दूर दृष्टि के छोर पर जब वो लंबी चौड़ी कार आ कर रुकी थी तो कुमार गंधर्व का मन त्राहि-त्राहि कर उठा था।

शनिवार था। कीर्तन होना था। अंजली आ चुकी थी। इसके सिवा कुमार गंधर्व को जैसे और कुछ दरकार ही न था। उसका मन प्राण खिल उठा था। एक पुलक भर गया था – शरीर में। अंजली के स्पर्श उसे याद हो आए थे। उसका मन मान रहा था कि अंजली का प्रेम गंगा जल समान पवित्र था। अंजली आज तक उसी के इंतजार में ..

“और गाइनो?” एक प्रश्न आ खड़ा हुआ था।

“फ्रॉड!” कुमार गंधर्व का बेबाक उत्तर था। “ए सेक्स सिंबल!” उसने अपना मत बताया था।

अचानक ही कुमार गंधर्व के अंतर में दो प्रकार के हिलोरें उठने लगी थीं। एक थी – गाइनो द्वारा मचाई हलचल जिसे विनाशकारी सेक्स स्कैंडल कहना कोई जुर्म न था। गाइनो उसे नहीं उसके वैभव को समेटना चाहती थी। उसे पागल बना कर ताउम्र पागलखाने में छोड़ कर भाग जाना चाहती थी।

और अंजली? प्रेमाकुल अविकार के अंतर में भक्ति रस में डूबी अंजली आज उसके लिए अंजान नहीं थी। अंजली तो प्रेम की उपासना का दूसरा नाम थी। अंजली एक उदाहरण थी उस सती नारी का जो आज भी सत युग के आने के इंतजार में बैठी थी। अंजली का मात्र एक स्पर्श उसे तरंगित कर गया था जबकि गाइनो के साथ हुई सेक्सुअल जंग उसे हमेशा ही प्यासा छोड़ जाती थी।

आज भी और दिनों की तरह आश्रम में अपार भीड़ थी। अंजली के आने के बाद तो माहौल स्वयं ही जीवंत हो उठा था।

“राधे तू बड़भागिनी कौन तपस्या कीन!” कुमार गंधर्व ने अंजली को आंखों में भर कर गाया था। “तीन लोक चौदह भुवन सब तेरे आधीन!” उसने हाथ उठा कर राधे की महिमा का गुण गान किया था। “राधे राधे!” फिर लयबद्ध राधा की उपासना का आरंभ हुआ था तो आसमान तक हिल गया था।

और अंजली ने भी आज कमाल किया था।

“मेरो तो गिरिधर गोपाल – दूसरो न कोई!” गाते गाते अंजली भाव विभोर हो गई थी। भक्तों को भी अंजली ने गिरिधर गोपाल का मुरीद बना दिया था।

और जब रात के एकांत में अंजली और अविकार मिले थे तो प्रेम की कई अछूती रस्में पूरी हुई थीं। तारों की छांव में सब कुछ घटा था। स्पर्श से लेकर सहयोग तक की चर्चा चली थी। और फिर विछोह से लेकर प्रेम मिलन तक का सफर गाया गुनगुनाया था। अब बारी आई थी हकीकत से हाथ मिलाने की!

“कैसे .. कैसे मैं मुंह दिखाऊंगा अंकल जी को, अंजली!” अविकार क्षत-विक्षत था। “मैंने तो उनपर आरोप मढ़े कि उन्होंने अपराध किया! पापा मम्मी की मौत का – उस एक्सीडेंट का ..” अविकार रोने रोने को था।

“चिंता मत करो!” अंजली ने सहज भाव से कहा था। “मां का तो मन उमड़ा पड़ रहा है – अपने दामाद से मिलने के लिए!” वह खिलखिला कर हंस पड़ी थी। “सच मानो अवि! मां का बस चले तो तुम्हारे नाम पूरा चराचर लिख दें!” वह बताती रही थी। “और पापा!” तनिक ठहर कर अंजली ने अविकार की आंखों में देखा था। “पापा के लिए तो तुम वही अवि हो जिसे वो कंधों पर बिठाए-बिठाए सारा शहर घूम आते थे। याद है न तुम्हें?”

“हां! मुझे सब याद है अंजू।” अविकार ने लंबी सांस भरी थी। “लेकिन .. लेकिन मुझसे गलती तो ..”

“तो मुझसे माफी मांग लो न!” अंजली ने सारा अवसाद हंसी में उड़ा दिया था।

दोनों मिल कर खूब हंसे थे। आज उनका बचपन भी साथ आ बैठा था।

जीने का सही अर्थ और सही रास्ता आज उन्हें पहली बार नजर आया था।

Major krapal verma

मेजर कृपाल वर्मा

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