अमरपुर आश्रम को अपनी समाज सेवाओं के क्षेत्र में अद्भुत सफलताएं मिली थीं।
जहां एक ओर संस्कृत महाविद्यालय देश के युवाओं को मुफ्त में शिक्षा प्रदान कर रहे थे और साहसी और चरित्रवान नागरिक बना रहे थे वहीं श्रावणी मां औषधालय आयुर्वेद के प्रचार प्रसार के साथ साथ मुफ्त सेवाएं उपलब्ध करा रहे थे। लोगों को महंगाई की मार से बड़ी राहत मिली थी। समाज एक नई जीने की राह पर चल पड़ा था।
मन मग्न ध्यान में डूबे स्वामी पीतांबर दास ने अचानक एक प्रकाश बिंदु को देखा था।
“प्रणाम पीपल दास जी।” स्वामी पीतांबर दास ने पुलकित मन से उनको सत्कार दिया था। “मेरे लिए आदेश?” उन्होंने सीधा सीधा प्रश्न पूछा था।
“स्वयं शरीर छोड़ दोगे तो सीधे स्वर्ग जाओगे!” पीपल दास बताने लगे थे। “परम पुरुष में लीन होने के बाद तुम भी परम पुरुष का ही हिस्सा होगे!” पीपल दास विहंसे थे। “पूरी हुई तुम्हारी साधना! तुम सनातन का पुनर्जन्म करने के लिए ही तो जन्मे थे।”
“पर मैंने तो कुछ किया ही नहीं!” स्वामी जी ने आंखें खोलते हुए कहा था। “करता तो कोई और ही है पीपल दास जी – मैं जानता हूँ।”
“यही होता है वत्स!” हंस गए थे पीपल दास।
“लेकिन मैं अब कहां जाऊं और कैसे जाऊं?” स्वामी जी पूछ रहे थे।
“चंद्रप्रभा के गर्भ से पैदा हुए थे, तुम! उसी में समाधि लेकर समा जाओ!” कह कर पीपल दास चलते बने थे।
शंकर को आया देख वंशी बाबू तनिक चौंके थे। पहला ही अवसर था जब शंकर स्वामी जी की कोई फरियाद लेकर आया था।
“आप को याद किया है स्वामी जी ने!” शंकर ने संक्षेप में संदेश दिया था।
“कोई गड़बड़ ..?”
“पता नहीं!” शंकर ने उत्तर दिया था।
लेकिन वंशी बाबू का न जाने क्यों मन डोल गया था। अमरपुर आश्रम का तो डंका बजा था। स्वामी जी की सेवा भी ..? वंशी बाबू कोई अनुमान न लगा पाए थे।
“क्या आदेश है स्वामी जी?” वंशी बाबू हाथ जोड़े खड़े थे।
“हमें अब जाना होगा वंशी बाबू!” एक अलौकिक मुस्कान बिखेरते हुए स्वामी जी बोले थे। “हमारी जल समाधि शनिवार शाम के चार बजे बनी है। मां चंद्रप्रभा में हम विलीन हो जाएंगे। आप उचित प्रबंध कराएं।” कह कर स्वामी जी चुप हो गए थे।
वंशी बाबू की समझ में सब कुछ समा गया था। एक सत्पुरुष संन्यासी का इससे अच्छा अंत होता भी तो क्या?
अमरपुर आश्रम के लिए ये एक अनूठा उत्सव था। शनिवार के दिन सुबह से ही लोग आने लगे थे। चंद्रप्रभा के दोनों किनारे भीड़ से भरे थे। लोग पेड़ों पर भी चढ़े थे। स्वामी जी का गुणगान हो रहा था। स्वामी जी को फूलों में सजाया गया था और बड़ी धूमधाम के साथ स्वामी जी चंद्रप्रभा में सीढ़ियां उतरने को आतुर थे।
“स्वामी ..!” कांपते होंठों से श्रावणी मां ने उन्हें संबोधित किया था। स्वामी जी ने श्रावणी मां की आंखों में कहीं आभार के आंसुओं को लटकते देखा था। शायद ये आंसू उनके लिए नहीं – पीतू के आभार के आंसू थे।
“व्यामोह से बचो, साध्वी!” स्वामी जी ने कहा था और सीढ़ियां उतर गए थे।
स्वामी जी के दर्शन स्पर्श के लिए भीड़ उतावली बावली हो उठी थी।
शाम की भक्ति सभा में अंजली के करुण स्वर गूंजे थे तो अविकार ने साक्षात निर्वाण को गा दिया था। वह शाम सुबह तक चली थी। कल्याण और भक्ति के गीत बजते रहे थे, स्वामी जी को पुकारते रहे थे ओर उनकी दिखाई सुझाई जीने की राह को रेखांकित करते रहे थे।
भक्ति मार्ग के बाद – मुक्ति मार्ग क्या था – ये स्वामी पीतांबर दास ने स्वयं सिद्ध करके बताया था।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड