“पर मेरी समझ में तो कमाई करने की बात अभी तक नहीं आई है।” आनंद कहना चाहता था। और वह पूछना भी चाहता था कि वह कब और कैसे कमाएगा?
आनंद को पता था – पता ही नहीं एहसास था कि मां को पांच सौ रुपये राम लाल ने जो भिजवाए थे – वो उसके ऊपर कर्ज थे। और अभी तक उसकी कमाई का कोई जरिया न लगा था। कब कुछ कमाई होने लगेगी – क्या पता – आनंद सोचता रहा था।
“वह मेरा पहला दिन था जब मैंने बर्फी की बनाई चाय ग्राहकों को परोसी थी। और कभी कभार किसी ऑफिस से आए ऑडर पर मैं चाय देने गया था। मुझे बर्फी की मजदूरी करने में और पहले की मजदूरी करने में अलग फर्क नजर आया था। यहां जो मजदूरी मिलनी थी वो तो एक अलग ही वस्तु थी – अलौकिक थी – अमूल्य थी। बर्फी के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार था।
दौड़-दौड़ कर, भाग-भाग कर मैं पूरे दिन काम में जुटा रहता था ताकि बर्फी को कोई शिकायत का मौका न दिया जाए। अच्छी बिक्री हुई थी उस दिन। बर्फी का मन फूल सा खिल गया था। हम खुश-खुश झुग्गी में लौटे थे। झुग्गी के भीतर आते ही उस मध्यम प्रकाश में और उस अनोखे एकांत में मैंने बर्फी को बाँहों में भर लिया था।
“ये .. ये क्या?” बर्फी झूठ मूठ तिलमिलाई थी। “अरे रे। ये कैसे चलेगा?” वह यूं ही चीखती रही थी।
“तुम्हारी कमाई तो हो गई।” मैंने प्रसन्नता पूर्वक कहा था। “अब मैं भी तो कुछ कमा लूं?” मैंने पहली बार प्रेमाकुल कंठ से प्रेम संवाद बोला था।
बर्फी मेरे इस अनोखे पागलपन पर रीझ गई थी। उसने सहयोग दिया था और सहारा भी। उस दिन उसने मुझे कुछ बहुमूल्य बातें बताई थीं जिन्हें मैं जानता ही नहीं था। पर वो अपेक्षित थीं।
“अब से काम से काम।” बर्फी ने मुझे राय दी थी। “मैं कहां भाग रही हूँ जो तुम भागम भाग मचा रहे हो?” उसने पूछा था।
मैंने संयत होने की कोशिश की थी। बर्फी ने घर का काम संभाला था तो मैं उस झुग्गी की छोटी छत को देखता रहा था – पड़ा-पड़ा। उसने मुझे प्रेम से खिलाया पिलाया था। फिर बिस्तर तैयार किया था। झुग्गी का भी नाक नक्श ठीक किया था और तब हम फिर से एक साथ आ गए थे। बर्फी के कायदे कानून से मैंने उस रात को भोगा था और पाया था कि उसे जीवन जीना आता था – मुझे नहीं।
“मैं नहीं मानता।” आनंद ने राम लाल का विरोध किया था।
“लेकिन मैं मानता हूँ।” राम लाल ने जोर देकर कहा था। “बर्फी अगर मुझे न सिखाती तो शायद मैं जीना ही न सीख पाता, आनंद बाबू!”
आनंद चुप था। उसके पास औरत के विरुद्ध कोई ठोस सबूत न थे। उसने तो अभी तक अपनी मां को ही जाना पहचाना था। बाकी तो वो कोरा ही था। लेकिन बर्फी की बात और बर्फी का चरित्र उसके लिए जीवन को समझने के लिए किसी पहेली से कम न था।
“आ गया रिक्शा!” राम लाल हंसा था। “चलते हैं।” उसने कहा था और उठ गया था।
आनंद खड़ा ही रहा था। नीलू का डर उसके साथ ही खड़ा था। अंग्रेजी का अखबार भी उसके पास था। अन्यमनस्क वह आ कर रिक्शे में बैठ गया था। राम लाल और वह चाय की दुकान तक चुपचाप चले आए थे। आनंद अशांत था और उद्विग्न था।
“चलो भइया!” कल्लू ने आते ही रिक्शे में बैठ कर हांक लगाई थी।
“तुम रहने दो।” आनंद ने तनिक तेज आवाज में कहा था। “मैं चला जाऊंगा।” आनंद ने कल्लू से साथ न आने को कहा था। कल्लू रिक्शे से नीचे उतर आनंद को घूरता रहा था। “चलो भाई।” आनंद ने रिक्शे वाले को आदेश दिया था और चला गया था।
“मिल गया न प्रसाद?” हंसते-हंसते कदम ने कल्लू से पूछा था।
“चुप बे साले।” कल्लू ने बिगड़ कर कदम को गाली दी थी और राम लाल से शिकायत करने चला गया था।
“आइए-आइए आनंद बाबू।” नीलू ने आनंद का स्वागत किया था। “गुड मॉर्निंग।” नीलू ने उसे विश किया था – अंग्रेजी में।
“ग-ग-गुड मॉर्निंग।” आनंद ने हिचकोले ले कर गुड मॉर्निंग कहा था।
“यस। टैल मी द न्यूज?” नीलू ने सीधा ही प्रश्न दाग दिया था।
“.. न्यूज ..?” थूक सटका था आनंद ने। उसका दिमाग बिलकुल खाली था। कुछ भी – कोई भी अंग्रेजी का शब्द या वाक्य उसके जेहन में न था। लेकिन नीलू तो उत्तर मांग रही थी। अंग्रेजी को एक बार फिर कोसते हुए आनंद ने नीलू की आंखों में देखा था। “न्यूज ..?” उसने फिर से दोहराया था। “बर्फी!” अचानक ही आनंद कह उठा था। उसके दिमाग पर भी बर्फी ही आ बैठी थी।
“बर्फी ..?” नीलू ने पलट कर प्रश्न दागा था।
“यस-यस। बर्फी इज स्वीट।” आनंद ने हिम्मत करके अंग्रेजी में उत्तर दिया था।
“ओह यस।” नीलू प्रसन्नता से उछली थी। “बर्फी इज स्वीट।” उसने भी दोहराया था। “वैल डन आनंद बाबू।” वह कह रही थी। “वैल बिगन इज हाफ डन।” उसने तालियां बजाई थीं।
आनंद को न जाने क्यों एक नई आनंदानुभूति हुई थी – आज।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड