रमा के आगमन पर राजेश्वरी का मन बल्लियों कूदा था। सुमेद की सफलता के किस्से वह हर किसी को सुनाना चाहती थी।
“अच्छा हुआ तू चली आई!” राजेश्वरी ने रमा को बांहों में भर कर कहा था। “अरे तूने जो सुमेद की पोशाकें बनाई हैं – खूब जमा है! लोगों के ठट के ठट उमड़ पड़े हैं। सुमेद – माने कि सुमेद पंडित जी महाराज ..” हंस पड़ी थी राजेश्वरी।
“ये पोशाक मैंने राम चरन के लिए बनाई है।” रमा ने कांख में लगे पैकेट को बाहर खींच राजेश्वरी को दिखाया था। “क्रेजी डॉल के बाद जैंट्स में ये पोशाक अगर चल पड़ी तो मानो पांचों उंगली घी में और सर कढ़ाई में!” रमा ने भी ठहाका लगाया था।
राजेश्वरी ने पलट कर रमा की आंखों को पढ़ा था। राम चरन वहां उसे डोलता दिख गया था। अचानक उसे रमा का राजा भी याद हो आया था। वह बंबई से लौट आया था। और अब रमा के साथ रह रहा था।
“राजा कैसा है?” राजेश्वरी ने रमा से पूछा था।
“पी कर पड़ा रहता है!” रमा ने अन्यमनस्क उत्तर दिया था। “किसी काम का नहीं है!” उसने राजेश्वरी से नजरें चुराई थीं।
“मेरी तो प्रभु ने सुन ली रमा!” राजेश्वरी रमा से लिपट गई थी। “सुमेद ने सब संभाल लिया है। अरे यार! इस लड़के ने न जाने क्या जादू किया है कि ..” राजेश्वरी ने फिर से रमा को पढ़ा था। “अब मुझे पंडित जी से कोई शिकायत नहीं है।” राजेश्वरी मुसकुराई थी। “आराम से भजन पूजन करते हैं – पंडित जी!”
“चलोगी न शाम को मंदिर?” रमा ने पूछा था। “उस दिन तो इतनी भीड़ भाड़ थी कि राम चरन को होश ही न था। बातें कहां हुईं?” रमा तनिक लजा गई थी। “आज एकांत में बातें होंगी। मैं ये पोशाक उसे भेंट करूंगी। मंदिर में जब पहनेगा तो तू देखना ..”
“वो है कहां मंदिर में?” राजेश्वरी ने बात काटी थी।
“चला गया?” रमा ने चौंक कर पूछा था।
“नहीं, गया तो नहीं है!” राजेश्वरी शरारती स्वर में बोली थी। “सुंदरी उसे भगा ले गई!” राजेश्वरी खूब हंसी थी। “दोनों ने शादी कर ली है। अब जैसलमेर में हनीमून मना रहे हैं।”
“और मंदिर ..?”
“सब कुछ सुमेद ने संभाल लिया है।” राजेश्वरी की आवाज में गजब का गर्व था।
और रमा का दिल बैठ गया था।
राम चरन को चाह गई थी रमा। उसने सोच लिया था कि अब वो राम चरन को खरीद लेगी। मंदिर में उसे मिलता भी क्या था? रमा के साथ आने पर तो एक साम्राज्य खड़ा होता था। दोनों मिल जाते तो दोनों की जिंदगी सुधर जाती। लेकिन सुंदरी ..?
“सुंदरी तो रानी है!” रमा से रहा न गया था तो बोली थी। “फिर उसने क्यों पकड़ा इसे?”
“इसी को तो इश्क कहते हैं माई डियर रमा!” राजेश्वरी बन कर बोली थी। “ढोलुओं की नाक पर मक्खी बैठ गई बहिन! थू-थू हो रही है। लेकिन सब चुप हैं। कुंवर साहब बेचारे करते भी तो क्या? अरे भाई आधे की मालकिन है!” राजेश्वरी ने पूरी कथा सुना डाली थी।
रमा से सहा न गया था और वह लाया पैकेट वहीं छोड़ चलती बनी थी।
“मैं चलती हूँ।” कह कर रमा ने अपनी कार स्टार्ट की थी और सर्राटे से निकल गई थी।
रमा की आंखें भर आई थीं। एक अफसोस बार-बार उठता था और उसे आहत कर जाता था। बार-बार शराबी राजा के शरीर से उठती गंध उसे चोट पहुंचाती थी। बार-बार वो अपनी तकदीर को कोसती। भरे पूरे संसार ने उसके लिए एक मन भावन पुरुष भी न दिया था। क्या करती रमा उस धन माल का और प्राप्त शौहरत का?
“बहकना बंद करो रमा!” आज फिर से उसका अंतर बोला था। “मांगने से कुछ नहीं मिलता!” वह स्वयं को समझा रही थी। “ढोलू शिव किसी को कुछ नहीं देते – मिलना या कि न मिलना पहले से ही तय होता है!” वह स्वयं को सुनाती जा रही थी। “क्या पता! मंजिल तो अभी बाकी है!” एक आशा किरन लौटी थी।
आशा किरन के दिए उसी उजाले में रमा अपने घर सुरक्षित लौट आई थी।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड