्ठा ने। “पांच को जोइन करना है।” उसने बताया था। “और सुनो। पैसा विधू के पापा ने खर्च किया है। उनका एकाउंट नम्बर देती हूँ। बाबू जी से कह कर उनके एकाउंट में पैसा जमा करा देना प्लीज।” प्रतिष्ठा ने आग्रह किया था।
“तेरे बाबू जी …” सीता देवी का स्वर कांपा था।
“कमॉन मां। मेरे लिए इतना भी न करोगी?” प्रतिष्ठा ने उलाहना दिया था।
“बाबू जी को ..?”
“लंदन जा कर बात करूंगी। मैं मना लूंगी उन्हें।” प्रतिष्ठा ने मां को राजी कर लिया था।
टेलीफोन पटक प्रतिष्ठा मानस के गले से लिपट गई थी।
“आई लव यू मानस।” प्रतिष्ठा आज पहली बार मनाली आ कर चहकी थी।
“आई एडोर यू प्रतिष्ठा।” मानस ने भी प्रतिष्ठा को धरोहर की तरह बाँहों में समेट लिया था।
मनाली की मौज का जादू अब उन दोनों पर तारी था।
रंगीन सपनों को आंखों में सजाए दोनों पहाड़ों की सैर पर निकले थे। हाथ में हाथ लिए दोनों इस तरह विचरे थे मनाली के परिदृश्य पर मानो उन्होंने स्वर्ग को पा लिया हो। हुस्न परी फिल्म की बनने की संभावनाएं सच होती लग रही थीं। प्रतिष्ठा का तन मन हुस्न परी की प्रेम कहानी को कंसीव कर चुका था। उसे उम्मीद थी कि हुस्न परी बड़े पर्दे पर कोई बड़ा नाम कमाएगी … और … वो …
मानस भी अब अनुभव से जानता था कि प्रेम कहानी कभी पुरानी नहीं होती। जितनी बार आप प्रेम कहानी सुनाएंगे उतनी ही बार वह नई जिंदगी के साथ जीएगी।
मानस ने राधू रंगीला को मनाली से ही फाेन पर बता दिया था कि उनकी टीम लंदन जाने के लिए तैयार थी।
प्रतिष्ठा भी टीम के साथ अब लंदन जा रही थी।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड