“स्वामी जी, प्रणाम!” श्री राम शास्त्री ने बड़े ही विनम्र स्वर में मुझे सत्कार दिया है।
मैं गदगद नहीं हुआ हूँ। मैंने श्री राम शास्त्री के चालाक चेहरे पर लिखा सारा वृतांत पढ़ लिया है। मैं चुप हूँ। लेकिन मुझे अचानक ही शंकर की आवाजें सुनाई देने लगती हैं।
“जाना ही नहीं चाहता वो तो!” शंकर बता रहा था। “खूब पैसे ऐंठता है – लोगों से।” हंसा है शंकर। “पागल बनाता है। लेकिन वंशी बाबू ने इसकी झंडी टाइट कर दी है। अब तो जाएगा!” शंकर प्रसन्न हो कर बता रहा था।
“मैं आपके पढ़ने के लिए वेदांत मीमांसा लाया हूँ।” भोली मुसकुराहट के साथ वो फिर बोले हैं। “आप तो प्रकृति पुरुष हैं! अपने लिए कुछ न लेते हैं न सहेजते हैं!” वह मेरी प्रशंसा कर रहा है। “लेकिन ये वेदांत मीमांसा ..”
“मुझे तो पढ़ना लिखना आता ही नहीं शास्त्री जी!” मैंने सादा स्वभाव में उसे सूचना दी है। लाई पुस्तक वेदांत मीमांसा को मैं कई पलों तक उंगलियों से सहलाता रहा हूँ। सुंदर पुस्तक है। लेकिन मैं तो काला अक्षर भेंस बराबर हूँ।
“लेकिन क्यों? बचपन में तो .. आप ..?”
“कानी ने धक्के मार कर घर से निकाल दिया था।” मैंने उन्हें बताया है। “पिताजी कानी के गुलाम थे। और मैं था – उसका नौकर! पराया पूत था न .. इसलिए ..” अब मैंने निगाहें उठा कर उसके सामने सब उजागर कर दिया है।
श्री राम शास्त्री के लिए हैरानी की बात है। मैं – एक अनपढ़ सन्यासी एक इतने बड़े आश्रम को चला रहा हूँ और लोग मुझसे आशीर्वाद लेने खिंचे चले आते हैं!
“विचित्र कथा है!” बड़ी देर के बाद बोले हैं श्री राम शास्त्री!
“नहीं! सामान्य सी बात है!” मैंने भी सहज भाव में कहा है। मैं कहना तो चाहता था कि आप को भी तो बहू-बेटों ने घर से निकाल बाहर किया था। लेकिन किसी के घाव कुरेदना साधु के स्वभाव में नहीं होता। “संसार इसी तरह से चलता है।” मैंने कह दिया है।
किसी गहरे सोच में डूबे हैं शास्त्री जी। अपने भीतर की कुंठा को कह नहीं पा रहे हैं। लेकिन रह भी नहीं पा रहे हैं – क्यों कि ..
“मैं एक प्रार्थना लेकर आया था।” बड़े संकोच के साथ वो बोले हैं। मेरे अनपढ़ होने की बात ने उन्हें तनिक सा बल दिया है।
“वंशी बाबू ने ..” वो कह रहे हैं। “मैं यह नहीं कहता कि वंशी बाबू गलत हैं! लेकिन स्वामी जी हमें भी तो अधिकार है कि ..”
“यहां तो जनता का अधिकार है! हमारा नहीं – मेरा भी नहीं! आश्रम वासियों को ही हक है कि वो ..”
“लेकिन मुझे तो जाने के लिए कहा जा रहा है?”
“तो चले जाइए!” मैंने दो टूक उत्तर दिया है।
“लेकिन कहां जाऊं?” शास्त्री जी पूछ रहे हैं।
“यही प्रश्न तो कठिन है! अचानक जीने की राह जब गुल हो जाती है तो और राह सूझती ही नहीं! मैं तो इस चंद्र प्रभा में बहते – डूबते – उछलते यहां पहुंचा था!” मैं शास्त्री जी को बताता हूँ। “अब तुम कहां पहुंचोगे – कोई नहीं जानता!
हां! समय तो जानता है कि कौन कहां पहुंचेगा! वह तो बता सकता है। अब तुम्हारे लिए भी कोई नई राह खोलेगा तो अवश्य!”

मेजर कृपाल वर्मा