पंडित कमल किशोर ने आज बड़े दिनों के बाद अपनी पत्नी – प्राण प्रिया राजेश्वरी के नए उल्लास में डूबे रूप स्वरूप के दर्शन किए थे।
पंडित कमल किशोर मुसकुराए थे और गाड़ी में बैठ मंदिर चले गए थे।
सुमेद और संघमित्रा अभी तक सो रहे थे। आचार्य प्रहलाद को राजेश्वरी ने चाय का गरम-गरम प्याला पकड़ाया था और साथ में मधुर मुसकान भी बखेरी थी। आचार्य प्रहलाद ने राजेश्वरी को इशारे से पास बिठा लिया था। बड़ी देर तक वो राजेश्वरी को देखते रहे थे। राजेश्वरी अब बीमार नहीं थी, वह सचेत और सजग थी। राजेश्वरी की आंखें भरे उल्लास से जगमगा रही थीं।
“मैं तो तुम्हें बीमार देख कर डर गया था, राजे!” आचार्य प्रहलाद ने अपना डर बयान किया था। “तुम्हारी सहेली के जाने के बाद ..” आचार्य का गला भर आया था।
“संघमित्रा ने बचा लिया मुझे!” राजेश्वरी ने स्पष्ट कहा था। “सच मानिए भाई साहब! अगर संघमित्रा न आती तो मैं भी मर जाती।” सजल आंखों को पोंछा था राजेश्वरी ने। “देखो तो! कैसा हंसों का सा जोड़ा है।” राजेश्वरी ने तनिक मुसकुराते हुए कहा था।
“लेकिन ..?”
“ठीक है! न करें शादी! साथ तो बने रहेंगे न! दोनों ब्रह्मचारी हैं। देश सेवा में रत हैं। पूरी दिल्ली ही नहीं देश में शोर है – दोनों के किए अनुष्ठान का। भारत हिन्दू राष्ट्र बनता है तो हानि किसकी है?”
“है! हानि है – राजे! उन्हें हानि है जो ..” कई पलों तक ठहरे थे प्रहलाद। “हमारे पुरखों ने तो शुभ-शुभ सोचा था, राजे! लेकिन .. लेकिन ये लोग हम हिन्दुओं के गलों पर यूं छुरी रख देंगे ये तो कभी किसी ने सोचा ही नहीं था। अब फिर से हमारी संतानों को आहुतियां तो देनी ही होंगी।”
“मैं नहीं डरती अब, भाई साहब। ये दोनों अब इतने समर्थ हैं भाई साहब कि ..”
“तुम्हारे मुंह में घी शक्कर!” हंस गए थे आचार्य प्रहलाद। “हर पीढ़ी का भाग्य होता है, राजे!” उन्होंने बात को बड़ा किया था।
क्रांति वीरों और कर्म वीरों के शिविर लगे थे। पूरे देश से युवक और युवतियां राम लीला मैदान में होने वाले तीन दिन के सम्मेलन में भाग लेने आ रहे थे। हिन्दू राष्ट्र की घोषणा होने की बात तय थी। प्रशासन के बीच एक तरह की चिंता व्याप्त थी।
लेकिन कुंवर साहब की चिंता तनिक अलग थी। ढोलू शिव का वार्षिक मेला लगना था। सुंदरी के ऊपर इंद्राणी ने पहरे बिठा दिए थे। उसका पैर फिर भारी था। इंद्राणी नहीं चाहती थी कि वो घर से बाहर भी निकले। अतः राम चरन अकेला रह गया था। उसके पास संस्था का और भी बहुत काम था। लेकिन ढोलू शिव का भी मेला अब अंतरराष्ट्रीय ख्याति पा गया था। इस बार देश विदेश के विद्वान आ रहे थे। सुनहरी झील पर ढोलू गांव की संरचना की गई थी। ये कुंवर साहब का अपना आइडिया था। वो चाहते थे कि लोग भारत के गांवों के दर्शन करें। भारत की मूल संस्कृति ने तो अंत में गांवों जा कर ही बसना था।
पंडित कमल किशोर के साथ मंत्रणा करता राम चरन न जाने क्यों ढोलू शिव के लगते मेले से अब विरक्त था।
कुंवर साहब और इंद्राणी सर्व प्रथम पूजा पर बैठे थे। पंडित कमल किशोर मंत्रोच्चार कर रहे थे। मंदिर में विशाल भीड़ जमा थी। सभी के हाथों में पुष्प पत्र लगे थे। सभी को शिव की आराधना करनी थी। लेकिन कुंवर साहब और इंद्राणी के बाद सुमेद और संघमित्रा ढोलू शिव को भेंट अर्पण करने आगे आए थे। पंडित कमल किशोर ने उन दोनों की अर्चना अनुसार वेद मंत्र पढ़े थे।
लेकिन अपलक उन दोनों को देखता राम चरन अचानक ज्वालामुखी की तरह धधक उठा था।
खलीफात और हिन्दू राष्ट्र जैसे एक दूसरे के आमने सामने आ खड़े हुए थे। दोनों एक दूसरे को आंखों में देख रहे थे। दोनों की हार जीत अभी तक तय न हो पाई थी। राम चरन ने पलट कर संघमित्रा को नंगी निगाहों से देखा था।
“वॉट ए ब्यूटी?” राम चरन का मन बोला था। “गैट हर! एट एनी कॉस्ट!” उसने स्वयं को आदेश दिए थे। “मी – एंड शी ..?” वह बुदबुदाया था। “मी खलीफा एंड शी ..?” वह कई पलों तक संघमित्रा के लिए कोई शब्द तलाश न कर पाया था।
कामदेव ने आज तीसरी बार राम चरन को अपने पुष्प सायक से गहरे में घायल कर दिया था। राम चरन संघमित्रा के हुस्न को देख बेहोश हो गया था।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड