जिंदगी में आज पहली बार था जब बलूच पूरी रात सो न पाया था।

ब्रिगेडियर मुस्तफा को गहरी नींद में सोते देखता ही रहा था – बलूच। लेकिन क्या मजाल जो पलकें बंद हों तो वह भी सो कर देखे। लेकिन ये रात उसके लिए रात नहीं थी – एक अहसासों की बाढ़ थी जो उसे बहाए-बहाए बहाती ही रही थी। एक के बाद एक घटना, एक के बाद दूसरा कुकर्म, फिर कोई जुर्म और तब कोई सोच, फिर उसपर पश्चाताप – आता जाता रहा था – समूची रात।

सवेरा हो कर ही न दिया था। अभी भी सूरज कहां निकला था। वही एक तो था जो जाग रहा था। वही एक तो था जो ..? नहीं-नहीं, आज नहीं। आज तो वह दौड़ते-दौड़ते खड़ा हो गया था और अब यों रुक जाने के पश्चाताप को ओट रहा था।

कमरे से बाहर आया था बलूच। सामने बगीचा था। वह चार छह कदम चला था और बगीचे में दाखिल हुआ था। मुस्तफा सामने की बेंच पर आ कर बैठ गया था। बलूच ने जैसे उसे देखा ही न था – वह बगीचे में खिले फूलों से मुखातिब हुआ था। पहली बार – एक दम पहली बार जैसे उसने खिलते – मुसकुराते फूलों को देखा था। फिर ही कच्च घास को अपने पैरों तले रुंदते महसूस किया था। फिर वहां चिडियाएं थीं – जिनकी वह आवाजाही की पड़ताल करता रहा था। और तब उसे खुला नीला आसमान भी दिखा था। और तो और अब तो सूरज भी उग आया था।

“ये कौन सा संसार है भाई?” बलूच ने स्वयं से पूछा था। “और ये .. ये अभी तक कहां था?” उसे घोर आश्चर्य हुआ था। इसी दुनिया में रहता सहता वह इस दुनिया को जानता कब था। “मैं .. मैं कहां रहता रहा?” फिर एक बार मन ने स्वयं से ही प्रश्न पूछा था।

और तब बलूच की निगाहों के सामने उसी का किया जिआ सब उजागर होने लगा था। उसे पता होने लगा था कि वो अंधों की तरह भागा था – प्रमोशन के पीछे, पद के लिए, पोस्टिंग पाने हेतु, और फिर चीफ बनने की अभिलाषा ने उसे न जाने कब पकड़ लिया था। रात दिन इसी का भूत उसपर सवारी करता रहा और वो अपनी पत्नी और दोनों बेटियों तक को भूला बैठा रहा।

अनहित ही किया उसने लोगों का – भलाई तो शायद किसी की नहीं की – बलूच को याद हो आया था। यहां तक कि नारंग .. सलमा .. और मुनीर ..? आज तनिक सी आंखें नम हो आई थीं बलूच की। लेकिन उसने आंसुओं को पी लिया था।

हां-हां! न जाने क्यों आज नफीसा – उसकी पत्नी और बेटियां – तानिया मानिया याद हो आई थीं।

नफीसा नवाब जूनागढ़ की अकेली बेटी थी। नवाब साहब ने न जाने कब यू एस में बंगला ले लिया था और परिवार सहित वहीं रहते थे। नफीसा के पास धन दौलत की कमी न थी। उसे तो बलूच ने चीफ बन कर दिखाना था। टेकओवर के बाद नफीसा को पाकिस्तान आना था। और ..

“क्या बताएगा – नफीसा को?” अचानक बलूच ने अपने आप को प्रश्न पूछा था।

“अब मत बोलना बलूच!” वही अज्ञात आवाज चली आई थी। “मुंह बंद रखना वरना ..”

“पहले क्यों नहीं मिले तुम दोस्तों?” अचानक बलूच ने फूलों को देख कर पूछा था। वह तनिक सा प्रसन्न हुआ था। “देर आए, दुरुस्त आए!” उसने ऊपर तने आसमान को देखा था। “तुम तो थे। मुझे तभी बता देते तो .. इतना अनर्थ न होता!” बलूच को पहली बार आज अफसोस हुआ था।

वेटर चाय ले कर हाजिर हुआ था। मुस्तफा बेंच पर बैठा ऊंघ रहा था। बलूच ने मौका देख तीर छोड़ा था।

“वो .. वो मुनीर साहब का ..?” बलूच ने सीधा प्रश्न वेटर पर दागा था।

“किडनैप हो गया साहब! चप्पल भी छोड़ कर गया!” वेटर ने सूचना दी थी।

चाय का प्याला पकड़ते-पकड़ते बलूच का हाथ कांप गया था। ब्रिगेडियर मुस्तफा खबरदार हुआ था। उसने चाय परोसते वेटर को मारक निगाहों से घूरा था। वेटर सहम गया था। उसे याद भूल गया था कि किसी को कुछ भी नहीं बोलने को था।

अचानक ही बलूच की आंखों के सामने सलमा और सोलंकी की खून में लथपथ लाशें उजागर हुई थीं।

आज उसने देखा था कि मौत सोलंकी की नहीं बलूच की हुई थी। और उस बलूच की लाश को बांहों में लिए बलूच ही सामने बेंच पर आ बैठा था।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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