तारों की छांव तले, खुले आसमान के नीचे, चंद्रप्रभा के किनारे बनी कुटिया में आज पीतू और गुलनार फिर से मिल रहे थे।
दोनों के मनों में भूडोल भरा था। दोनों अतिरिक्त रूप से सजग थे। दोनों के बीच बहुत कुछ घट गया था। बहुत कुछ था जिसे दोनों फिर से जान लेना चाहते थे। जहां उनका प्रगाढ़ परिचय रहा था वहीं आज अंधा अज्ञात बीच में खड़ा था।
उनका प्रथम मिलन स्थल – कमरा नम्बर चौबीस अचानक ही उनके पास आ खड़ा हुआ था। तब वो दो प्रेमी थे। उनके बीच प्रेम भावनाओं के समुंदर तैर रहे थे। दो आकुल-व्याकुल प्रेमी एकाकार होने के लिए बेताब थे। लेकिन आज जहां के इस अजीब एकांत में उन दोनों के बीच शंकर खड़ा था। दोनों मुक्त और उन्मुक्त हो कर मिल नहीं पा रहे थे।
गुलनार चुप थी। पहला प्रहार स्वामी जी ने ही किया था।
“क्यों फेंका था मुझे नदी में, गुलनार?” बड़े ही शांत और उदार स्वर में स्वामी जी ने प्रश्न पूछा था। “तुम से ये उम्मीद तो नहीं थी।” स्वामी जी तनिक से मुसकुराए थे।
गुलनार जैसे जल उठी थी। बमक आई थी भीतर से। बबलू की सगाई का वही वीभत्स दृश्य उठ खड़ा हुआ था। लोग कह रहे थे – इस पव्वा का बेटा ही तो है। वो … वो रहा – पव्वा। और फिर सारा गुड़ गोबर हो गया था। सगाई टूट गई थी। लोग उनके ऊपर थूक कर लौट गए थे।
“बेड़ा गर्क कर दिया इस बेवकूफ बाप ने!” बबलू की आवाज में दर्प था, बेताबी थी और निरा पश्चाताप था। “मैं .. मैं मर जाऊंगा मां! मैं जीऊंगा नहीं अब!” सुबकता रहा था बबलू।
“मैं हूँ न बबलू!” बबलू के सर पर स्नेह का हाथ रख कर गुलनार ने दिलासा दिया था। “धीरज मत खो बेटे।” गुलनार ने उसे मनाया था। “बाप है तो है! उसे बदला तो नहीं जा सकता?”
“हटाया तो जा सकता है?” बबलू का प्रति प्रश्न था। “ये गाड़ी नहीं चलने देगा मां!”
“बेकार आदमी है।” सुधीर, दूसरा बेटा भी बोल पड़ा था। “सूअर की तरह गंधाता रहता है। न नहाता है, न धोता है!”
“कचौरियां कौन बनाएगा?” गुलनार ने पीतू के कौशल का जिक्र किया था।
“छत्तीस कारीगर डोलते हैं मां!” छोटा सुमेर कहने लगा था। “ये आदमी चलेगा नहीं।”
बच्चों ने बाप के खिलाफ विद्रोह कर दिया था।
“क्या करती मैं?” रुआंसी हो आई थी – गुलनार। “तुम थे – सुनते ही न थे!” हिलकियां बंध आई थीं गुलनार की। “बाप बेटों के बीच में – मैं ..”
“घाटे का सौदा क्यों करती?” स्वामी जी ने हंस कर वाक्य पूरा किया था। “हां गुलनार! हम मनुष्य बहुत स्वार्थी हैं। हम अपना फायदा पहले देखते हैं। चार बेटे थे – धन माल खूब था और कचौड़ियों का चलता व्यापार था। फिर पीतू के गायब हो जाने से क्या फर्क पड़ता था?”
स्वामी जी की हंसी ने गुलनार को घायल कर दिया था।
“बहक गई थी मैं स्वामी!” गुलनार का स्वीकार था। “माया मोह ने मेरी मति हर ली थी। मैं चार बेटों को लेकर न जाने कौन से साम्राज्य बनाने निकल पड़ी थी। लेकिन ..” गुलनार का गला रुंध गया था। उसके हाथ पैर कांपने लगे थे। सच का सामना करती-करती गुलनार अब जीना न चाहती थी। पति पुरुष को प्राण दंड देना का अपराध कोई कमतर गुनाह न था – वह आज आ कर समझ पाई थी।
स्वामी जी ने महसूसा था कि आज वो दोनों एक ऐसे दोराहे पर आ खड़े हुए हैं जहां उनका मिलन उनके विछोह से बतिया रहा है। लेकिन उन्हें जीने की कोई राह नहीं सूझ रही है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड