श्याम चरन राम चरन के साथ खेलने की जिद कर रहा था। लेकिन राम चरन स्टेज पर आ खड़ी हुई संघमित्रा को अपलक घूरे जा रहा था।

“मेरा दिल्ली आने का आज का उद्देश्य है – भारत की मांओं को सोते से जगाना।” संघमित्रा की मधुर आवाज ने चराचर को जगा दिया था। “हम मांएं अपने शिशुओं को संस्कार न देकर उन्हें शिक्षा के लिए गैरों को सोंप देती हैं।” संघमित्रा ने आंख उठा कर नारियों के हुजूम को देखा था जो दूर-दूर से उसे सुनने चली आई थीं। “ये पाप है।” संघमित्रा ने हाथ उठा कर चेतावनी दी थी। “गैरों की दी शिक्षा हमारे शिशुओं को उनका बना देती है। वो देश से नहीं विदेश से प्यार करते हैं। वो हमें नहीं उन्हें पूजते हैं।” संघमित्रा तनिक रुकी थी। भीड़ में एक हलचल भर गई थी। “हमारे शिक्षित युवा विदेश चले जाते हैं और पराए हो जाते हैं।” संघमित्रा ने एक नंगा सच सब के सामने रख दिया था। “मैं पूछती हूँ – शिवाजी को संस्कार किसने दिए थे?” संघमित्रा की आवाज में रोष था। “लेकिन हमें तो फैशन से प्यार है – बच्चों से नहीं। हमें वेदों का पठन-पाठन वाहियात लगता है। हमारी रामायण दादी की तिखाल में धरी-धरी बूढ़ी हो गई है। हमें उसे पढ़ने का समय ही नहीं मिला।” संघमित्रा की मीठी जुबान तेजाब में भुनी कटार सी लगी थी। “बच्चे बेचारे क्या करें। उन्हें जहां से भी, जो भी मिल जाता है उसे ले लिवा कर जिंदगी से लड़ने लगते हैं। लेकिन ये झूठ और लूट के संस्कार उन्हें कहां ले जाते हैं – कभी सोचा है आपने?” संघमित्रा ने एक अहम प्रश्न पूछ लिया था। नारियों की उस जमा भीड़ से।

सन्नाटा था। चुप्पी थी। एक अपराध बोध का एहसास तारी था। एक सफेद सच था जो समस्त नारी समाज के लिए चुनौती बन गया था।

“हिन्दू राष्ट्र का निर्माण हमारी ये नपुंसक पीढ़ी न कर पाएगी, देवियों।” संघमित्रा और भी तेजी के साथ लौटी थी। “हमें अब अर्जुन-भीम स्वयं ही जनने होंगे।” उसका ऐलान था। “कौशल्या का कर्तव्य क्या है – हमें ये फिर से जानना होगा।”

तालियां बजी थीं। पूरा सभा मंडल आंदोलित हो उठा था।

“जां निसार – मेरी जाने मन।” राम चरन के होंठों से स्वयं ही संवाद खिसक गया था।

ललचाई निगाहों से राम चरन संघमित्रा के हुस्न को देखे जा रहा था।

चाय की चुस्कियां लेती संघमित्रा परी लोक से आई कोई अप्सरा लग रही थी। उसने नारंगी रंग की शिफॉन की हल्की साड़ी पहनी थी। पैरों में शोलापुरी चप्पलें थीं। उसके नाक कान नंगे थे। गेसुओं को उसने खुला छोड़ दिया था।

“आचार्य जी ..?” राम चरन ने सोच समझ कर संवाद बोला था।

“गीता प्रवचन के लिए यू एस चले गए हैं।” संघमित्रा ने उत्तर दिया था।

दहला गया था – राम चरन। हिन्दुत्व बाढ़ की तरह बढ़ता ही चला जा रहा था और इस्लाम घर लौट रहा था। न जाने क्यों उसके साथ खेलने की जिद करता राम चरन उसे हिन्दू लगा था। और हिन्दू राष्ट्र बनाने की जिद करती संघमित्रा मुसलमान लगी थी। वह देख रहा था कि शरारा-गरारा पहने संघमित्रा वॉज सिजलिंग ऑन दी स्टेज।

मान गए तुम्हें ऐ दोस्त हम

तुमने हमें शूल से फूल बना दिया।

हमारी किस्मत तो तनहा-तनहा थी

तुमने हमें गुले गुलजार चमन बना दिया।

“चलो।” सुंदरी ने टहोक कर राम चरन का सोच तोड़ दिया था।

राम चरन को बुरा लगा था। प्रेम सागर में यों उठते तूफान को रोक जैसे सुंदरी ने उसे डोलती बोलती हिलोरों से भर दिया था।

ये हिन्दू और मुसलमान दोनों आखिर में था क्या – राम चरन पूरी रात यही सोचता रहा था।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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