फुरसत में आते ही वह झूठे गिलास धोने लगी थी।

मैं उसे टकटकी लगा कर देख रहा था। उसे भी भान था कि मेरा ध्यान उसी पर लगा था। लेकिन वो बेखबर बनने का नाटक कर रही थी। मैंने पाया था कि वह सुंदर थी .. बहुत ही सुंदर थी। यह मेरे जीवन का पहला अवसर था जब मैंने किसी औरत के बारे सोचना आरंभ किया था। चूंकि वो विधवा थी – उसके हाथ नंगे थे और माथा सूना था। लेकिन कहीं किसी कोने में उसकी सारी की सारी यातनाएं धधक रही थीं – जिंदा थीं।

“और एक चाय दूं?” उसने काम निबटा कर पूछा था।

“हां। हां-हां। एक कप चाय और ..” मैंने आदेश दिया था। मैं डरा नहीं था – क्योंकि पैसे मेरे पास खूब थे।

“नाम क्या है तुम्हारा?” मैंने बड़े ही मोहक लहजे में उसे पूछा था।

अब आ कर वह तनिक लजा गई थी। उसकी पलकें जैसे समूची नारी जाति की लज्जा का सम्मान कर रही थीं। उसके होंठ हिले थे। उसकी मीठी जुबान ने उसका नाम उगला था।

“बर्फी!” कहते-कहते वो दोहरी हो गई थी।

“तभी इतनी मीठी हो ..?” मैंने खुल कर मजाक किया था। “जुबान मीठी .. बोल मीठे और .. और हां – चाय मीठी!” मैं हंसा था।

वह भी खिलखिला कर हंसी थी और चांदनी सी बिखर गई थी।

यह मेरा पहला ही अनुभव था। अब तक मैं किसी औरत से अकेले में बोला तक न था। लेकिन आज मेरा मन उठने को कह ही न रहा था। कह रहा था – बर्फी के साथ-साथ ही रह बर्फी का हो जा। बर्फी अकेली है .. विधवा है .. असहाय है और तू भी तो सड़क पर खड़ा है। बैठ जा बर्फी के साथ?

“कहां रहते हो?” बर्फी ने मुझे बेझिझक पूछा था।

“यूं ही – कहीं सड़क पर सो रहता हूँ।” मैंने साफ-साफ कहा था।

अब मेरा मन हुआ था कि मैं उठ जाऊं। चल पडूं। कहीं भी चला जाऊं। और अपनी मंजिल की ओर कदम बढ़ाऊं – एक-दो-तीन, दिन अभी बाकी था। सूरज डूबा था। मैं कहीं भी जा सकता था।

“कहीं मत जाओ राम लाल।” किसी ने मुझे चेताया था। “तुम पहुंच गए अपनी मंजिल पर।” एक निर्णय था जिसे में सुन रहा था।

“रह लो, रात।” बर्फी बोली थी। हे भगवान! कितना मधुर, ग्राह्य और आदरणीय आग्रह था वह। मैं डोल गया था। मेरा मन बिछल गया था। मेरी निगाहें बर्फी से जा चिपकी थीं। बर्फी भी अब मेरी आंखों में कोई सरोकार खोज रही थी। “अकेली जान हूँ।” बर्फी की मधुर आवाज संगीत की तरह मुझे तरंगित करने लगी थी। “रात को डर लगता है।” बर्फी ने कहा था। “नींद नहीं आती लेकिन ..”

“चलो। समेट लो चाय का टाट कमंडल।” मैंने अचानक आदेश दिया था। “चलते हैं।” अब मैंने आग्रह किया था।

हम सामान सट्टा समेट कर बर्फी की झुग्गी में चले आए थे।

मैं झुग्गी में धंस गया था। अनूठा एकांत मिला था मुझे। लगा था जैसे मैं समूचे संसार से मुक्त हुआ था और बेधड़क इस झुग्गी में आ बसा था। एक छोटा बिजली का बल्ब रोशनी भरे था। मुझे उस झुग्गी के रख रखाव से लगा कि बर्फी बेहद सुघड़ औरत थी। उसने तो अपनी एक अनगढ़ी जन्नत को जन्म दे रक्खा था। सब कुछ निज का तिज धरा था और सब कुछ वहां था – जो जरूरत का था। मेरी आत्मा ने वहां का सब स्वीकार कर लिया था।

“बहुत भूख लगी है।” मैं कह उठा था।

“अभी लो। मिनटों में तैयार हुआ मानो।” चहकी थी बर्फी।

“और आप सच मानिए आनंद बाबू कि मैंने बर्फी के हाथ का बना वो खाना जो उसने मुझे अपने हाथों खिलाया था .. आज तक ..” राम लाल फिर से चुप था।

आनंद ने आंख उठा कर देखा था।

रिक्शा आ गया था। जाने का वक्त हो चला था।

“लाइए!” राम लाल ने झट से आनंद के हाथ में लगा पांच सौ का नोट झटक लिया था। “मैं कल कल्लू को भेज दूंगा। आप उसे मां का पता ठिकाना लिख कर दे देना। मनी ऑडर वो करके आ जाएगा।” राम लाल बताता रहा था। “चलते हैं।” वह बंगले में अंदर समा गया था।

आसमान को देखता रहा था आनंद – कई पलों तक।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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