चुनावों का भूत बंबई शहर पर बुखार की तरह चढ़ बैठा था।

वोटरों की पूछ होने लगी थी। उनकी सुख दुख की चिंता भावी चुनाव प्रत्याशियों को सताने लगी थी। उनकी जरूरतें भी अचानक प्रत्याशियों को याद आने लगी थीं। उन्हें क्या कुछ चाहिए था – उजाले की तरह आलोकित हो उठा था। अचानक ही भूली यादों की तरह पिछले किए चुनावी वायदे नेताओं और पार्टियों को याद आने लगे थे। अब इस बार फिर से वोटरों को मनाना था, पटाना था और बहकाना था। बिना वोट प्राप्त किए किसी की भी नैया पार न उतरनी थी।

“चाहे वोटों को कुएं में फेंक आएं पर इस बार मग्गू को वोट न देंगे।” मच्छी टोला के लोग कसमें खा रहे थे। “अपना ही पेट भरता है भाई।” लोगों की शिकायत थी। “बेटा फिल्में बनाता है और बाप होटल चलाता है। कोई साला मरे या जीए हमारे मग्गू मालिक तो बेखबर ही बने रहते हैं।” लोगों की जुबान पर मग् और उसके बेटे मानस की, की कारगुजारियां बढ़ चढ़ कर बोल रही थीं।

मग्गू और उसका बेटा मानस भी बेखबर न थे।

कल्लू का दिमाग एक जादूगर की तरह गोटें बिठाने में व्यस्त था। कुछ भी हो – इस बार भी मग्गू को चुनाव तो जिताना ही था। मग्गू दूध देने वाली गाय था और अगर विलोचन शास्त्री को वोट दिया जाए तो वो बेकार का आदमी था। न कुछ करेगा, न कुछ करने देगा। न कुछ खाएगा और न कुछ खाने देगा।

“विलोचन बाबू के पिता सुलोचन बाबू स्वतंत्रता सेनानी थे।” रामू पनवाड़ी लोगो को बताने समझाने में व्यस्त था। “आजादी लाए – जान पर खेलकर।” वह लोगों को बहकाता। “गांधी जी के सच्चे सहयोगी थे – बाबू जी। जेलें काटीं। अंग्रेजों के हंटर खाए। अवज्ञा आंदोलन चलाए। तभी तो मिली हमें आजादी।” रामू का स्वर गर्व में गर्क था। “इन्होंने क्या किया?” उसका इशारा मग्गू और उसके बेटे की ओर था। “अपनी कोठी बना ली। पांच सितारा होटल चल रहा है। बेटा फिल्में बना रहा है। कहां से आया पैसा?” रामू ने प्रश्न उठाए थे। “समाज अपना भला चाहता है तो विलोचन बाबू को ही चुनें इस बार। ये लोग खानदानी हैं – मोची मर्रे नहीं हैं।” रामू ने घाव देने वाला तीर अंत में छोड़ा था।

बबलू की चिंताएँ अलग थीं। उसके ऊपर पूरे चुनाव लड़ाने की जिम्मेदारी थी। वह न चाहता था कि इस बार मग्गू बाजी मार जाए और बाबूजी चुनाव हार जाएं। मग्गू ने लोगों के लिए कुछ नहीं किया था। लोग ज्यादा खुश न थे मग्गू से। उसके बेटे ने भी उसके लिए खूब बदनामी कमाई थी। मौका था – सुनहरी मौका जब मग्गू को पटखनी दी जा सकती थी।

बबलू पांच पंचों का डैलीगेशन ले कर मच्छी टोला के सरपंच बाबू भाई के पास पहुंचा था।

बाबू भाई बड़े ही अनुभवी आदमी थे। बबलू का हलीम सलीम जिस्म और मारा धाड़ा का किरदार निभाता हुलिया सरपंच बाबू भाई को सारे संदेशे एक बार में दे गया था। वह जानता था कि अगर विलोचन शास्त्री जीते तो राज बबलू का ही चलेगा। और वह जानता था कि सवर्णों का राज होना – क्या होना था। समाज के बीचों बीच खिंची दो पुश्तैनी रेखाएं बाबू भाई को साफ-साफ खिंची नजर आई थीं। फिर भी बबलू भाई का मान सम्मान रखना अपनी जगह था। उनके आदर सत्कार में बाबू भाई ने कोई कोर कसर उठा न रक्खी थी।

“आप जो कहेंगे वही होगा, मालिक।” बाबू भाई सरपंच ने विहंस कर बबलू को आश्वस्त किया था। “हम तो विलोचन बाबू के भक्त हैं।” उसने हंस कर बताया था। “देव पुरुष हैं – विलोचन बाबू। जीते तो समाज का कल्याण हो जाएगा।” बाबू भाई का मत था।

लेकिन बबलू भाई भी कोई अनाड़ी न था। वो भी बाबू भाई की बातों का अर्थ समझ रहा था।

लेकिन बबलू अपनी असमर्थता भी खूब जानता था। विलोचन शास्त्री किसी भी प्रकार की हिंसा, दंगा फसाद या मार पीट के हक में न थे। जमाना बदल चुका था। पुराना ढर्रा अब चलना नहीं था। खुशामद, खातिर और अर्ज आजिजि से ही काम होना था।

बबलू बेचैन था। बबलू उदास था। बबलू निराश था।

“हम भी इस साले स्वामी से पूछ लेते हैं, बबलू भाई कि चुनाव ..?” रामू पनवाड़ी ने ही सुझाव सामने रक्खा था।

“कुछ तो बकेगा ही साला।”

किंकर्तव्य विमूढ़ बबलू ने रामू पनवाड़ी की सलाह मान ली थी।

बबलू बेचैन था। उसका तो मन था कि जा कर मग्गू को जोरों से धमकाए और कहे – जो चुनाव लड़े तो … समझो के …। वो जमाने याद थे बबलू को जब उनकी मारी हलाल थी। ये मच्छी टोला के लोग उनके मातहत थे। उन्हीं का दिया खाते थे। उन्हीं का हुकुम बजाते थे। लेकिन आज की हवा का रुख मुख तो आसमान पर था।

मच्छी टोला के लोगों का मिजाज ही बदल गया था।

“स्वामी जी से चुनावी भविष्य पूछना तो …” विलोचन शास्त्री अटके थे। “ये लोग तो साधु हैं। इन्हें किसी चुनाव से क्या लेना देना?” उनका प्रश्न था।

“मग्गू का भविष्य है कि वो सी एम ही नहीं पी एम भी बनेगा।” रामू पनवाड़ी ने सूचना दी थी – शास्त्री जी को। “इसी स्वामी ने बताया है … कि”

“हर्ज क्या है भाई।” हंसे थे विलोचन शास्त्री। “ये सब तो होना है देश में।” उन्होंने भी समर्थन किया था। “यही सपना तो था – गांधी जी का।” उन्होंने याद दिलाया था। “चुनाव तो फ्री एंड फेयर ही होने चाहिए।”

“पूछने में क्या हर्ज है बाबू जी?” उदास हुए बबलू ने पूछा था। वह जानता था कि फ्री एंड फेयर चुनाव का आज के संदर्भ में मतलब क्या था।

“पूछ लो।” शास्त्री जी मान गए थे।

पांच आदमियों का डैलीगेशन ले कर बबलू स्वामी से विलोचन शास्त्री का चुनावी भविष्य पूछने होटल – माधव मानस इंटरनैशनल पहुंच गया था।

“आ गया शिकार।” बबलू को देखते ही कल्लू खुशी के मारे उछल पड़ा था। “इसी ने नहीं होने दी थी मेरी शादी। कितनी-कितनी रोई थी चुन्नी पर ये न पिघला था।” दांती भिच आई थी कल्लू की। “एक नाई के साथ किसी राय की लड़की का विवाह इसे गलत लगा था। गलत उदाहरण था – समाज के लिए।” कल्लू के अंदर तूफान उठ खड़ा हुआ था। “अब आएगा ऊंट पहाड़ के नीचे।” कल्लू मुसकुराया था।

बबलू को किसी ने घास नहीं डाली थी। वहां भीड़ के अंबार थे। मारा मारी थी। पैर रखने तक के लिए जगह न थी। दीवारों पर लगे पोस्टरों पर नए-नए नारे लिखे थे। बबलू की निगाहें स्वामी अनेकानंद के फोटो पर बड़ी देर तक फिक्स हो कर रह गई थीं। बड़ी ही दर्शनीय पिंडी थी स्वामी की। आंखों से बरसता तेज बबलू से सहा न गया था। उसे लगा था – हो न हो ये प्राणी कोई दिव्यात्मा ही हो।

“सुनिए।” बबलू ने अति व्यस्त राम लाल का ध्यान बांटा था। “विलोचन शास्त्री जी – पूर्व समाज पार्टी के अध्यक्ष का भविष्य …”

राम लाल ने खोजा निगाहों से बबलू को पहचाना था। कल्लू का कहा सच था। बबलू जमा भीड़ में अलग ही दिख रहा था।

“एक माह के बाद ही वक्त मिल पाएगा।” राम लाल ने रजिस्टर में झांक कर बबलू को समय दिया था।

“तब तक तो चुनाव हो गए होंगे महाशय।” बबलू तनिक तड़का था। उसे रोष चढ़ने लगा था। विलोचन शास्त्री के नाम का उस आदमी पर कोई प्रभाव होते न देख बबलू बुरी तरह से भड़क उठा था।

“देखिए सर।” राम लाल का स्वर विनम्र था। “सारे लोग वी आई पी और वी-वी आई पी हैं। उनसे ऊपर …?”

“सबसे ऊपर …” बबलू की आवाज में दम था। “वरना …”

“चलिए मान लेते हैं।” राम लाल तनिक सा हंसा था। “अनुदान …?”

“किस लिए?” बबलू ने पूछा था।

“आश्रम बना रहे हैं – स्वामी जी। जन कल्याण आश्रम। जो भी श्रद्धा हो …”

“2100 ले लीजिए।” बबलू ने अनुदान की रकम फौरन अदा की थी।

“मंगलवार – 19 तारीख – चार बजे, बुलाएं शास्त्री जी को।” राम लाल ने तुरंत घोषणा की थी।

बबलू को लगा था कि उसने चुनाव आज ही जीत लिया था।

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मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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