अंग्रेजी अखबार से सर मारना था या कि दीवारों में सर दे-दे कर मारना था – आनंद के लिए बराबर ही था।
छोटा-छोटा तो जब पढ़ता वह तब मोटा-मोटा पढ़ा जाता। फिर भी वह हर कोशिश कर रहा था। कुछ अक्षर उसने जबरदस्ती उखाड़ लिए थे और उन्हें जोर-जोर से बोल कर देख रहा था। उसे कहीं गहरे में नीलू का डर सता रहा था। उसने पूछना तो जरूर था। वह उसी की तैयारी में लगा था।
राम लाल को क्या दोष देता, वह खुद भी कुछ समझ न पा रहा था।
कैसा भ्रम जाल था ये अंग्रेजी का कि वह अपने हर रोज के मित्र फूल-पौधों से भी आज बतिया न पा रहा था। वह उसे शांत मुद्रा में अशांत हुआ डोलते देख रहे थे चुपचाप।
“अखबार पढ़ लिया हो तो आ जाइए, आनंद बाबू।” राम लाल प्रतिदिन की तरह कुर्सी पर आ कर बगीचे में बैठा था।
आनंद ने अपने हाथ में लगे अंग्रेजी अखबार की गुडी-मुडी कर उसे गर्दन से पकड़ा था और राम लाल के पास कुर्सी पर आ कर बैठ गया था। उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ी थीं। उसे यों बेहाल हुआ देख राम लाल हंस पड़ा था।
“इसी अंग्रेजी के डर से मैंने स्कूल छोड़ दिया था आनंद बाबू।” राम लाल बताने लगा था। “इतनी मार खाई थी – मास्टर से कि मैं फिर स्कूल ही नहीं लौटा।” राम लाल की आवाज में गहरा दुख था। “मेरा दुर्भाग्य था वो दिन और फिर मेरा सौभाग्य कभी नहीं लौटा।” वह आनंद को आंखों में घूर रहा था। “सीख लो इसे आनंद बाबू।” राम लाल का सच्चा आग्रह था।
“आप की बात नहीं टालूंगा राम लाल जी।” आनंद ने विनम्रता पूर्वक कहा था। “वरना तो मैं इस अंग्रेजी से नफरत करता हूँ। मुझे ये आज भी गुलामी की दी फांसी जैसी लगती है।” आनंद ने अपने भाव व्यक्त किए थे। “मैं .. मैं कहीं पागल न हो जाऊं ..”
“हो जाओ पागल आनंद बाबू!” राम लाल ताली पीट कर हंसा था। “पागलपन का भी एक अलग आनंद होता है।”
“आप हुए पागल कभी?” आनंद ने राम लाल से चिढ़ कर पूछा था।
“हां-हां। हुआ था पागल मैं भी।” राम लाल मुक्त भाव से हंस रहा था। “सच कहूं आनंद बाबू मुझे वो पागलपन आज भी अच्छा लगता है। बर्फी के लिए पागल हुआ मैं ..” राम लाल अपने अतीत में झांक गोते खा रहा था .. आनंद सागर में तिरोहित था .. प्रसन्न था। “अपलक मैं बर्फी को देखता ही रहता था।” राम लाल बता रहा था। “जैसे मैंने कोई औरत कभी देखी ही न थी – मुझे ऐसा लगा था और लगा था कि मैं न जाने कहां और क्यों अब तक जंगल जहानों में डोलता रहा, जबकि जिंदगी तो बर्फी के साथ आ बैठी थी। बर्फी नहीं – वो एक अजूबा विश्व थी – अपने में संपूर्ण थी और उसके पास जो खजाने थे – बेजोड़ थे – बेशकीमती थे। मात्र उनका स्पर्श ही मुझे तूफानों से भर देता। मात्र बर्फी की मधुर मुसकान मुझ में प्रसन्नता के प्रसार जगा जाती। उसका एक आग्रह मुझे न जाने कैसी दौड़ भाग से भर देता कि मैं ..”
“मैं .. मैं तो औरत को समझ ही नहीं पाता।” आनंद ने अनाड़ियों जैसी बात कही थी।
“मैं भी तो आज तक नहीं समझता कि ..” राम लाल फिर से हंसा था। “उस रात के बाद .. उस पहली हुई सुबह को जानते हो मैंने क्या किया था, आनंद बाबू?” राम लाल पूछने लगा था। “मैंने .. जो मेरे पास रुपये पैसे थे सब बर्फी को संभलवा दिए थे।”
“मुझे क्यों दे रहे हो?” बर्फी ने पूछा था।
“रख लो।” मैंने सीधे स्वभाव में कहा था। और मैं भूल ही गया था अपने उस हक को। बर्फी की आंखों में मेरे लिए जो भाव उगे थे मैंने उन्हें समझ लिया था।
“मैं कैसी लगती हूँ ..?” बर्फी का प्रश्न था। मैंने उसे फिर से देखा था। उसने अपनी आंखों के उस पार एक बारीक सुरमे की रेखा खींच ली थी। ये शायद उसने मेरे सम्मान में किया था .. मेरे स्वीकार में किया था और मेरे लिए किया था। लेकिन मैं – अनाड़ी .. पागल कुछ समझ ही न पाया था।
“तुम ..?” मैं अटक ही गया था। क्या करता? मैं कोई कवि तो था नहीं जो उसके नाक नक्श का वर्णन करने बैठ जाता। न मुझे कुछ आता जाता था। “तुम मुझे बर्फी .. मीठी-मीठी बर्फी .. स्वादिष्ट बर्फी लगती हो।” मैं कह बैठा था।
और बर्फी हंसी थी .. तो हंसती ही रही थी।
“किसी से प्रेम नहीं किया ..?” फिर बर्फी ने मुझे सीधा सवाल पूछा था।
“नहीं।” मैंने आहिस्ता से उत्तर दिया था। “म .. मैं तो डरता ही रहा था।” मैंने लजा कर बर्फी को देखा था।
मेरा उत्तर पा कर बर्फी बहुत प्रसन्न दिखी थी। मैंने महसूसा था कि अभी-अभी बर्फी ने मुझे चाहा है .. स्वीकारा है और मन प्राण से अपनाया है। मैं प्रसन्न था। मुझे भी अब बर्फी से आगे और कुछ न चाहिए था।
“ये क्या ..?” चाय का प्याला देते-देते मैंने बर्फी का हाथ पकड़ लिया था। मैंने उसे फिर से आगोश में लेना चाहा था, मैं अब फिर चाह रहा था कि बर्फी के स्वीकार को समेट लूं।
“काम पर नहीं चलना?” बर्फी का स्वर तनिक कठोर था। “कमाएंगे नहीं तो खाएंगे क्या?” उसने पूछा था।
कमाई करना क्यों आवश्यक था – ये बात भी आज ही मेरी समझ में आई थी।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड