वह बिजली का खंबा जहां हम हर शाम आ कर मिलते थे – हमारी जन्नत था।
विनीत अपने टूटे फटे स्कूटर पर आता था तो मैं मात्र उस स्कूटर की आवाज से ही अनुमान लगा लेती थी कि ये विनीत का ही स्कूटर है। तब मैं लवली की लगाम पकड़े आहिस्ता आहिस्ता चल कर उस खंबे तक पहुंचती थी। मेरे पैरों में पर लगे होते थे। मेरे दिल की धड़कनें तेज – तेज और तेज होती चली जाती थीं। यहां तक कि लवली भी जान जाता था कि अब हम विनीत से मिलेंगे और विनीत उसे जाते ही – हैल्लो फ्रेंड कहेगा और प्यार करेगा। लव मी लव माई डॉग – विनीत हर बार कहता और हंस जाता था।
विनीत आते ही अपनी दिन भर की जंग का जिक्र करता। बाजार में कितनी मारा-मारी थी और किस तरह चार पैसे कमा लेना कठिन काम था – वह बताता रहता। लेकिन मैं विनीत की मुस्कान की कायल होती रहती। मैं विनीत की मोहक आवाज सुनती रहती। मैं विनीत में कुछ और ही तलाशती रहती। उस तलाश का नाम था – प्यार, लगाव, जुड़ाव और चाहत! क्या मुझे विनीत चाहता है – मैं केवल इतना ही जान लेना चाहती थी।
“क्यों चले आते हो – रोज रोज?” मैं विनीत से पूछ लेती।
“मैं .. मैं पता नहीं क्यों तुमसे बिना मिले घर जा ही नहीं पाता, विनम्र!” विनीत अपनी चाहत बताता। “और तुमसे मिल कर न जाने क्यों अपने सब गम-गायले भूल जाता हूँ।” वह इजहार करता।
और मैं? क्यों रहता था मुझे विनीत से मिलने का इंतजार? क्यों मैं चाहती रहती थी कि सूरज जल्दी ढले, शाम उतरे और हमारा मिलन हो! और तो और मैं पूरे दिन ही विनीत से बतियाती रहती। आज मैंने ये बनाया – आज हमने ये खाया के अलावा मैं विनीत को बताती रहती कि मां को मेरा छुप छुप कर तुमसे मिलना ज्ञात है! अभी बाबूजी को पता नहीं है। लेकिन जिस दिन उन्हें पता चलेगा उस दिन तो तूफान आएगा विनीत।
“क्यों?” विनीत पूछ लेता।
“इसलिए कि बाबू जी – माने श्री नीलकंठ पाटीदार एक विख्यात व्यक्ति हैं। उनकी अकेली पुत्री विनम्र बड़ी ही चरित्रवान और सधी-समझी बेटी है। वो उसका विवाह किसी संभावित राजकुमार के साथ रचाएंगे!”
“लेकिन विनम्र मैं तो .. मैं तो शेयर मार्केट में मात्र एक दलाल हूँ!” विनीत धीमी धीमी आवाज में बोलता था। “यार! ये मार्केट का उतार-चढ़ाव ..”
“डरते क्यों हो?” मैं खूब हंसती थी। “कमाती तो किस्मत है!” मैं कहती थी। “दो दिल मिलते हैं तो एक दूसरी किस्मत बनती है। देख लेना विनीत ..”
और मन ही मन मैं अपने इष्ट को मनाती कि मेरा कहा सच हो जाए! हमारे दिल मिल जाएं, हमारी एक बुलंद किस्मत बन जाए और हम दोनों इस दुनिया के शहंशाह बन जाएं! सच में ही पूरा का पूरा दिन सपने बुनने में बीत जाता। मैं विनीत से एक पल के लिए भी जुदा न होती।
“जल्दी क्या है!” एक दिन मैंने मां को बाबूजी से कहते सुना था। “अकेली बेटी है – हमारी! रिश्ता सोच समझ कर करेंगे!”
“पागल हो!” बाबूजी बिगड़े थे। “लड़का डिप्टी-कमिश्नर है!” वो बताने लगे थे। “हमारी विनम्र राज करेगी। आज कल तो ..”
“विनम्र से तो पूछ लेते!” मां ने सुझाव सामने रक्खा था।
“क्या? विनम्र से क्या पूछूं?”
“यही कि ..” मां कहते कहते रुक गई थीं।
और मैं ..? काटो तो खून नहीं! ए दइया अब मरी कि जब मरी! मेरी सांस रुक गई थी। अगर बाबूजी पूछ बैठे तो क्या बताऊंगी? कैसे कहूँगी कि मैं विनीत से प्यार करती हूँ, उसे मन प्राण से चाहती हूँ और उसके बिना नहीं रह सकती हूँ और .. और ..
“लवली!” मैंने लवली को गोद में भर लिया था। “तुम तो जानते हो लवली कि ..” मैं हिचकियां ले रही थी। “अब क्या होगा? हे ईश्वर! हे ..” मेरे होंठ कांप रहे थे।
अब शाम हो कर ही न दे रही थी। सूरज ढलना ही न चाहता था। मेरी सांस अधर में लटकी थी। और जब विनीत आया था तो मैं थर्रा गई थी। अब क्या हो – मैंने स्वयं से पूछा था।
“कोई डिप्टी-कमिश्नर है! बाबू जी उससे मेरी शादी ..” मैं चुप हो गई थी।
“कर लो!” विनीत ने सूखे से मुंह से कहा था।
“क्या ..?” मैं चीख पड़ी थी। मुझे विनीत से ये उम्मीद नहीं थी। “तो जाओ!” मैं बिफर पड़ी थी। “खड़े क्यों हो?” मैं आपा खो बैठी थी। “मरी का मुंह देखने आ जाना ..”
विनीत खड़ा खड़ा मुझे देखता रहा था। उसने लवली से भी कोई संवाद नहीं किया था। वह भी जैसे सकते में आ गया था।
“मैंने ये तो नहीं कहा ..” बड़ी देर के बाद विनीत बोला था।
“और क्या कहोगे?” मैं पैर पटक रही थी।
बड़ी देर के बाद हमारा सुलहनामा हुआ था। उस दिन – उन्हीं पलों में और लवली की सहमति के साथ हमने आजीवन साथ साथ रहने का वायदा किया था। मामला मैंने ही सुलझाना था और विनीत को बाबूजी के सामने नहीं आना था।
“लड़का देखने मत जाइये बाबू जी!” हिम्मत बटोर कर मैं बोली थी। “मैं .. मैं शादी विनीत से करूंगी!” एक सांस में मैंने अपनी बात कह दी थी।
“क्या ..?” बाबू जी गरजे थे। “ये क्या कह रही है यशोदा?” उन्होंने मां की ओर देखा था। “कौन है ये विनीत? क्या तुमने देखा है?”
मां थर थर कांप रही थी। बोल ही न पाई थी।
“तुम्हारी शादी वहां होगी जहां मैं चाहूँगा!” बाबू जी ने ऐलान किया था।
“नहीं! मैं शादी केवल विनीत से करूंगी! वचन दे चुकी हूँ! मैं न मुड़ूंगी!”
और बाबू जी आग बबूला हुए घर से एक तूफान की तरह भाग सड़कों पर बिखर गए थे। उन्होंने जमाने को देखा था। चलती हवा को दुतकारा था। नए चलन को गरिया दिया था। लेकिन फिर शांत हो गए थे। चुप हो गए थे और संभल गए थे।
“बेटी का मामला है!” मां ने उन्हें चुपके चुपके समझाया था। “इससे पहले किसी को कानों कान खबर लगे शादी कर देते हैं।”
“बाबू जी मान गए हैं!” मैंने जब विनीत को उस शाम बताया था तो उसने हर्षातिरेक से मुझे बांहों में भर लिया था। मेरी गोद से उछल कर लवली विनीत के कंधे पर जा बैठा था। यह यों आलिंगन बद्ध होने का हमारा पहला ही मौका था। बाकी तो लवली ..
“ये जूनियर श्री नीलकंठ पाटीदार है!” विनीत ने कंधे पर बैठे लवली को सराहा था। “मजाल है कि भाई ..!” विनीत ने अब मेरी आंखों में आग्रही भावों से झांका था।
“अभी नहीं!” मैंने लवली को वापस गोद में भर लिया था। “शादी के बाद!” मैं हंस गई थी।
और बाबू जी ने सच में ही मेरा स्वयंवर रच दिया था। खुद ही एक कहानी ईजाद कर ली थी कि बेटे वाले स्टॉक एक्सचेंज में जाने माने शेयर ब्रोकर थे और उनका बड़ा बेटा विनीत सारा कारोबार संभालता था।
बाबू जी ने हमारी गृहस्ति बसाई थी। मां ने मोहित के जन्म पर मेरा जापा किया था और बाद में मनु के जन्म पर भी वो मेरे साथ थीं। दोनों बच्चे नानी के साथ जुड़े थे। और उनका मन भी बिना बच्चों के नहीं लगता था। बाबू जी का वक्त सहज में कट रहा था। वो खुश तो थे पर हर पल उन्हें मेरी चिंता सताती रहती थी।
लेकिन जब विनीत ने व्यापार में बेजोड़ सफलता हासिल कि थी तो बाबूजी बल्लियों कूदे थे।
लेकिन आज हमें हमारा सब कुछ जाता लगा था।
विनीत जैसे घाटे के घाव झेल नहीं पा रहे थे। मैं उनकी तीमारदारी में लगी थी लेकिन ..
“बाबू जी ..?” मैंने डरते डरते विनीत से पूछा था।
“नहीं!” विनीत साफ नाट गए थे। “इट्स माई प्रॉब्लम! विन और लूज बट आई विल फाइट द केस!” विनीत ने स्पष्ट कह दिया था। “बेईमानी हुई है मेरे साथ! बड़ा हाथ लगा था इसलिए ..” विनीत की आवाज कांप रही थी।
“खाना लगा दूँ?”
“नहीं! भूख नहीं है! तुम खा लो! सो जाओ! लीव मी अलोन!” कह कर विनीत बैड रूम में चले गए थे।
तभी अचानक बाबू जी का फोन आ धमका था।
“कैसी है हमारी बिट्टा?” बाबू जी पूछ रहे थे।
मेरा मन रोने रोने को था। मैं बाबू जी से कहना चाहती थी कि ..
“क्यों, क्या हुआ?” बाबूजी पूछ रहे थे। “झगड़ा हुआ है विनीत के साथ?” उनका प्रश्न था।
“मोहित और मनु कहां हैं?” मैंने स्वर को संयत कर पूछा था।
“क्यों? नानी के साथ ठाठ से सो रहे हैं!” बाबूजी तपाक से बोले थे। “लेकिन तू क्यों रो रही है?”
“नहीं नहीं! मैं रो नहीं रही हूँ! वो .. विनीत ..”
और तभी विनीत बेडरूम से बाहर आ गए थे। मुझे चलती निगाहों से घूरा था और घर से बाहर चले गए थे। मेरा दम सूख गया था। मैं फड़फड़ा कर रोने लगी थी।
“क्यों क्या हुआ विनम्र? रो क्यों रही हो?” बाबूजी की आवाजें फोन पर आ रही थीं। “मैं आ जाता हूँ!”
“न .. नहीं बाबू जी! सब ठीक हो जाएगा। कहीं ऑफिस में कुछ हो गया है!” मैंने उन्हें सूचना दी थी और फोन काट दिया था।
आज पहली बार मुझे ईश्वर याद आया था। मैं पूजा पर आ बैठी थी। मैं परमेश्वर से विनीत की लंबी उमर की भीख मांग रही थी। मैं रह रह कर टूट जाना चाहती थी। मैं चाहती थी कि ..
फोन फिर बज उठा था। मैं जानती थी कि बाबूजी ही थे।
“नहीं लौटा अभी तक?” बाबूजी पूछ रहे थे। “ग्यारह बजने को हैं! तुमने खाना भी नहीं खाया होगा?” उनका प्रश्न था। “देखा! मैं न कहता था कि विनम्र ये लव मैरिज चलती नहीं है! लड़का लालची है। वह जानता है – अकेली बेटी है पाटीदार की। खूब माल मिलेगा”
“बाबू जी ..!!” मैंने फोन काट दिया है।
नहीं – विनीत लालची नहीं है! विनीत कहीं से भी घटिया नहीं है! विनीत मेरे लिए मरा जीता है। विनीत आहत है क्यों कि वो ईमानदार है, अच्छा सच्चा आदमी है और उसे ठगा है लोगों ने। इसलिए ..
फोन फिर बज उठा है। मन हुआ है कि काट दूं। बाबूजी का ही होगा, मैं जानती हूँ, लेकिन फिर सोचा कि शायद विनीत हों! मैंने फोन उठा लिया है।
“तू क्यों अपने प्राण देती है विनम्र!” बाबू जी नाराज हैं। “तू भी चली आ! बच्चे तो हैं ही यहां! मौज से रहेंगे – हमें क्या?”
“नहीं बाबू जी!” मैं तनिक नाराज हूँ। “मैं विनीत को किसी भी कीमत पर छोड़ नहीं पाऊंगी! मैं विनीत को ..”
“पागल लड़की!” कोसने लगे हैं बाबू जी। “देखती नहीं हो कि लव मैरिज में क्या क्या गुल खिल रहे हैं। म..म..मैं ..”
मैंने फोन काट दिया है। समूची रात मैं सो नहीं पाई हूँ। कई बार फोन की घंटी बजी है पर मैंने उठाया नहीं है! सुबह होते ही मैं पूजा पर बैठ गई हूँ। मेरे मन प्राण में तो विनीत ही अटके हैं! उपासना भी विनीत के लिए ही कर रही हूँ ..
तभी घर की घंटी बजी है। मैंने दौड़ कर दरवाजा खोला है। विनीत ही हैं। चेहरा खिला खिला है। हाथ में अखबार पकड़ा है।
“चाय लाऊं?” मैंने एक किलक लीलते हुए पूछा है।
“हां! चाय तो पीएंगे!” विनीत बोले हैं तो मैं किचन में दौड़ गई हूँ।
“और सुनो विनम्र! बड़ी भूख लगी है आलू पूड़ी बना लो!” विनीत जोरों से चिल्लाए हैं।
मैं किचन से लौटी हूँ। मैं जानती हूँ कि आलू पूड़ी की डिमांड विनीत तभी करते हैं जब कोई खुश खबर होती है।
“क्या है खुशखबरी?” मैंने गलबहियां डालते हुए विनीत से पूछा है।
“ये देखो अखबार! आई एम द विनर!” विनीत बोले हैं।
“सच?”
“सच विनम्र!” विनीत ने कहा है तो मैं विनीत से लिपट कर खुशी के आंसुओं से रोई हूँ!