“सेंट निकोलस और अमरपुर आश्रम हम दोनों के साथ-साथ के सहयोग से अवस्थी इंटरनेशनल की नई नींव डालेंगे, अंजू!” अविकार ने अपने जेहन में बहते विचारों का खुलासा किया था। “मेरे लिहाज से न पूरब गलत है न पश्चिम! सूरज तो दोनों का है।” वह मुसकुराया था। “उदय और अस्त में भी तो वही दिखता है जो ..”
“वनस्थली को क्यों भूल गए?” अंजली ने चुहल की थी। “स्त्री और पुरुष भी तो एक दूसरे के पर पूरक हैं।”
“हां, हैं तो!” अविकार ने सहज स्वीकार किया था। “मैं तो चाहता ही यह हूँ अंजू कि तुम मेरे साथ कंधे से कंधा मिला कर चलो! पापा और अंकल अमरीश दो थे और हम भी दो हैं!” प्रसन्न था अविकार। “लेट्स टेक अवर लाइव्ज टू ए लॉजिकल एंड!” अविकार ने मांग सामने रख दी थी।
अंजली प्रसन्न थी। अविकार उसके मनसूबों के अनुरूप ही था। उसकी भी तपस्या सच थी। और अब वह अविकार के सामंजस्य में ही जीना चाहती थी – हर पल – हर क्षण! अविकार ही अब उसका सर्वस्व था।
“अवस्थी इंटरनेशनल में हम कुछ नए प्रयोग भी करेंगे, अंजू!” अविकार का सुझाव था।
“वो क्यों?”
“ये कि .. मैं न जाने क्यों सेंट निकोलस के व्यक्ति वाद से नाखुश हूँ।” अविकार गंभीर था। “मैं चाहता हूँ कि हम अपने सहयोगियों के साथ उनके सुख दुख भी बांटें! हम घाटे मुनाफे को कोई अलग नाम दें! हम ..”
“पूंजी का व्यापार के साथ सांप और सीढ़ी का संयोग है, अवि!” अंजली भी अब गंभीर थी। “पूंजी को बचा कर चलना तभी संभव है जब सांप की आंख से उसे ओझल रक्खा जाए!” वह बता रही थी। “हां! सुख में साझा करना और बात है और न दुख में सहारा देना गुनाह है। लेकिन पूंजी किसी के सुख दुख की कायल नहीं होती। मुनाफा जहां आपको मालामाल कर देता है वहीं घाटा ..”
“और तब बात फिसल जाती है।”
“हां!” अंजली ने स्वीकारा था। “घाटा आया तो फिर वह बेरहमी से बर्बाद कर देता है।” अंजली ने अपनी बात पूरी कह दी थी।
अविकार आश्चर्य चकित था। उसे अंजली से इस प्रकार के वार्तालाप की कतई उम्मीद न थी। लेकिन अंजली तो बाप की बेटी थी। शायद अजय अवस्थी की उन ऊंचाइयों तक पहुंचने में अमरीश अंकल का ही हाथ था। एक और एक दो नहीं ग्यारह होते हैं बेटे – अविकार को अचानक ही अजय अवस्थी का कथन याद हो आया था। अंजली की समझ की बलिहारी जाता अविकार बेहद प्रसन्न था।
“वनस्थली को जिता दिया तुमने अंजू!” अविकार ने परिहास किया था।
“इट इज इन डिमांड!” अंजली हंस पड़ी थी। “आज की स्त्री के लिए यही आदेश है, अवि!” अंजली ने एक सच को सामने रख दिया था।
अविकार स्नेह सिक्त आंखों से अंजली को देखता ही रहा था।
“अगर बेटा हुआ तो मैं उसे सेंट निकोलस नहीं भेजूंगा अंजू!” अविकार ने एक नई मांग सामने रख दी थी। “मैं .. मैं तो उसे अपने साथ सुलाऊंगा! मैं उसका घोड़ा बनूंगा .. मैं .. उसका ..” भावुक था अविकार। “सच अंजू! मैंने कितना-कितना मिस किया था पापा को! और जब लौट कर आया तो ..” अविकार की आंखें गीली थीं।
अंजली अविकार के उद्गार से अछूती न रह पाई थी।
“और अगर बेटी हुई तो मैं भी उसे वनस्थली नहीं भेजूंगी अवि! उसे कलेजे के साथ चिपका कर सुलाऊंगी और वो सुख दूंगी जो बच्चे को दरकार होता है! मैं उसकी तोतली-पोतली बातें सुनूंगी, उसकी गुड़िया के लिए कपड़े सिलूंगी और ..”
“और मेरा हक, मेरा हिस्सा न बांटोगी?”
“तुमने भी तो नहीं बांटा! बाप बेटे अकेले अकेले ..?”
“ओ अंजू यू आर टेरेबल!” जोरों से हंसा था अविकार।
आज वो दोनों मिल कर जीने की नई राह का नया निर्माण कर रहे थे।
दोनों प्रसन्न थे।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड