चंद्रप्रभा के साथ अविकार का अनूठा नाता जुड़ गया था। अपने पुनर्जन्म के लिए वह चंद्रप्रभा का आभारी था।
“कभी लौटोगे कि नहीं ..?” अचानक अविकार ने महसूसा था कि चंद्रप्रभा के उस किनारे पर खड़ा सेंट निकोलस प्रश्न पूछ रहा था। उसके हाथ में हंटर था। अविकार को अपना गुनाह याद हो आया था। वह बिना छुट्टी लिए भाग आया था।
समस्त विगत अविकार के पास आ खड़ा हुआ था।
सेंट निकोलस जहां पढ़ाई लिखाई के लिए प्रसिद्ध था वहीं अपने अनुशासन के लिए भी बदनाम था। अगर टाई की नॉट भी गलत बंधी हो तो पनिशमेंट मिलता था। अगर जूते ठीक से पॉलिश न हों तो गजब हो जाता था। यहां तक कि बालों में कंघी करना भी एक हुनर था।
“ना ना! मैं नहीं लौटूंगा!” अविकार ने साफ तौर पर कहा था।
“कॉरपोरेट नहीं बनना चाहते?” प्रति प्रश्न आया था।
“नहीं!” अविकार का उत्तर था। “मैं संन्यासी हूँ। मैं अब तुम्हारे उन पचड़ों में नहीं पड़ूंगा जहां तुम आदमी को मशीन बना देते हो – धन कमाने की मशीन!” अविकार तनिक सा मुसकुराया था। “मनुष्य को मनुष्य बनने ही नहीं देते तुम!”
अविकार भूला नहीं था जब हर इतवार को छुट्टी के दिन चर्च जाते थे और सूली पर लटके ईसा मसीह के दर्शन करते थे। उन पलों में भी उसे ईसा मसीह कन्हैया नहीं मामा कंस द्वारा सूली पर लटकाया कृष्ण लगा था।
अचानक ही अविकार के कानों में राम धुन गूंजने लगी है। सहसा उसे याद हो आता है आश्रम का भोजन-भजन और जीवन शैली! कितनी भिन्न है सेंट निकोलस के उस कृत्रिम जीवन क्रम से!
“अमरीश अंकल ने पापा वाली गलती नहीं की थी – अविकार को याद हो आता है! अंजली तो वनस्थली में चली गई थी। पता नहीं ..”
“सब समेट लेगा ये तुम्हारा अंकल – अमरीश, अवि!” न जाने कहां से गाइनो कूद कर उसके सामने आ गई थी। “मैं .. मैं और तुम ..”
“तुम जाओ गाइनो!” अविकार का स्वर संयत था। “मैं अब मुक्त हूँ .. भगवान का भक्त हूँ .. एक संन्यासी हूँ!” वह कहता रहा था। “मन ही नहीं करता यार कि इस परम सुख को छोड़ कर तुम्हारे उस नरक में ..”
अविकार ने चंद्रप्रभा के उस किनारे से निगाहें फेर ली थीं। लंदन का वो सेंट निकोलस और न जाने कहां की गाइनो अचानक गायब हो गए थे।
“तनिक सी भी सुर साधना कर लोगे अविकार तो तुम एक श्रेष्ठ गायकी के धनी होगे!” गुरु अविराज कौशल का आग्रह आया था। “थोड़ा समय हर रोज मुझे दो!” उनकी मांग थी। “तुम एक प्रतिभा के धनी हो जिसे आज तक किसी ने नहीं परखा, पुत्र!”
गुरु अविराज कौशल आज अन्य तरह से भावुक हो आए थे। उनका अविकार के साथ अविकार के साथ लगाव-जुड़ाव अचानक ही बड़ा हो गया था। अविकार अब पूर्णतया स्वस्थ था। उसका ऋषि कुमारों सा रूप-स्वरूप सभी को भाता था। मृदुभाषी अविकार चाहे अनचाहे सब का प्रिय बन गया था और अब अविराज कौशल भी चाहते थे कि वो उनके आश्रम का आभूषण बने!
वो पहला शनिवार था जब स्वामी पीतांबर दास ने अविकार को स्टेज पर गाते सुना था।
“गदगद हुआ मैं अविकार बेटे!” स्वामी जी ने अविकार को बांहों में भर लिया था। “हे प्रभु! आप ने मेरा मान रख लिया!” उन्होंने आसमान पर इंतजार में खड़े परमेश्वर का धन्यवाद किया था।
“आज से हमारा आश्रम स्नात हुआ – भक्तराज!” वंशी बाबू बोले थे। “आज से मैं भी निश्चिंत हुआ!” वो हंसे थे। “आश्रम अब तुम्हारा हुआ, भक्तराज!” वो बे हिचक बोल गए थे।
अविकार आज एक नए अवतार की तरह अवतरित हुआ था।
भक्ति मार्ग ही सच्ची जीने की राह थी – यह भी सिद्ध हो गया था।

मेजर कृपाल वर्मा