बसंत बिजनिस के सिलसिले में हांगकांग आया हुआ है।

हांगकांग उसके लिए भोग भूमि है। यहां आ कर वह खूब मौज मजा करता है। वह महसूसता है कि आदमी की इच्छाएं भी अजगर जैसी होती हैं, जिनके पेट में सब कुछ समा जाता है।

लेकिन न जाने क्यों अबकी बार बसंत बहुत संयम बरत रहा है। उसने अपने मित्र सुकुमारन का साथ नहीं दिया है। उसे हर मोड़ पर वसुंधरा खड़ी मिली है। एक टोक की तरह हर गलत कदम उठाने से पहले उसे वसुंधरा ने खबरदार किया है। और न जाने क्यों उसने हर बार इस टोक का आदर किया है। सुकुमारन कैसीनो में जूआ खेलने गया है। वह वहां रात भर जूआ खेलेगा और पीता रहेगा। उसकी मित्र जूलियन उसे सुबह फ्लैट पर छोड़ जाएगी। तब तक बसंत अकेला है।

नहीं। अकेला नहीं है। वसुंधरा उसके साथ है। एक परछाईं की तरह वह हर पल उसका पीछा करने लगी रहती है। उसके मन से उठती अतृप्त स्नेह की उर्मियां जा जा कर वसुंधरा से लिपट जाती हैं। अब वसुंधरा उसके लिए एक अजेय आकर्षण बनती जा रही है। वह अपने एकांत में वसुंधरा के खुले काली घटाओं से गेसुओं को देख रहा है। और उसके सुचिकन चेहरे को कई-कई बार चूम चुका है। उसकी मोहक देहयष्टि को न जाने कितनी-कितनी बार उसने स्पर्श किया है। वसुंधरा के अंग विन्यास ..

बसंत ने चाहा था कि वसुंधरा उसके साथ हांगकांग आए। लेकिन सुकुमारन का भय उसकी चाह को लील गया। उसने अभी तक सुकुमारन को वसुंधरा के बारे कुछ नहीं बताया है।

दीपशिखा की ओर सरपट दौड़ता शलभ सा बसंत किसी तरह से भी अपने आप को संयत नहीं कर पा रहा है।

सुकुमारन के कहे ढेर सारे शब्द और ताने उलाहने तथा मान्यताएं आज उसे एक-एक कर याद आते चले जा रहे हैं। वह जब सुकुमारन से बंबई में मिला था तो वह फटे हाल था। उसे सुकुमारन अरब देश से आए किसी अमीर उमरा से कम न लगा था।

“वैज्ञानिक हो कर भूखे मरते हो। लानत है यार।” सुकुमारन ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा था। “कुछ भी खोज डालो कौन रोकता है?”

“लेकिन कैसे?” बसंत ने आहत हो कर पूछा था। “इस खोज के लिए ही तो अभी तक खटा हूँ। मैं तो चाहता रहा हूँ कि देश में ..”

“यहीं गलती करते हो दोस्त। खोजना चाहते हो – औरों के लिए? जीना चाहते हो – दूसरों के लिए? और रोना चाहते हो – अपने लिए?” सुकुमारन विषाक्त हंसी हंसा था। “इस देश में क्यों जूते खा रहे हो? आ जाओ मेरे पास। खोज डालो – कुछ भी। लेकिन शर्त एक है ..”

“क्या?”

“खोज अपनी खैरियत के लिए होगी। हम उस खोज का खुद पूरा-पूरा फायदा उठाएंगे – देश नहीं, समाज नहीं और ..”

“लेकिन .. लेकिन ये तो अच्छा नहीं होगा दोस्त। मेरी खोज तो रेडियो धर्मिता ..”

“बसंत।” सुकुमारन कड़क कर बोला था। “अच्छे बुरे के द्वंद्व में जान देता मध्य वर्गीय मनुष्य मेरा तो दुश्मन होता है। मुझे ऐसे कमजोर मनुष्य की न तो दोस्ती दरकार है और न ..”

“नाराज मत हो यार।” बसंत घिघिया कर बोला था। “मेरा मतलब ये नहीं था। मैं तो कह रहा था कि ..”

दुबले पतले दिखने वाले सुकुमारन का अमानवीय दुस्साहस देख बसंत दंग रह गया था। भारत से हांगकांग चोरी छुपे पहुंच कर वहां इस कदर पैर जमा कर बैठ जाना एक आश्चर्य की बात थी। उसे लोग डुप्लीकेट किंग के नाम से जानते हैं। जब वह हांगकांग सुकुमारन के पास पहली बार आया था तो उसने हंस कर उसे सब सहज भाव से समझा दिया था।

“मैन्यूफैक्चरर – ऑनली स्टाम्पस, लेबल्स, मोनोग्राम्स एंड नेम टैब्स ऑफ फेमस फर्म्स। दैट्स ऑल।” सुकुमारन हंसा था। बसंत को सकते में आया देख उसने बात साफ की थी। “भाई माल किसी का भी हो, अगर उस पर लेबल जापान का लग जाए तो बस। मोहर अगर असली यू एस की हो तो फिर बिक गया माल। भारत से मंगाओ, विदेश की मोहर लगाओ और वही माल भारत लौटा दो। भारत से बड़ा मार्केट तो विश्व में कहीं नहीं है दोस्त।” उसने बसंत की आंखों में सीधा देखा था। “मैं कुछ नहीं बनाता लेकिन सब कुछ बनाता हूँ और बेचता हूँ। दुनिया की हर विख्यात फर्म की मोहर, लेबल और नेम टैब्स मेरे पास हैं।”

“मुझे क्या करना होगा?” बसंत ने पूछा था।

“खोज।” सुकुमारन जैसे बसंत के हर आते प्रश्न को जानता था और उत्तर देने के लिए तैयार था। “एक ऐसी खोज करो जो हमें करोड़ों मोहिया कराएगी।” सुकुमारन ने खुश होते हुए कहा था। “आओ। तुम्हें तुम्हारा ठिकाना दिखा दूं।” वो उसे अपनी दुकान के नीचे बने भीतरी भाग में ले गया था। “ये रही तुम्हारी प्रयोगशाला। अब चाहे जैसे काम करो और अब चाहे जितना काम करो। जितना पैसा चाहिए मुझे बता देना बस।”

सुकुमारन बात का धनी है। जो कहता है वह अवश्य कर देता है। आज तक की व्यापारिक जिंदगी में उसने कभी बसंत को धोखा नहीं दिया है। और बसंत का हिस्सा उसे हमेशा देता रहा है।

लेकिन न जाने क्यों आज बसंत स्वयं सुकुमारन को छोड़ वसुंधरा की ओर लौट जाना चाहता है।

“घर में बंद रह कर सुरक्षित समझना कायरता है, बसंत।” सुकुमारन ने एक दिन उसे बताया था। “संघर्ष ही अभय को जन्म देता है। भारत जा कर तुम्हें अपने लिए संघर्ष छेड़ना चाहिए। अपनी इस खोज को साकार रूप देने के लिए तुम्हें भारत जाना ही होगा।”

“लेकिन .. लेकिन मैं चाहता हूँ सुकुमारन कि ..”

“विख्यात हो जाओ? नाम पा जाओ?” सुकुमारन ने उसे बीच में काटा था। “कौड़ियों के मोल बिक जाओगे दोस्त।” वह ठहरा था। “जाओ। बता दो पूरे विश्व को कि तुम ने ..”

बहुत पलों तक एक असहज चुप्पी दोनों के बीच बनी रही थी। बसंत के जेहन में भोगी बेकारी, गरीबी और पाया अपमान पूरे तीस बरस बिजली की बत्तियों की तरह जल उठे थे। वह नहीं चाहता था कि फिर से उसी हाल में लौट जाए। सुकुमारन के दिखाए सब्ज बाग उसे मोहक लगे थे। वह सुकुमारन की दी पूंजी ले कर भारत लौटा था। उसने बसंत ग्लास वर्क्स के लिए लाइसेंस लिया और अपना कारखाना लगाया। उसके बाद ..

बंबई शहर की पुलिस फिर एक बार सजग हो उठी है। वैज्ञानिक हर्ष नंदा के साथ सुबह से भटकता इंस्पेक्टर पंकज पवार अब उबासियां लेने लगा है। शाम होने को है। अचानक अंधी हुई पुलिस एक मकान के पास पहुंच हर्ष नंदा का यंत्र इशारे करने लगता है। पल छिन में पुलिस मकान को चारों ओर से घेर लेती है।

मकान पुरानी एक कोठी है जिसे पूर्णतया खण्डहर होने में अभी और भी वक्त लगेगा – ऐसा जान पड़ता है। कोठी के भीतर खामोशी के अलावा और कुछ भरा नहीं लगता। पुलिस का घेरा पड़ते देख तमाशबीनों की भीड़ छतों से और सुरक्षित स्थानों से उस भुतहे मकान को घूर रही है।

पुलिस की स्मग्लरों से मुठभेड़ होने की पूरी-पूरी संभावना है। पुलिस एक-एक कदम संभल कर उठाना चाहती है।

अचानक मकान के भीतर बम सा फटता है। सभी जमा लोग बमक से पड़ते हैं। एक मोटर साइकिल मकान के भीतर से दनदनाती चली आती है और बाहर भाग जाती है। पुलिस की जीप उसका पीछा करती है। मोटर साइकिल जमा भीड़ के सागर में विलीन हो जाती है।

लेकिन वसुंधरा ने मोटर साइकिल पर सवार हुए आदमी को बहुत करीब से देख लिया है। उसे रत्ती भर भी अंदेशा नहीं रहा है कि भागने वाला वह व्यक्ति बसंत कुमार ही था। शायद हांगकांग जाने का तो उसका बहाना था। वह उसे चकमा दे कर अपने फ्लैट से गायब हो जाना चाहता था .. ताकि ..

वसुंधरा तुरंत-फुरंत बसंत के फ्लैट पर लौटी है। उसने दरवाजा खोल कर फ्लैट का चप्पा-चप्पा छान मारा है। वह आज बसंत के खिलाफ कोई न कोई प्रमाण पा जाना चाहती है।

थक हार कर वसुंधरा सोफे पर औंधी आ गिरी है। वह बसंत के बारे सोच-सोच कर पागल सी हो गई है। जहां प्रमाण बसंत को चोर ठहराते हैं वहीं उसका मन मना कर देता है। वह अब भी महसूस रही है कि बसंत के चंद स्पर्श उसके शरीर से चिपके रह गए हैं। बसंत कहीं नहीं गया है। उसके आस पास ही कहीं है।

कार्तिकेय सा दिखता बसंत चोर कैसे हो सकता है।

वसुंधरा ने आखिरी युक्ति को दांव पर लगाते हुए हांगकांग का नम्बर मिलाया है। पलांश में उधर से घंटी बजने की आवाज सुनाई देती है। रात का एक बजना चाहता है। उधर से किसी ने फोन का चोगा उठाया है।

“हैलो।” लेकिन ये आवाज तो बसंत की है। “हू इज स्पीकिंग?” उसने आहिस्ता से प्रश्न पूछा है।

वसुंधरा न जाने क्यों पुलकित हो उठी है। बसंत का यों हांगकांग से बोलना उसके सारे शकों के गले चाक कर गया है। बसंत जैसा मोटर साइकिल पर भागता वो आदमी कोई और ही था। हो सकता है वह चालाक आदमी बसंत बन कर ये सब करता रहा हो .. और बेचारा बसंत ..

वसुंधरा की मृगी की सी दृष्टि में चकित भाव भर आया है। वह बसंत की आती आवाज को चूम लेना चाहती है।

“बसंत।” वह एक किलक लील कर कहती है। “वसु स्पीकिंग।” वह परिचय देती है।

बसंत का अपराधी चित्त बल्लियों उछल पड़ा है। उसे लगता है जैसे वसुंधरा ने अभी-अभी उसे कॉलर से पकड़ लिया हो और .. चोर के हजारों लेबल लगा कर धक्का मार बाहर कर दिया हो। आस-पास भरे व्यथित मौन को भंग करती वसुंधरा की आवाज का वो आदर नहीं कर पाता। कई पलों तक वह संयत हो कर उत्तर देता है।

“वसु। तुम ..? मेरा मतलब कहां से बोल रही हो?”

“तुम्हारे ही फोन से।”

“इस वक्त तक जगी हो? वहां तो रात का ..”

“एक बजना चाहता है। और हम हैं हुजूर कि यादों में जाग रहे हैं। नींद आंखों में आती ही नहीं, जालिम। न जाने वो कब लौट आएं ..”

“शेर पढ़ रही हो?” बसंत चौंक सा पड़ता है। “सो जाओ यार। मैं कल लौट रहा हूँ।” वह बताता है। “मामा जी से बात हुई थी क्या?”

“हां। मैंने बात साफ कर दी है।”

“क्या?”

“यही कि ..” वसुंधरा कई पलों तक चुप रहती है। “सुनो। मामा जी तनिक पसीज गए लगते हैं।”

“सच ..?” बसंत खुश होता है। “कैसे पता लगा?”

“कहने लगे – भाई, एक बार दिखा तो दो अपनी चौइस। सोचने का वक्त दो।”

“ओह, रियली।” बसंत बिफर सा पड़ा है। “मैं कल पहुंच जाउंगा। तुम मामा जी को बता दो कि ..”

“शायद वो भी कल बंबई पहुंच रहे हैं। लेकिन कंफर्म नहीं है। आए तो फोन करने को कहा है।”

“वैल डन वसु। यू आर ए डार्लिंग।” बसंत ने वसुंधरा की आवाज को चूम सा लिया है।

फ्लैट का दरवाजा चर्र से खुलता है। सुकुमारन पी-पा कर लौटा है। जूलियन उसे संभालती हुई भीतर लेकर घुसती है। सुकुमारन लाल-लाल नेत्रों से फोन पर हंस-हंस कर बातें करते बसंत को देख चौंक सा पड़ा है। लगा है जैसे उसका सारा नशा काफूर हो गया हो।

“कौन था भाई?” वह तनिक संयत हुआ बसंत से पूछता है।

“वो .. वो मामा जी का फोन था।” बसंत सफेद झूठ बोलता है। “मेरी शादी के लिए पीछे पड़े हैं।” वह उसी तरह हंस कर बताता है।

बंबई के अखबारों में फिर एक बार खबर छपी है। अंधेरी के खंडहर नुमा उस बंगले का चित्र है। उसमें रहता एक पारसी परिवार एक-एक कर मौत के हवाले हो चुका है। रेडियो धर्मी पेंसिल उस मकान के किचन में रक्खी मिली है। यूसुफ जी – जो ग्यारह साल का लड़का था उस पेंसिल को उठा लाया था। उसने उस पेंसिल को किचन में रख दिया था। रेडियो धर्मी तरंगों के लगातार प्रभाव से पूरे परिवार की जान चली गई थी।

वैज्ञानिक हर्ष नंदा को पेंसिल उठाने के उस स्थान से बड़ी शीशे की किरचें मिली हैं। लेबोरेटोरी के टैस्ट के अनुसार जरूर किसी वैज्ञानिक ने कोई ऐसी खोज कर ली है जिसके द्वारा रेडियो धर्मी पेंसिलों का लाना ले जाना बेहद आसान हो गया है।

पुलिस और वैज्ञानिकों की छान बीन के बाद यहां लक्ष्मी स्टील वर्क्स में जो रेडियो धर्मी पेंसिलें इस्तेमाल हो रही हैं, वो हैं तो भारतीय लेकिन उनपर मुहर अमेरिका की लगी है। अमेरिका की फर्म ने भी उन पेंसिलों को कबूल करने से ना कह दिया है।

वसुंधरा महसूसती है कि रागारुण हुआ क्षितिज प्रकाश से भरता आ रहा है। अंधेरे की धांधली घटती चली जा रही है। आज शाम तक बसंत के पहुंच जाने का वायदा है।

Major krapal verma

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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