एक लंबी दौड़ भाग के बाद सुधीर ने जुहारी की लाश को खोज निकाला था।
लाश की गर्दन पर विक्रांत की उंगलियों के निशान थे। जाहिर था कि विक्रांत ने ही जुहारी को मारा होगा। और अगर विक्रांत ने जुहारी को मारा था तो विक्रांत को किसने मारा था? उत्तर में बार बार कासिम बेग का ही नाम आ रहा था। लेकिन अभी तक सबूत कोई नहीं मिला था।
“श्रेया कहां है?” प्रेस में आम प्रश्न पूछा जा रहा था।
पोपट लाल का दिया बयान उसके गले की फांसी बन गया था। जुहारी की मौत 27 की रात को पोपट लाल की पार्टी के दौरान हुई थी। लेकिन पोपट लाल ने बयान उलटा दिया था। उसके बयान के मुताबिक तो विक्रांत श्रेया को लेकर चला गया था। लेकिन ..
तीस तारीख को विक्रांत ने जहर खाकर आत्महत्या की थी – पुलिस के बनाए इस केस की प्रेस और पब्लिक ने धज्जियां उड़ा दी थीं।
प्रशासन के ऊपर बहुत प्रेशर आ रहा था!
“खोजो रमेश दत्त को!” पुलिस को आदेश मिल रहे थे। “जुहारी उसी का आदमी तो था।” उनका कहना था। “रमेश दत्त को जुहारी के साथ 27 की पार्टी में देखा गया था – यह तथ्य भी एक बारगी उजागर हो चुका था।”
पोंटू ने खूब दौड़ भाग की थी लेकिन सुधीर ने उसके पैर उखाड़ दिए थे।
सुधीर के साथ अब प्रेस और जनता दोनों आ गए थे। अत: पोंटू ने डर की वजह से समीर को परिवार सहित गायब कर दिया था। पोंटू की ड्रग्स की फैक्टरी के बारे भी खबरें आने लगी थी। उसने फैक्टरी पर ताला मार कर सब लोगों को छुट्टी पर भगा दिया था।
पोंटू ने सारी जानकारी रमेश दत्त को दे दी थी।
“पोपट लाल के खिलाफ एफ आई आर क्यों नहीं लिखी जा रही है?” ये प्रेस और जनता दोनों पूछ रहे थे।
“जुहारी की कहानी मनगढ़ंत है!” पुलिस का कहना था। “विक्रांत की लाश का पोस्टमार्टम सुविख्यात डॉ. मोहन राज ने किया था। विक्रांत के शरीर से जहर भी बरामद हुआ था। बाकायदा उसे अस्पताल में लाया गया था और डॉक्टरों ने देखभाल की थी। और फिर विक्रांत के नौकर चाकरों की मुकम्मल गवाहियां थीं। पुलिस का केस पक्का है!” पुलिस का दावा था।
कासिम बेग लखनऊ में सी एम के साथ बैठ कर अपनी गोटें चल रहे थे।
“आप को मुस्लिम वोट चाहिए तो हुजूर हमारी बात माननी पड़ेगी। सरकार डूब जाए तो फिर हमसे मत कहना!” कासिम बेग ने दो टूक कहा था।
ये कलेजा दहलाने वाली धमकी थी। सी एम भी जानते थे कि उनकी जीत मुस्लिम वोटों पर ही टिकी थी। हिन्दुओं ने तो उन्हें हराने का मन बना लिया था। और अगर ये मुस्लिम भी ..
“भाई! हमने तो हमेशा से आप लोगों की खिदमत की है।” सी एम साहब का स्वर बहुत ही विनम्र था। “जो चाहे सो ले लेना यार!” उन्होंने उदार होते हुए कहा था। “सरकार बनेगी तो वहां भी आप लोगों को जगह देंगे! फिर ये दंगे फसाद क्यों करा रहे हो?”
“मुस्लिमों के साथ नाइंसाफी होती है, हुजूर!” कासिम बेग ने तोहमत लगाई थी।
“कौन कहता है?” सी एम तुरंत बोले थे। “पूछो मुनीर राणा से! जो मांगा है हमने सब दिया है। मुनीर का हाथ मैंने कभी नहीं रोका, बेग साहब! दरियाफ्त कर लें आप ..”
कासिम बेग प्रसन्न था। वोट क्या था – जैसे कोई तोप थी। कोई काटने वाली दो धारी तलवार थी। और मुसलमानों ने चुपके चुपके वोट बैंक को खूब बढ़ा लिया था। कुछ ही दिनों की बात थी। एक बार पचास परसेंट पर वोट बैंक आ जाए फिर तो राज ही हमारा होगा! विश्वास होने लगा था कासिम बेग को कि ..
“मौलाना ठीक ही कहते हैं!” कासिम बेग ने मन ही मन सोचा था। “गजवाए हिंद हो जाना कोई बड़ी बात नहीं थी। हिंदू तो आज भी गाजर मूली ही थे। उन्हें हटाना या काट फेंकना कोई बड़ी बात न होगी!” उसे जंच गया था।
सी एम की मीटिंग के बाद सब लोग मिले थे।
“अब क्या हुक्म है नवाब साहब?” मुनीर ने पूछा था।
“काम जोर शोर से चलाया जाए!” कासिम बेग ने आदेश दिए थे। “दिल्ली तो अभी तक नहीं हिली है दोस्तों!” हंसा था कासिम बेग। “हमारी जंग दिल्ली तक जानी चाहिए। हमें तो दिल्ली को दहलाना है और दिल्ली को हथियाना है।” साफ साफ कहा था कासिम बेग ने।
“कासिम!” मौलाना का फोन था। “सुस्ती क्यों है?” वो पूछ रहे थे। “तुम लोग कर क्या रहे हो? छोटे मोटे हाय हल्ला से कुछ न होगा!”
“मार-काट ..?” कासिम बेग ने डरते डरते पूछा था।
“हां हां! जोर शोर से जुट जाओ! पैसा आ रहा है। फिकर मत करना! दिल्ली को पता तो चले कि ..”
मौलाना ने फोन काट दिया था।
बंगला बहुत सुंदर था। सामने बगीचा था और आस पास खुला खिला रम्य वातावरण था।
अकेली नेहा का ये निवास था। नौकर चाकर सेवा में प्रस्तुत थे। सब के सब मुसलमान थे – ये नेहा ने पहचान लिया था। उन्हें नेहा की हर जरूरत का पता था और हर आराम का खयाल था। कहीं कोई चूक न थी।
“ना ना बेगम!” कमली ने नेहा को वर्जा था जब वो बगीचे की सैर करने के लिए निकली थी। “दंगे फसाद हो रहे हैं चारों ओर!” कमली ने सूचना दी थी। “नवाब साहब का हुक्म है कि आप पर्दे में ही रहें!” वह तनिक हंस गई थी। “हुस्न भी क्या है आपका – माशा-अल्लाह ..” कमली स्वयं ही शर्मा गई थी।
नेहा की समझ में कुछ न आ रहा था। खुड़ैल की ये कोई चाल तो थी लेकिन ..
“सलाम बेगम साहिबा!” अचानक ही एक दुबला पतले आदमी ने आकर नेहा की सलाम बजाई थी।
नेहा ने उस आदमी को बड़े गौर से देखा था। आश्चर्य हुआ था उसे कि कुछ जाना पहचाना लगा था। उसकी आवाज भी अलग न थी। लेकिन समझ न आ रहा था कि उस आदमी की पहचान कहां की थी और ..
“मैं मुसाफिर हूँ!” उस व्यक्ति ने अपना परिचय दिया था। वह मंद मंद मुसकुराया था। फिर उसने पूछा था। “पहचाना तो नहीं होगा आपने?”
“नहीं!” नेहा ने धीमे स्वर में डरते डरते कहा था।
“नवाब छतारी से तो कभी मिली होंगी?” उसने प्रश्न पूछा था। वह हंस गया था।
अचानक ही नेहा के जेहन में नवाब छतारी कूद कर आ खड़ा हुआ था। हां हां – वह महसूस रही थी कि ये आदमी वही था जिसने नवाब छतारी बन कर ..
“अरे रे आप!” नेहा ने सहसा अपने आश्चर्य को संभालते हुए कहा था। “आप और यहां?” नेहा पूछ बैठी थी।
“हां बेगम! वो सामने जो दिख रहा है मेरा ही गरीब खाना है!” मुसाफिर ने सगर्व बताया था। “महर हो गई नवाब साहब की वरना मुझे तो मेरे बेटे ने ही खाने खराब कर दिया था।” मुसाफिर बताने लगा था।
“तशरीफ रखिए!” नेहा ने कुछ समझते हुए मुसाफिर से बैठने को कहा था। “कमली!” उसने आवाज दी थी। “एक कुर्सी ला दे जरा!” नेहा ने हुक्म दिया था।
नेहा के सामने बैठा मुसाफिर तनिक सिकुड़ने लगा था।
“अच्छा घर बार बसा लिया है – आपने ..!” नेहा ने यूं ही कहा था।
“बस यूं समझिए बेगम साहिबा कि मेरा नसीब अच्छा था जो मैं नवाब साहब की खिदमत कर बैठा!”
“कौन सी खिदमत?”
“अरे, वो .. वही बेगम साहिबा ..!” तनिक हिचका था मुसाफिर। “वो .. वो आपका बॉम्बे मेटरनिटी होम वाला लिफाफा!” उसने बयान किया था। “उसी के लाने की एवज में नवाब साहब ने मुझे निहाल कर दिया।” वह हंस पड़ा था।
अपलक नेहा मुसाफिर को देखती ही रही थी।
“लेकिन .. लेकिन मैं तुझे अभी श्राप दूंगी, दानव!” नेहा का अंतर बोल रहा था। “तूने जिसके लिए ये अपराध किया है वही तेरा सर कलम करेगा!”
“मैंने भी नई शादी की है।” मुसाफिर बताने लग रहा था। “नई उम्र की है दुल्हन।” उसने हंसते हुए कहा था। “ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं है। बाप गरीब था सो मैं ले आया उसे। बेटे को भगा दिया है। अब अकेला रहता हूँ उसके साथ। खूब सेवा करती है। ज्यादा पढ़ी लिखी औरत किसी काम की नहीं होती – बेगम साहिबा!” मुसाफिर जोरों से हंसा था।
एक आश्चर्य अचानक ही नेहा की आंखों में उमड़ आया था।
“आदमी की औरत पाने खाने की भूख कितनी बेशर्म होती है!” नेहा सोचती जा रही थी। “कब्र में पैर टिके हैं मुसाफिर के लेकिन उसे आज भी औरत ही चाहिए – अनपढ़ औरत, सेवा चाकरी करती औरत ओर मुर्गी की तरह अंडे बच्चे देती औरत और ..”
“मैं चलता हूं बेगम साहिबा!” मुसाफिर उठा था और जाने को था। “कोई सेवा हो तो जरूर बताएं! मैं आदमी बहुत काम का हूं!” वह हंसते हंसते चला गया था।
अकेली बैठी बैठी नेहा का मन कुर्सी से उठने के लिए नहीं कह रहा था।
“अब एक कदम भी चलना गलत है नेहा!” फिर से उसका अंतर बोला था। “याद हैं न बाबा के बोल – चली जाओ बेटी! काम करोगी तो मन बदलेगा! दो पैसे भी हाथ आएंगे! क्योंकि बाबा को भी घर में बैठी जवान बेटी बोझ लगने लगी थी। मजबूर बाप ही अपनी बेटी को आंख बंद कर कूअें में धकेल देता है! ये कैसी विडंबना है – औरत की?” नेहा की आंखें भर आई थीं।
“तुम्हारा बाबू तो मर गया!” एक सत्य ने आकर नेहा को गले से पकड़ लिया था। “अब ये खुड़ैल तुम्हें नोच नोच कर खाएगा और खूब खूब सताएगा! एक अनपढ़ औरत की तरह तुम्हें भी अब ..”
“विद्रोह ..?” नेहा की समझ ने उत्तर दिया था।
“मत करना नेहा! कोई हनुमान नहीं आएगा अब! जब तुम्हारा राम ही मर गया तो अब ..?”
आंखें बंद किए नेहा सती नारियों के चरित्रों के बारे सोचती ही रही थी।
मेजर कृपाल वर्मा