अमरपुर आश्रम सुर्खियों में छाया हुआ था।
सबसे ज्यादा चर्चा में स्वामी पीतांबर दास थे। उनका मात्र आशीर्वाद देना और लोगों को दुसाध्य रोगों से और असाध्य मानसिक तनावों से छुटकारा मिलना ही सबसे बड़ा चर्चा का विषय था। श्री राम शास्त्री द्वारा संस्कृत महाविद्यालयों की स्थापना भी आश्रम का एक ऐतिहासिक कदम था। और अमरीश जी अब देश में स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर आयुर्वेद के प्रचार प्रसार के लिए कटिबद्ध थे।
शिक्षा और स्वास्थ्य – दो ऐसी सेवाएं थीं जिनकी आज समाज को दरकार थी। दोनों सेवाओं को अमरपुर आश्रम अपने खर्चे पर चलाने का संकल्प ले चुका था।
“आप कैसे देते हैं आशीर्वाद स्वामी जी?” पत्रकार ने हंसते हुए पूछा था।
“दाहिना हाथ हवा में उठा कर श्रद्धालु के सर पर रख देता हूँ, बस!” स्वामी जी ने सीधे-सीधे उत्तर दिया था।
जमा लोग हंस पड़े थे। आया पत्रकारों का जमघट तनिक असहज हुआ लगा था। वो किसी भी कीमत पर आज स्वामी पीतांबर दास को नंगा कर देना चाहते थे। आज साइंस का जमाना था। रोग-भोग सबकी जानकारी थी और सबका इलाज था। लेकिन स्वामी जी का आशीर्वाद हर रोग-भोग की एक मात्र दवा थी – ये कैसे माना जा सकता था?
“आप की शिक्षा-दीक्षा क्या है स्वामी जी?” दूसरे पत्रकार ने प्रश्न दागा था।
“मैं निरक्षर हूँ!” स्वामी जी ने मुसकुरा कर बताया था। “न मुझे लिखना आता है और न पढ़ना!”
“लेकिन क्यों? आप स्कूल तो गए होंगे बचपन में?” एक प्रश्न और आया था।
“नहीं” स्वामी जी का सीधा उत्तर था।
“लेकिन क्यों?”
“इसलिए कि मेरी सौतेली मां – कानी ने मुझे घर से मार कर निकाल दिया था। मैंने आधी रात को घर छोड़ दिया था। मेरे पिताजी ने कभी मेरी खोज खबर ही न ली!”
सब चुप थे। एक सन्नाटा घिर आया था। पत्रकारों के चेहरे लटक आए थे। स्वामी जी का बयान किया सच उन सब को बेध रहा था।
“क्या आप को कोई सिद्धि प्राप्त है स्वामी जी?” फिर से प्रश्न आया था।
“नहीं! प्रभु की कृपा से ही सब कुछ होता है। मैं प्रभु की प्रकृति के साथ एकाकार हूँ। परिस्थितियों वश ये सब हुआ है।” स्वामी जी ने बताया था।
निरुत्तर हुए पत्रकार अब स्वामी जी की कुटिया के चित्र उतार रहे थे।
“आप को आश्रम से क्या मिलता है स्वामी जी?” एक खोजी पत्रकार ने पूछ ही लिया था।
“दो अल्फी और चार लंगोटी देते हैं – वंशी बाबू!” हंसते हुए स्वामी जी ने बताया था। “साल में एक बार नई कुटिया छा दी जाती है – बस!”
“आश्रम का इतना पैसा कहां जाता है?”
“वंशी बाबू से पूछिए। वो खजांची हैं। पाई-पाई का हिसाब रखते हैं। बहुत कंजूस हैं।” स्वामी जी खुलकर हंसे थे।
“हम कैसे मान लें स्वामी जी कि ..”
“आज शनिवार है। आज के कीर्तन में शामिल हो जाइए! भक्ति रस का आनंद उठाइए! आप फिर सब कुछ समझ जाएंगे – मैं वायदा करता हूँ।” स्वामी जी ने पत्रकारों को निमंत्रण दिया था। “और हां! किन्हीं शंकाओं को साथ लेकर मत आइएगा! भक्ति भावना का असर स्वच्छ मन पर होता है!” स्वामी जी ने समझाया था।
आनंद पूर्वक जीना कितना आसान हैं – अचानक जीवन की उलझी घुंडी पत्रकारों को सुलझ गई दिखाई दी थी। प्रभु और प्रकृति के साथ एकाकार होना ही एक मात्र विकल्प था – उनकी समझ में आ गया था।
जीने की राह बहुत सरल है – लेकिन समझ में आ जाए तब!

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड