बसंत को लेने वसुंधरा सांताक्रूज हवाई अड्डे पर स्वयं आई है। बसंत की लग्जरी कार में बैठी वसुंधरा गहरे सोच में डूबी है। उसकी आंखों में अजब सी बेचैनी भरी है।
फ्लाइट वन टू फोर पहुंच रही है। वसुंधरा भीमकाय जम्बोजैट को हवाई पट्टी पर उतरते देख रही है। जहाज सामने आ कर रुका है। एक दौड़ भाग से भरा स्टाफ और सामान ढ़ोने की गाड़ियां जहाज के आस पास नाचने सी लगी हैं।
वसुंधरा को बसंत दिख जाता है। लगता है दूर देश से सपनों का कोई राजकुमार उसकी इच्छा के छोर में बंधा चला आ रहा है। पलांश के लिए वसुंधरा आपा भूल जाती है। सम्मोहित करते बसंत से भाग-भाग कर आती पुरुष गंध उसे आत्म विस्मृति के आंचल में झोंक देती है।
“हैलो वसु।” बसंत लपक कर हाथ मिलाता है। “तुम लेने आई हो, मुझे बेहद अच्छा लग रहा है।” वह हर्षित कंठ से कह रहा है। “अकेला इंसान तो चाहे कुछ भी हो – कुछ नहीं होता।”
“अब ज्यादा दिन अकेले नहीं रहोगे।” वसुंधरा पलकें झुका कर कहती है।
बसंत उसे लंबे लमहों तक देखता है। आधुनिक परिधान में सजी संवरी वसुंधरा की आकर्षक छवि बसंत को बहुत भली लग रही है। वह जिसे चाहता है बिलकुल वही उसे सामने खड़ी दिखाई देती है। उसे एक पल विश्वास हो जाता है कि वसुंधरा को विधाता ने उसी के लिए बनाया है।
“चलें ..?” बसंत पूछता है।
“चलो।” वसुंधरा उसे बांह पकड़ कर आमंत्रित करती है।
बसंत गाड़ी में फैल फूट कर बैठा है। वसुंधरा गाड़ी चला रही है। बसंत बहुत खुश है। वसुंधरा तनिक सी गंभीर हो आई है।
“क्या सोच रही हो?” बसंत पूछता है।
“यही कि मामा जी ..”
“ओह। इसका मतलब है – वो आ गए ..।”
“जी हां।” वसुंधरा शर्म से दोहरी हो आती है। “हुक्म है कि एअर पोर्ट से सीधा मेरे पास ले आओ।”
“इतनी भी क्या जल्दी है यार।” बसंत हाथ हवा में फैलाते हुए कहता है। “पहले घर चलते हैं।” वह सुझाव रखता है। “मैं तुम्हारे लिए हांगकांग से बहुत कुछ लाया हूँ।” वह खुश हो कर कहता है। “पहले देख तो लो।” बसंत कार चलाती वसुंधरा के कंधे को छू देता है।
“उन्हें आज ही शाम को जाना है।” वसुंधरा संयत स्वर में बताती है।
“ठीक है, मिलते चलते हैं।” बसंत मान लेता है। “वसु।” वह विषयांतर करता है। “पहली बार कुछ खरीदना अच्छा लगा। जब भी बाजार गया मन हुआ तुम्हारे लिए कुछ खरीदूं। हर मोड़ पर, हर सड़क पर और हर चौराहे पर मुझे तुम ही खड़ी दिखाई दीं। न जाने ऐसा कैसे हो गया कि मैं अपने आप को पूरी तरह भूल गया और तुम्हीं याद आती रहीं।”
“हो जाता है।” वसुंधरा स्वीकार लेती है। “अपना पराया एकाकार हो जाने का नाम क्या होता है – जानते हो?” वह हंस कर पूछती है।
“प्यार ..!” बसंत उत्तर देता है और अपना हाथ कार चलाती वसुंधरा के कंधे पर रख देता है। “मेरा तो ये प्रथम परिचय है वसु!” वह आहिस्ता से बताता है। “और यही आखिरी होगा।” वह कह कर चुप हो जाता है।
बहुत सारे बेखबर पल चुप्पी में चले जाते हैं। वसुंधरा ने कार को मुख्य पुलिस अधीक्षक के ऑफिस की ओर मोड़ दिया है। बसंत एक बारगी उछल सा पड़ा है। उसने असमंजस भरी आंखों से वसुंधरा को घूरा है। वसुंधरा की दृष्टि सामने एक जंगी लोहे के फाटक पर टिकी रहती है।
“ये .. ये कहां जा रही हो?” बसंत पूछ लेता है। “ये तो पुलिस हैडक्वाटर है।”
“क्यों ..?” वसुंधरा तुनक कर पूछती है। “मेरे मामा जी क्या पुलिस में नहीं हो सकते? ड्यूटी पर दिल्ली से आए हैं – किसी काम के सिलसिले में।” वह मुसकुरा कर बताती है।
वसुंधरा का दिया उत्तर बसंत के उद्विग्न हुए दिमाग को शांत नहीं कर पाता। बहुत गहरे में बसंत के भीतर एक शोर भरता आ रहा है – भागो बसंत, कोई कह रहा है। जान बचाओ। रोको उसे ..। लगा दो गाड़ी में ब्रेक और कूद कर गाड़ी से बाहर हो जाओ।
लेकिन बसंत वैसा कुछ भी नहीं कर पाता। वह शांत बैठा कार को लोहे का जंगी दरवाजा पार करते हुए महसूसता है। कार को पार्किंग में लगा वसुंधरा बसंत के साथ दफ्तर को जाती सीढ़ियां चढ़ने लगती है। पुलिस कमिश्नर के दफ्तर में सीधा प्रवेश करती वसुंधरा को कोई नहीं रोकता। बसंत चुपचाप वसुंधरा के पीछे-पीछे चलता चला जाता है।
उन पलों में बसंत ने महसूसा है कि मौत विश्व मोहिनी रूप धार कर उसकी उंगली थामे उसे लिए चली जा रही है। अबोध शिशु सा बसंत पुलिस कमिश्नर सक्सेना के सामने आ खड़ा होता है।
“आइए-आइए, बसंत कुमार।” सक्सेना कुर्सी से उठ कर उसका स्वागत करते हैं। “बैठिए।” हाथ मिलाने के बाद वो पड़ी कुर्सी की ओर संकेत करते हैं। “कब से मिलने की कोशिश कर रहा हूँ। लेकिन ..” वह रुकते हैं। “अगर वसुंधरा न होती तो शायद ये सुलभ काम नहीं हो पाता।” वो मुसकुराते हैं। “चौइस बुरी नहीं है वसुंधरा। वैल डन।” वह हंस जाते हैं।
बसंत के भीतर का शोर अब और भी ऊंचा सुनाई दे रहा है। उसका दिमाग कम्पयूटर की तरह खटाखट गिनती गिनता चला जा रहा है। सामने खिड़की है। वह चाहे तो कूद कर भाग सकता है। वह चाहे तो सक्सेना के गंजे सर पर टेबुल लैंप को उल्टा कर के मारे और भाग खड़ा हो। उसे अब अवश्य ही कुछ कर डालना चाहिए। उसके पास अब वक्त नहीं बचा है। चंद लमहे हैं जबकि वो ..
सक्सेना साहब बजर बजाते हैं।
इंस्पेक्टर मयंक और दो सिपाही भारी बूटों की धमक से फर्श को मीड़ते हुए सामने आते हैं। सिपाहियों के हाथों में हथकडियां हैं। इंस्पेक्टर मयंक की पेटी पर पिस्तौल बंधी है। अब पीछे का दरवाजा भी बंद हो चुका है। मयंक एक स्मार्ट सैल्यूट दाग कर खड़ा हो गया है। दोनों सिपाही बसंत के आजू-बाजू आ लगे हैं।
“ये .. ये क्या मजाक है?” बसंत घबरा कर वसुंधरा से पूछता है। उसे पसीना आने लगा है। “मैं ..”
“इधर देखिए मिस्टर बसंत कुमार।” सक्सेना साहब की आवाज उसे गले से पकड़ लेती है। “मजाक नहीं आप के द्वारा की गई खोज है।” एक शीशे का बालिश्त भर लंबा कैप्सूल सक्सेना ने बसंत के सामने तान दिया है। “भाई मान गए। रेडियो धर्मी पेंसिलों के लिए इतना खूबसूरत पिंजड़ा। मौत को गले से पकड़ कर बंद कर दो फिर चाहे जहां लिए फिरो। और जब दिल आए कैप्सूल को जमीन पर मार कर तोड़ दो। मौत आजाद। वो भी इतनी हसीन मौत कि शिकार को हंस कर बुला ले।”
“लेकिन .. लेकिन आप के पास ये कहां से आया?” बसंत कुमार घबरा कर पूछता है। “मैंने तो बनाए ही उतने हैं जितने कि ..”
“तुम्हारे दोस्त सुकुमारन ने ऊंची कीमत पर बेचा है।” सक्सेना हंस कर बताते हैं।
“सुकुमारन ..?” बसंत भड़क कर कहता है।
“नहीं जानते न सुकुमारन को?” सक्सेना साहब पूछते हैं। “ये देख लो। इस फाइल में शायद तुम्हें सुकुमारन के साथ कोई जुड़ाव नजर आ जाए।” वो बसंत कुमार को एक फाइल पकड़ा देते हैं।
बसंत को विश्वास ही नहीं होता कि उस फाइल में जितनी जानकारी है शायद उतनी स्वयं उसके पास भी नहीं है। उसे केवल एक कमी नजर आती है। मिश्रा और वी के पाल के बारे उसमें कोई चर्चा नहीं है।
“कहां है सुकुमारन?” वह कड़क कर फिर से पूछता है।
“जेल में है।” सक्सेना साहब बताते हैं। “जल्दी ही मुलाकात हो जाएगी। उसने तो सब साफ-साफ ही बता दिया।” सक्सेना संयत आवाज में कहते हैं।
“ओह नो।” बसंत कुमार अपनी दोनों हथेलियों से अपनी आंखें मूंद लता है।
“एक बात का हमें दुख है बसंत कुमार।” सक्सेना साहब कहते हैं। “काश तुम ये खोज देश को दे देते। धन कमाना तो व्यापारियों का काम होता है – वैज्ञानिकों का नहीं।”
“सर इसके लिए मैं नहीं मिश्रा और वी के पाल जिम्मेदार हैं। मैं तो चाहता रहा था कि ..” बसंत कुमार की आंखों में घोर निराशा घिर आती है।
“तुम्हारी भोली और खूबसूरत चालें हम लोगों को परेशानी में डालने के साथ-साथ बहुत कुछ सिखाती रही हैं। जैसे कि खुद हांगकांग में और डुप्लीकेट बंबई में। जरूर डुप्लीकेट किंग सुकुमारन का ही ब्रेन होगा।”
“ब्रेन ..!” बसंत कुमार तनिक हंसा है। “सुकुमारन तो निरा ब्रेनलैस है।” वह साफ-साफ कहता है। “अगर वसुंधरा न होती तो ..” वह पलट कर पास बैठी वसुंधरा को घूरता है।
“तो तुम शादी के लिए कतई राजी न होते।” सक्सेना साहब मजाक करते हैं।
एक सममिलित ठहाका लगता है। वसुंधरा के गाल आरक्त हो आते हैं। वह पास बैठे बसंत से निगाहें नहीं मिलाती।
सक्सेना के इशारे पर मयंक दोनों सिपाहियों को हथकड़ी लगाने के आदेश देता है। बसंत अपने समर्थ और अनुभवी हाथों को कैदे होते देख तड़प उठता है। उसका मन होता है कि एक बार फिर वसुंधरा का स्पर्श करके देखे। और इस अनुभूति को एक बार और चुरा ले चले। जेल का एकांत काटने के लिए उसे वसुंधरा के साथ जिए हर पल की दरकार होगी – वह महसूसता है।
“उस बेचारे पारसी परिवार का तो वंश ही मिट गया।” बसंत को हथकड़ी लगाने के बाद मयंक कहता है। “आखिरी आदमी कल खत्म हो जाएगा।”
बसंत और वसुंधरा की निगाहें मिली हैं। लंबे पलाें तक एक दूसरे काे देखने के बाद उनकी निगाहें भटक सी जाती हैं। बसंत कुछ कहना चाहता है। भीतर से कुछ बाहर आना चाहता है। लेकिन हाेठाें तक शब्द आते-आते हिम्मत टूट जाती है।
उसके कुत्सित हाथाें काे आज वसुंधरा जैसे स्पर्श का अधिकार नहीं साेंपती।
जेल में मिलने आई वसुंधरा काे बसंत आज जैसे बरसाें के बाद देख रहा हाे – ऐसा लगता है। वह मूक आंखाें से बटर-बटर वसुंधरा काे घूर रहा है। उसका चेहरा गंभीर है। आंखाें में अजीब सा आक्राेश है। वसुंधरा काे कैदी की पाेषाक पहने बसंत बेहद अच्छा लगता है।
किए की सजा भुगतने से मानव का अंतर निरंतर निर्मल हाेता चला जाता है।
“तुम से एक विनती करने आई हूँ।” वसुंधरा धीमी आवाज में कहती है।
“अब क्या बचा है मेरे पास।” बसंत गुर्रा कर उत्तर देता है।
“सब तुम्हारे ही पास है बसंत। विश्व आज भी तुम्हारी खाेज की खबर पा जाना चाहता है। मैं तुमसे विनती करने आई हूँ कि तुम अपनी खाेज का पूरा हवाला ..”
“क्या मतलब ..?” बसंत चाैंक पड़ता है। “वाे कैपसूल .. जाे ..?”
“नकली था।” वसुंधरा बताती है। “ये लाे।” वाे अपने पर्स से कैपसूल निकाल कर बसंत के सामने रख देती है। “और सुकुमारन भी जेल में नहीं है। वह तुम्हारी गिरफ्तारी के बाद फरार हाे गया है।”
“ऒह माई गाॅड।” बसंत अपने सर पर हाथ मारता है। “वाॅट ए ट्रिक?”
बसंत महसूसता है कि अपराधी की मानसिकता में खाेट अवश्य आ जाता है। झूठा प्रमाण भी सामने आने पर वह अपना विवेक खाे बैठता है।
“मैं क्याें दूं?” बसंत बहुत देर के बाद बाेला है।
“क्या मुझे भी नहीं दाेगे?” वसुंधरा आग्रह पूर्वक पूछती है।
वसुंधरा सीखचाें से चिपकी बसंत के बहुत करीब आ गई है। दाेनाें एक दूसरे की सांसें तक महसूस पा रहे हैं। बसंत काे फिर एक बार अपने पैर हवा में झूल गए लगते हैं। लगता है वह मांगती वसुंधरा काे ना न कह पाएगा। वसुंधरा के लिए ली हर क्षति उसे मुक्ति प्रदान करती लगती है।
“एक शर्त है वसु। इस बार वह नाम ले कर बाेला है। “वाे कमीने मिश्रा और पाल ..?” उसकी दांती भिच आती है। “तुमने उनके साथ ताे कुछ नहीं किया?” बसंत भड़क सा जाता है।
“उन दाेनाें काे भी सजा मिल चुकी है। मैंने खुद केस अपने हाथ में लिया था। देखाे अखबार।” वह उन दाेनाें का फाेटाे दिखाती है। “साथ में तुम्हारे चित्र भी हैं। अब लाेगाें की सहानुभूति तुम्हारे प्रति हाे आई है। और तुम अगर फाॅर्मूला दे दाे ताे – काम बन जाएगा। तुम विश्व के विख्यात वैज्ञानिकाें में गिने जाऒगे बसंत।”
“वसु ..।” बसंत का गला भर आया है। “तुम अगर पहले मिल जातीं ताे मैं इतना क्याें गिरता?” बसंत की आंखें सजल हाे आई हैं। “अब क्या फायदा वसु।”
“नहीं बसंत। में तुम्हारा इंतजार करूंगी। मेरी आँखें जेल के इस फाटक पर चिपकी हैं।” वसुंधरा भर्राए कंठ से कहती है। “ये देखाे। तुम्हारे हाँगकाँग से लाए ये ताेहफे और ये चूड़ियाँ – ये सब मैंने संभाल कर रख लिया है। जाे है साे स्वीकार लिया है मैंने।”
बसंत ने वसुंधरा के काेमल कपास से हाथाें काे स्पर्श कर एक स्फूर्ति काे पी लिया है। इस अनमाेल स्पर्श की कीमत देते बसंत का अंतर गीला हाे आता है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड