जहां आश्रम श्रावणी के उत्सव की उमंगों से चहक रहा था वहीं गुलाबी और मंजू की एक मीटिंग के बाद दूसरी मीटिंग चल रही थी।
मंजू और गुलाबी ने मिल कर नारी निकेतन की सभी महिलाओं को पुनः विश्वास दिला दिया था कि सरोज सेठानी ने आश्रम को खरीद लिया था। वंशी बाबू अब उनके नौकर थे। और ये जो गुलनार श्रावणी सजी थी उनकी चमची थी। वंशी बाबू ने गुलनार को आश्रम की सारी चाबियां सौंप रक्खी थीं – लेकिन क्यों? क्या था गुलनार और वंशी बाबू के बीच जो ..
“ये स्टोर में घुसा ही रहता है – वंशी!” गुलाबी ने जोर देकर कहा था। “आग पानी का क्या संबंध – वह पूछ रही थी।”
“अरे भाई! आश्रम किसी के बाप का नहीं है।” मंजू बताती थी। “जनता का है। जनता का पैसा है। फिर ये सेठानी क्यों बनती है – चौधरी? गुलाबी को श्रावणी मां क्यों नहीं सजाया! बोलो .. बोलो?”
“वंशी उसका आशिक है – इसलिए!” उत्तर गुलाबी ने दिया था। “ये गुलनार ..”
“बला की बेशर्म है!” मंजू ने वाक्य पूरा किया था।
“वक्त आ गया है कि हम आवाज उठाएं!” गुलाबी का स्वर ऊंचा था।
“और गुलाबी को मठाधीश बनाएं!” मंजू कह रही थी। “इन सबकी छुट्टी करते हैं। ये पीतांबर दास तो अनपढ़ मोढ़ा है। इसे आता जाता क्या है? कल से हममें से कोई भी आश्रम में आने वाले श्रद्धालुओं को आशीर्वाद देने लगेगी तो क्या लोग ठीक नहीं होंगे?”
“होगे! क्यों नहीं होंगे?” गुलाबी ने मंजू का समर्थन किया था। “ये कला और करिश्मा आश्रम का है न कि इस गंवार पीतांबर दास का! ये कौन है, कहां से आया है – ये तो किसी को नहीं पता!”
धीरे धीरे आग सुलगने लगी थी। षड्यंत्र का रूप स्वरूप अब सामने आ रहा था। मंजू का प्रस्ताव – कि गुलाबी मठाधीश बनेगी, सब को अच्छा लगा था। सरोज सेठानी का अदल कायम हो गया था ये बहुतों को बुरा लगा था।
“ये तो नए नए कायदे कानून चलाती है!” एक ने सरोज सेठानी की शिकायत भी की थी। “मुझे सिखा रही थी कि मैं अपने सास ससुर की सेवा करूं और ..”
“जैसे कि इसने बहुत सेवा की है?” मंजू गरजी थी। “चौड़ा करके आई है। दोनों लोग लुगाई अब आश्रम की रोटी तोड़ते हैं! जेल जाने से बाल बाल बचे हैं – खसम लुगाई! इसकी लड़की ने पटा लिया कुमार गंधर्व को वरना तो ..”
“तभी तो मैं कहूं कि इसने ये क्या माया फेरी?” सावित्री ने अपनी बात कही थी। “ले उड़ी ये लड़की – कुमार गंधर्व को!”
“करोड़पति आसामी है!” सुरेश ने सूचना दी थी।
गुलाबी अब दिवास्वप्न देखने लगी थी।
मठाधीश बनने के बाद तो उसका रौब रुतबा ही अलग होगा – वह मान रही थी। परीक्षित ने तो अब लौटना ही नहीं था। न उसने घर लौट कर जाना था। वहां था भी क्या – जिसके लिए वो लौटती? अब अगर आश्रम उसके हाथ लग जाए फिर तो पौ बारह थे! फिर तो गुलाबी ..
बड़ा ही मोहक और लुभावना स्वप्न था। अगर मंजू तनिक सी और मेहनत करे तो सब काम संपूर्ण हुआ धरा था! किसी में दम न था जो उसे रोक लेता!
“बस एक चिंगारी चाहिए!” मंजू अर्ज कर रही थी। “एक चिंगारी फूटेगी तो सब स्वाहा हो जाएगा! भागते नजर आएंगे – ये सब ओढ़ा मोढ़ा!” हंसी थी मंजू।
“ले आ न कोई चिंगारी?” गुलाबी ने मांग की थी। “बिछा दे बिसात मंजू! जो होगा सो होगा!” गुलाबी का अंतिम निर्णय था।
गुलाबी की आंखों के सामने एक स्वर्णिम संसार उग आया था और अब वह बहकाने लग रहा था। मठाधीश बनने का मन बन आया था – उसका!
अब गुलाबी को जीने की राह नहीं चाहिए थी उसे तो मठाधीश बनने के लिए रास्ता दरकार था।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड