पुरवाया छूट गया था। आसमान पर बैठे बादल छितराने लगे थे। मंदिर के परिसर में भक्तों की भीड़ भरने लगी थी। राम चरन को परिवार के साथ आया देख पंडित कमल किशोर प्रसन्न हुए थे। वो राम चरन का बहुत आभार मानते थे।

“आइए-आइए।” पंडित कमल किशोर ने श्याम चरन को आगोश में समेट लिया था। “पहली बार आ रहे हो मंदिर?” उनका प्रश्न था।

सुंदरी को भी याद था कि आज श्याम चरन पहली बार मंदिर चल रहा था। अतः वह पूजा की सामग्री साथ लाई थी।

“वक्त नहीं मिलता पंडित जी।” सुंदरी ने देर से आने पर क्षमा मांगी थी। “लीजिए, पूजा संपन्न कराइए।” सुंदरी ने हाथ का सामान पंडित जी को सोंप दिया था।

राम चरन एकाग्र चित्त हुआ ढोलू शिव की प्रतिमा के सामने आंखें खोले खड़ा था। वह देख लेना चाहता था कि ढोलू शिव क्या वास्तव में प्रतिमा नहीं एक दरवाजा था – बाहर से अंदर खुलने वाला दरवाजा और उसे खोलने के लिए मंदिर में क्या कहीं कुछ लगा था?

“मरम्मत ठीक नहीं हुई पंडित जी।” राम चरन ने शिकायत की थी। “आप तो थे नहीं। मुझे इतना वक्त न था। और ये लेबर लोग हैं – हरामी।” राम चरन की शिकायत थी। “इस बार मैं स्वयं काम कराउंगा।” उसने जिम्मा लिया था।

“कुछ तो कहीं जरूर होगा – जो दरवाजा खुलता है?” राम चरन की जिज्ञासा शांत नहीं हो पा रही थी।

“बावली पर चलकर बैठते हैं।” सुंदरी ने आग्रह किया था। “बाहर बड़ी बढ़िया बयार चल रही है।” उसने जानकारी दी थी।

वो दोनों बाहर आ कर बावली के मुंडेर पर बैठ गए थे। श्याम चरन अपने ही खेल में मस्त था। राम चरन ने बड़े गौर से बावली का निरीक्षण किया था। कितनी चतुराई से किसी कारीगर ने इस निर्माण को किया होगा – कमाल ही था। कहां जा कर छिपाया था – खजाना? कोई इस तरह का तो ख्वाब भी नहीं देख सकता था। लेकिन अब तो खजाने की कुंजी उसके हाथ में थी। एक प्रसन्नता ने राम चरन के प्रकारांतर को हरा भरा कर दिया था।

श्याम चरन के साथ पंडित कमल किशोर चल कर बावली की ओर आ रहे थे। राम चरन खबरदार हो गया था। सुंदरी भी अपने सोच से वापस लौट आई थी।

“कैसा रहा आपका यू एस का ट्रिप?” राम चरन ने पंडित कमल किशोर से पूछा था।

“डरे हुए हैं – अमेरिका के लोग। शरणार्थी घुस आए हैं देश में। उनसे खतरा है। हिन्दू हैं उनसे डर नहीं है। हिन्दू किसी का माल नहीं खाता। कमा कर खाता है। लेकिन ये लोग तो मार धाड़ पर उतर आते हैं। चाकू छुरी भी चलाते हैं।”

“आप ने किया कोई इलाज इनका?” राम चरन ने मुसकुराते हुए पूछा था।

“शांति पाठ किया था।” पंडित जी गंभीर थे। “हवन यज्ञ और पूजा पाठ का असर तो पड़ता है।” उनका कहना था।

“प्रहलाद जी कहां हैं?” राम चरन से रहा न गया था तो पूछा था।

“काशी लौट गए! उनका मन तो वहीं लगता है। राजेश्वरी बीमार हो गई है।”

“क्यों, क्या हुआ?” सुंदरी बोल पड़ी थी।

“हैदराबाद में हिन्दू मुसलमान के दंगे होने वाले हैं। संघमित्रा भी हैदराबाद में है, पराई बेटी है। काल कलां कुछ हो ही गया तो बर्बाद हो जाएंगे।” पंडित जी ने गहरी चिंता व्यक्त की थी।

राम चरन अचानक ही खिल उठा था।

दंगे तो होंगे – उसने सोचा था। अब तो मंदिरों की खुदाई होगी – खजाने बरामद होंगे। फिर मंदिर तोड़े जाएंगे। हिन्दुओं का कत्लेआम होगा। चोटी लंगोटी वालों को इस बार खोज-खोज कर मारा जाएगा। औरतों के बाजार लगेंगे। इस बार पहली वाली कोई गलती न होगी – उसने चुपचाप स्वयं से एक वायदा किया था।

अचानक आचार्य प्रहलाद की गर्दन राम चरन की गाही में आ फंसी थी।

“संघमित्रा अब मेरी हुई, आचार्य।” मुनीर खान जलाल गरज रहा था। “जिंदगी चाहिए तो तुम भी इस्लाम कबूल लो। वरना तो मैं तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा और कुत्तों को खिला दूंगा” वह आचार्य को धमका रहा था।

पत्ते की तरह कांपता आचार्य प्रहलाद हां ना तक न कर पा रहा था।

“हाहाहा!” राम चरन मुनीर खान जलाल की तरह अट्टहास की हंसी हंसा था।

इस्लाम फिर से जीतेगा – उसने मान लिया था।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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