ये एक कितना सुखद आश्चर्य है कि मैं और गुलनार फिर से आ मिले हैं!

हम पति-पत्नी हैं लेकिन आश्रम में हम दो अजनबी की तरह रह रहे हैं। हम एक दूसरे को जानते हैं लेकिन हमें और कोई नहीं जानता। यादें हैं – यादें ही यादें हैं – अनगिनत यादें हैं और वो आत्मीय पल भी हैं जिन्हें मैंने और गुलनार ने साथ साथ जिया था। लेकिन अब उनका जिक्र तक नहीं हैं। हम मौन हैं।

आंखें अनायास ही मिल जाती हैं। कुछ कहती हैं तो कुछ सुनती हैं। संवाद भी पैदा हो जाते हैं लेकिन कहे सुने नहीं जाते। दोनों ओर से प्रतिक्रिया वर्जित है, अबोला है और कुछ अनिश्चित आदेश हैं कि हम दोनों होने न होने के इस भ्रम को जीएंगे। वो प्रेम वत्सल पल अब कभी नहीं लौटेंगे। वो अकाट्य पति-पत्नी का संबंध अब हमें कभी नसीब नहीं होगा। तुम्हें क्या क्या मिला था – याद करो और सोचो ..

“हां! हम एक थे तब और अब दो हो गए हैं।” मैं स्वीकार कर लेता हूँ। “अब मैं पीतू नहीं स्वामी पीताम्बर दास बन गया हूँ जिसे आश्रम के बर्तन घिसने वाली गुलनार छू भी नहीं सकती। जबकि पीतू कभी पव्वा बन गया था – गंदा-संदा और गंधाता पव्वा। और उसे बबलू ने चंद्रप्रभा के मझधार में फेंक चलाया था और यही गुलनार हंसती रही थी।”

नहीं! मैं गुलनार से प्रतिकार चुकाने की बात नहीं कर रहा हूँ।

लेकिन उस वक्त का जिक्र करना भी जरूरी है जब गुलनार को घमंड था अपने चार बेटों का और चार पैसों का! तब उसके लिए उसका पति प्रासंगिक नहीं रहा था और पैसा ही सब कुछ था और अगर आज मैंने गुलनार को छू भी दिया तो मैं अपने आसन से डिग जाऊंगा – मैं ये भी जानता हूँ।

“तो क्या ये अपराध होगा?” मैंने स्वयं से पूछा है। “क्या अगाध प्रेम का अस्वीकार्य सही है? मैंने तो कभी भूल कर भी गुलनार से नफरत नहीं की। मैंने कभी भी उसके साथ कोई फरेब नहीं किया। मैं तो .. मानता हूँ कि गुलनार की महत्वाकांक्षा ही उसे ले डूबी!”

और गुलनार ही क्यों हम सब का एक ही रोग है – हमारी ये महत्वाकांक्षा जो मौका पाते ही हदें पार कर जाती है।

आज का अलंकार है – धन, मान, कोठी-बंगले और कारखाना! हमें प्यार और सद्भाव से ज्यादा प्रतिष्ठा प्यारी है, फिर वो चाहे जिस मोल मिले! आज की इस पान-प्रतिष्ठा की आड़ में अपराध करना आसान हो गया है। हमारी आत्मा भी अब असहाय है क्योंकि हमारा व्यामोह इतना बढ़ गया है कि हम ..

उपाय क्या है इस रोग का?

“गोपाल जय जय बोलो गोविंद जय जय!” मैं हंस रहा हूँ। “राधा रमण श्री गोविंद जय जय!” मैं जोरों से गाने लगा हूँ।

“कीर्तन इज ए फरफैक्ट क्योर ऑफ अवर क्रीड एंड ग्रीड, स्वामी जी!” मुझे अविकार का कहा संवाद याद हो आता है। “मुझे तो कीर्तन ने जीवन दान दे दिया! पागल हो गया था मैं – आप तो जानते हैं ..” वह कहता रहा था।

नफरत होने पर आदमी हर अच्छाई को भूल जाता है। बबलू और गुलनार भी मुझसे नफरत करने लगे थे और पीतू उनके लिए गंधाता वा पव्वा बन गया था जिसे फेंक चलाना उनका अभीष्ट था। गुलनार को क्या पता था कि मैं मरूंगा ही नहीं और यहां आ कर उसे इस हाल में मिलूंगा कि ..

परमेश्वर ही महान हैं क्योंकि वो पता नहीं लगने देते हमें कि अगला दृश्य कौन सा आएगा। यही उनके इस संसार का सबसे बड़ा रहस्य है – जिससे जीवात्मा बंधा रहता है। उसे परमात्मा के अनंत के आगे अपना अंत याद ही नहीं रहता!

मेरी और गुलनार की कहानी का क्या अंत होगा?

प्रश्न का उत्तर तो है पर है परमेश्वर के पास!

यहां से आगे भी क्या हमारी जीने की कोई पृथक राह है जो अचानक चल पड़ेगी और हम दोनों ..

ईश्वर वक्त आने से पहले कभी उत्तर नहीं देते!

मेजर कृपाल वर्मा

Discover more from Praneta Publications Pvt. Ltd.

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading