न जाने कहां से चंद जहाज और कुछ हेलिकॉप्टर आसमान पर उड़ते दिखाई दिए थे। लालू ने उन्हें घूर कर देखा था। उसे हैरानी हुई थी कि ये फिर अपनी जान की बाजी लगाने आसमान पर क्यों चले आए थे? घमंडी इन्हें बख्शेगा तो नहीं?

लेकिन आदमी मौत से नहीं डरता है – ये बात फिर एक बार सिद्ध हुई लगी थी। आश्चर्य हुआ था लालू को। आदमी जितना कायर लगता था उतना था नहीं शायद।

“घमंडी भाई!” शशांक ने चुप्पी तोड़ी थी। “ये खुले कैसे घूम रहे हैं?” उसने आसमान पर मंडराते हवाई जहाजों की ओर इशारा किया था। “क्या हुआ उन तुम्हारे जांबाजों का .. जो ..?”

घमंडी मौन था। उसके पास कोई उत्तर न था। जो समस्या थी वह भी उसकी समझ से परे थी।

“आसमान पर एक अजीब पहरा बिठा दिया है आदमी ने!” घमंडी को ज्ञात था। “हमारा आना जाना बंद कर दिया है। सब मेंड़ों पर बैठे हैं। हारे थके हैं। और अब सोच रहे हैं कि करें तो क्या करें?”

“कौन सा पहरा भाई? कैसा पहरा?” पृथ्वीराज चौंका था। “क्या हुआ घमंडी? खबर क्या है?”

“यही महाराज कि आसमान की ओर आंख उठा कर देखना तक गुनाह हो गया है। देखते ही आंख बाहर आ जाती है।”

“क्या ..?” लालू का जैसे हलक सूख गया था। “ये क्या कह रहे हो भाई?” उसने डूबती आवाज में पूछा था।

“कितने ही बेचारे गिद्ध अंधे हो गए हैं। बहुत सारे मर भी गए हैं और अब ..” घमंडी जारो कतार हो कर रो पड़ा था। “व्यर्थ ही हमने बैठा ऊंट उठाया। हम तो भूखे नंगे ही ठीक थे।”

पहला करुण दृश्य जीत के आसमान पर उभरा था।

“मैं न कहता था वत्स मत गंवाओ अपने गिद्ध!” काग भुषंड ने उलाहना दिया था।

“अभी भी वक्त है” चुन्नी चहकी थी।

“हमला ..! आक्रमण ..!” नकुल ने ऊंची आवाज में कहा था। “महाराज! हमले का हुक्म दो। मणिधर को कहो .. हुल्लड़ को भी बताओ .. और जंगलाधीश को बुलाओ! कहो – एक साथ आक्रमण हो!”

एक गरमाहट पैदा हुई थी। लड़ने की मात्र घोषणा से ही जोश पैदा हुआ था। मैदान में आ गए आदमी से अब बदला उतारने का वक्त आ गया था। अब तो खुली जंग होनी थी।

“हम पूरी तरह से विजयी होने वाले थे महाराज लेकिन ..!” लच्छी का गला रुंध गया था। वह समुद्र मंथन करके लौटी थी। अनेकानेक जहाजों को डुबोने के बाद, पनडुब्बियों को तबाह करने के बाद और हजारों लाखों आदमियों की जान लेने के बाद लौटी थी लच्छी। “न जाने क्या जादू हुआ है कि हमारा तो पानी ही बैरी हो गया है। भीमकाय वेलों और शार्कों की अकारण हुई मृत्यु समझ में नहीं आती! पानी ही पानी नहीं रहा है! विष सा कुछ तीखा और तल्ख बन गया है। कौन जाने .. राम जाने ..!” लच्छी बहकने लगी थी।

“चराचर को नाप कर देखो आचार्य आखिर हुआ क्या है?” पृथ्वीराज अगला कदम उठाने से पहले सब कुछ नाप लेना चाहता था। “क्या है – जो आदमी कर बैठा है?”

गरुणाचार्य गंभीर थे। वह आदमी और उसकी माया से बेखबर नहीं थे। वह समझते थे कि पृथ्वी का स्वामी बना आदमी इतना निपुण था कि उसका धरती पर रहने वाले केंचुए तक की गतिविधि का भी उसे ज्ञान था। फिर इस आए इस जलजले को तो वह नजर अंदाज कर ही नहीं सकता था।

योग माया से गरुणाचार्य ने अपनी दिव्य दृष्टि पसार कर पूरे के पूरे चराचर को नाप डाला था।

“चुंबकीय तरंगों में बांध डाला है धरा को आदमी ने।” गरुणाचार्य ने सारे सबब बताए थे। “एक एक तिनका भी अब हिलेगा नहीं!” उन्होंने घोषणा की थी।

“झूठ बोल रहे हैं आप आचार्य!” काग भुषंड गरजा था। “व्यर्थ की बकवाद है यह!” उसने तुनक कर कहा था। “मुझे कहो! मैं .. मैं इस आदमी को ..” वह घोषणा कर रहा था। “हमें नपुंसक मत बनाओ आचार्य!” उसने गरुणाचार्य को घूरा था। “आप जैसे लोग ही आदमी को श्रेष्ठ बनाते हैं, उसकी दासता स्वीकारते हैं और उसे सर झुकाते हैं।”

“मौका है लड़ने का, जूझने का ओर जौहर दिखाने का!” लालू ने भी काग भुषंड का समर्थन किया था। “ये चुंबकीय तरंगों का तो चोंचला है। ये तंत्र मंत्र तो एक छलावा है। ये कोई चाल है आदमी की!” लालू ने पुरजोर आवाज में कहा था।

संगठित होकर एक साथ आक्रमण करने का सब का मन बन गया था। लड़ाई को तो आर पार की लड़ाई होना ही था। आज जैसा मौका फिर कभी हाथ आना संभव भी नहीं था। आधी से ज्यादा आदमी तो स्वतः ही पागल हो गये थे, कुछ अंधे थे, बीमार थे और कुछ वैसे ही अशक्त हो चुके थे। अब कुछ ही बचे थे तो उन्हें समाप्त करने में लगना ही क्या था? सर्पों का हमला होते ही आदमी के छक्के छूट जाने थे ओर ..

“कठिनाई से सुराग मिला है आपके शिकार का बहिन जी!” छज्जू प्रसन्न होते हुए बता रहा था। “बहुत ही चालाक है ये तेजी!” उसने भोली की आंखों को पढ़ा था। “ओर मक्कार भी इतनी है कि ..” वह रुका था।

“एक बार – बस एक बार मुझे इसकी शक्ल दिखा दो भाई साहब! फिर तो मैं सुलट लूंगी इस सौख से!” भोली ने दांत पीसे थे। “मेरा तो कलेजा जला जा रहा है ..”

“सुबह सुबह दरवाजे के पीछे छुप जाओ!” छज्जू ने सूक्ष्म में कहा था। “बस! हो जाएंगे आप को दर्शन!” वह हंसा था ओर भाग गया था।

“भोर होते ही भाग लेते हैं देवर जी!” तेजी नकुल को समझा रही थी। “गरुणाचार्य का कहा मिथ्या नहीं हो सकता।” उसने अपना मत पेश किया था। “आदमी की आंख से अगर बचना है तो ..”

“भाग लेते हैं भाभी!” नकुल भी अब सहमत था। “बह गया सब!” उसने भी अपना मत जाहिर किया था। “गलती हो ही गई ..” नकुल ने स्वीकार में सर हिलाया था। “अगर वह साला तक्षक कुछ न बकता तो शायद ..?” नकुल पश्चाताप की आग में जल रहा था।

“हां! तब शायद मौका आ जाता कि आदमी मर जाता और हम राज कर पाते!” तेजी ने आंखें तरेरी थीं। “लेकिन अब तो ..?” उसने नकुल को घूरा था।

“अलग से साम्राज्य की संरचना करते हैं!” नकुल ने भी नया सुझाव दिया था।

“मैं और तुम ..!” तेजी ने भी स्वीकारा था। “एक ऐसा साम्राज्य बनाएंगे जिसकी आदमी भी कल्पना न कर पाए! वहां प्रेम, सुख, वैभव ओर सब कुछ होगा। केवल दुख न होंगे और ..”

“और न कोई भगवान होगा!” नकुल ने अपना पत्ता फेंका था। “केवल मैं हूंगा और तुम होगी।”

“हां! और कोई भी नहीं होगा।” हंस रही थी तेजी।

उन्हें अब सिर्फ होने वाली सुबह का इंतजार था।

मेजर कृपाल वर्मा

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