“हैलो, समीर!”

“कौन ..? दत्त साहब!” उछल पड़ा था समीर। उसका मलिन चेहरा चमक उठा था। “अ .. आप! कब लौटे कैलीफोरनिया से सर?” समीर ने गहक कर पूछा था।

“कैसा चल रहा है, सब?” दत्त साहब का स्वर संयत था।

“सब चौपट हो गया सर!” समीर की आवाज रुलाई में टूट आई थी। “वो .. वो .. हमारा हीरो मजिंदर एडवांस ले कर भाग गया सर!” समीर बताने लगा था। “जो पैसे आपने दिए थे सब उड़ गये – यूं ही!” उदास था समीर। “जहां थी वहीं अटकी है रंगीला। मैं .. मैं तो .. हार गया हूँ दत्त साहब!” समीर जैसे टुकड़ों में टूट टूट कर दत्त साहब के सामने बिखर गया था। “मेरी कोई मदद नहीं करता! मैं अकेला ..”

“दीदी कहां है?” अनायास दत्त साहब का प्रश्न आया था।

“जहन्नुम में!” रोष से भर आया था समीर। “मर गई मेरे लिए तो ..” उसने कोसा था नेहा को।

रमेश दत्त ने फोन काट दिया था।

जन्नत जहांगीर को बहुत अजीब लगा था। दत्त साहब जो चंद पल पहले शोलों से दहक रहे थे एक दम बुझ गए थे – राख हो गए थे। उनकी आंखों में कोई गम घुस आया था। कुछ तो था जो उन्हें भीतर तक घायल कर गया था।

“कौन है .. मेरा मतलब ये कौन सी बला है – नेहा ..?” रुकी थी जन्नत जहांगीर।

“तो तुम नेहा को नहीं जानती हो?”

“नहीं!”

“फिर जानती क्या हो?” रमेश दत्त ने जन्नत की ओर से आंखें फेर ली थीं।

रमेश दत्त को लगा था कि नेहा जहां उसे प्यासा छोड़ कर चली गई थी वह आज भी वहीं खड़ा था। ये जन्नत जहांगीर कोई जन्नत नहीं थी। सुंदर तो थी – बला की खूबसूरत थी लेकिन थी इमोशनलैस। शी वॉज ए डैड वुड। उसे तो शऊर से संवाद बोलना तक नहीं आता था। ओर ये जन्नत जहांगीर अब पूछ रही थी कि ..

“तुम्हें नेहा की फिल्म देखनी चाहिए और सीखना चाहिए कि ..” दत्त साहब का स्वर बहुत कठोर था।

“द हैल विद यू एंड योर नेहा!” जन्नत ने मन में कहा था और रूठ कर चली गई थी।

बंबई में कन्हैया ने धमाल मचा दिया था। उसका बांसुरी के साथ खिंचा फोटो और उसका वो संवाद – हमार तो कछु नाहीं बाबूजी! अनाथ हैं हम ..! जब उसने कहा था तब लोगों को उम्मीद बंधी थी कि काल खंड फिल्म जगत में एक नए अवतार की तरह उदय होगी।

प्रेस विक्रांत और नेहा की तलाश में मारा मारा डोल रहा था।

“अगर ये फिल्म काल खंड रिलीज हो गई तो बॉलीवुड खंड खंड हो कर बिखर जाएगा।” शिब्बू का कहना था। “भूखों मरेंगे हम लोग!” उसका कयास था। “लोगों का पिक्चर देखने का जायका ही बदल जाएगा।”

“मिट्टी डालो इस पर दत्त साहब!” मुगली ने कहा था। “आपके हाथ तो खूब लंबे हैं। यही मौका है वरना तो ..”

“नेहा कहां है?” रमेश दत्त ने अनायास ही प्रश्न पूछा था।

“कोरा मंडी याद आ गई क्या?” गुल्लू ने हंस कर पूछ लिया था। “मत बनाओ इसे अब दत्त साहब।” गुल्लू की राय थी। “इस काल खंड की आग को बुझाने का पहले इंतजाम करो।” गुल्लू तनिक गंभीर था। “अगर ये फिल्म रिलीज हो गई तो हिन्दू मुसलमान सड़कों पर भिड़ जाएंगे – देख लेना आप!”

“मुसलमानों को नंगा कर दिया है – इस पाजी विक्रांत ने!” पोपट लाल ने सच्चाई बयान की थी।

रमेश दत्त को गहरा सदमा लगा था।

“कितना अजीज और अपना ख्वाब था – गजवा ए हिंद!” कोई रमेश दत्त के कान में कह रहा था। “बस .. पूरा होने में थोड़ा ही और वक्त लगना था।”

अचानक ही बॉलीवुड पर पड़ी नकली नामों और असली इरादों की चादर किसी ने उठा कर फेंक दी थी। अब पायजामे में सब नंगे खड़े थे। नकली इरादों को लेकर असल में आती फिल्में अचानक ही बेमजा हो उठी थीं। सारे फिल्म निर्माता और वितरक विक्रांत को ही कोस रहे थे।

“मिलकर ही कुछ कर पाएंगे मित्रों!” रमेश दत्त की आवाज गंभीर थी। “मैं .. मैं कोशिश करता हूँ। हो सकता है कि दिल्ली से कोई मदद मिल जाए।” उन्होंने आश्वासन दिया था।

“भाई को क्यों नहीं कह देते?” मुजीब का सुझाव था। “वह चाहेगा तो .. इस विक्रांत का भी इलाज कर देगा।”

मुजीब ने बहुत बड़ी बात सब के सामने कह दी थी।

वहीं पर कुछ लोगों को विक्रांत की लाश पड़ी दिखाई दी थी तो वहीं कुछ लोगों ने विक्रांत को आसमान की बुलंदियां छूते देख लिया था।

लेकिन भविष्य आंख बंद किए बैठा ही रहा था।

साहबजादे सलीम का फोन आ रहा था। रमेश दत्त का पारा चढ़ने लगा था।

“फरमाइए सलीम साहब!” स्वर को संयत कर रमेश दत्त बोले थे।

“नेहा आ गई?” सलीम का सीधा प्रश्न था।

रमेश दत्त सांस साधे खड़े ही रहे थे। उनका मन तो था कि सलीम को खूब गालियां दें। खूब कहें कि तुम्हारी वजह से ही सब चौपट हुआ है। कोरा मंडी को ग्रहण तुम्हीं ने लगाया है। लेकिन संयम से काम लेना ही उन्हें उचित लगा था।

“नहीं!” संक्षेप में उत्तर दिया था दत्त साहब ने।

“कहां है?”

“मैं नहीं जानता!”

“कब तक लौटेगी?”

“कौन जाने!” कहते हुए दत्त साहब ने फोन काट दिया था।

बंबई को अपने हाल पर छोड़ कर दत्त साहब आजमगढ़ भाग आए थे।

कितना सुकून था, कितनी शांति थी यहां आजमगढ़ में – आज पहली बार ही कासिम बेग ने महसूस किया था। रमेश दत्त के नकली किरदार को निभाते निभाते वो तंग आ गए थे। और ये पल – जब वो कासिम बेग थे, नवाब साहब थे और अपनी एक मिल्कियत के मालिक थे – अपने आप में ही एक जन्नत थी। जो शाही खुशबू उन्हें यहां आ कर मिलती थी वो बंबई में कहां थी। उनकी नवाबी थी, अदब अदायगी थी, तमीज तहजीब भी थी .. और भी उनका वैभव था – बगीचे थे .. जमीन जायदाद थी ओर उनकी तीन तीन बेगम और उनके बच्चे ..

कासिम बेग का आज मन हुआ था कि किसी तरह से आजमगढ़ को फिर से अपनी रियासत बना लें। जल्द से जल्द गजवा ए हिंद कायम हो जाए और वो नवाब कासिम बेग अपनी रियासत पर काबिज हो जाएं .. और ..

“काल खंड!” अचानक ही उनके दिमाग पर एक हथौड़े की चोट पड़ी थी। “विक्रांत!” फिर से दूसरा हथौड़ा बजा था। “सब का सब बर्बाद हो जाएगा अगर ..?”

वहीं बगीचे में कासिम बेग ने फौरन ही मुसाफिर को बुला भेजा था।

मुसाफिर आया था। बहुत ही थका थका लग रहा था। लगा था – उसे भी कोई न कोई गम खाए जा रहा था।

“क्या हुआ? बहुत कमजोर लग रहे हो!” कासिम बेग ने पूछा था।

“लोंडे ने बर्बाद कर दिया नवाब साहब!” कटे पेड़ की तरह जमीन पर गिरते हुए मुसाफिर बोला था। “अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाया था कि अंग्रेजों की तरह सल्तनत कायम करेगा! लेकिन नालायक ने इस्लाम की भी जड़ें खोद दीं!” दर्द था मुसाफिर की आवाज में।

“पागल है! हम गजवा ए हिंद किस लिए कायम कर रहे हैं? अगर हमारी संतानें ही ..?” रुका था कासिम बेग। उसे भी गहरा सदमा लगा था।

“खैर! आपने कैसे याद किया?” मुसाफिर मुद्दे पर आ गया था। “मैं तो हर किसी को मुसीबत में ही याद आता हूँ।” वह कहने लगा था। “लेकिन .. लेकिन मेरी मुसीबत ..” उसने ठहर कर कासिम बेग को घूरा था। “मजाल है कि आप की बेगम भी ..” होंठ काट लिए थे मुसाफिर ने।

“नहीं भाई! तुम से ज्यादा हमारा अजीज और कौन है? मैं कह दूंगा से ..”

“सरकार के सर पर भी भूत सवार है!” मुसाफिर ने बात मोड़ी थी। “पता भी है कुछ?”

“क्या मतलब?”

“जाएगा अब सब कुछ!”

दंग रह गया था कासिम बेग। आसमान पर कहीं बिजली कड़की थी। उसका दिल हिल गया था। जान सूख गई थी।

“अपनी कहें?” मुसाफिर ने व्यंग करते हुए पूछा था।

“नेहा!” आह रिता कर कह ही दिया था कासिम बेग ने।

“ले बैठेगी आप को नवाब साहब – ये नेहा! मैं कहे देता हूँ कि ..”

“आखिरी बार एक एहसान और कर दो मुसाफिर भाई!” विनती की थी कासिम बेग ने।

“मुंह मांगा लूंगा!” मुसाफिर इस बार शर्त लगाना न भूला था।

“मैं .. मैं कह दूंगा बेगम से!” कातर हो आए थे कासिम बेग के स्वर। “लेकिन इस बार ..?”

“मुझे तो आताल-पाताल खंगालना आता है नवाब साहब!” हंस रहा था मुसाफिर। “कब्र में भी होगी नेहा .. तो ..”

“नहीं नहीं! वो स्वस्थ है। विक्रांत के साथ है। और काल खंड ..”

“मुसाफिर का चाल चक्र कभी चूकता नहीं है – आप तो जानते ही हैं नवाब साहब।” हंस रहा था मुसाफिर। “अब से मेरा जिम्मा रहा।” उठ कर चला गया था मुसाफिर।

आम्र मंजरी से भाग कर आया शीतल पवन का एक झोंका कासिम बेग को छू कर भाग गया था।

मेजर कृपाल वर्मा

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