पूर्ण मासी का पूर्ण चंद्रमा मोहन सिंह स्टेट के ऊपर रंगमंच का एक आइटम बना टंगा था।
रंगमंच पर विक्रांत और नेहा साथ साथ बैठे अपने अपने संवाद बोलने के लिए तैयार थे। लेकिन दोनों चुप थे। दोनों के बीच गहन खामोशी बैठी थी। वो दोनों ही अपने अपने आचार विचारों में डूबे थे। दोनों स्वतंत्र थे।
कालखंड के निर्माण ने दोनों को थका दिया था, हिला दिया था और जगा दिया था। इतिहास की ये अनुभूति उन दोनों के लिए सर्वथा नई थी और शायद देश के लिए भी ..
“जनता ने कमाल कर दिया!” सुधीर की आवाजें सुन रहा था विक्रांत। “मैं जो सोच रहा था – लोग तो मेरी उम्मीदों से भी आगे खड़े मिले, भाई जी!” आश्चर्य था सुधीर की आंखों में। “फिल्म के निर्माण में धन जन और मन माल किसी की कोताही नहीं पड़ने दी!” वह बता रहा था। “और देख लेना भाई जी कि इस फिल्म के रिलीज होने के बाद बॉलीवुड लुट जाएगा।” हंस पड़ा था सुधीर।
“लेकिन कुछ लोग टांग अड़ाए बिना तो नहीं मानेंगे।” विक्रांत का अपना अनुमान था।
“इनकी ऐसी की तैसी।” सुधीर गरजा था। “आपकी विजय होगी भाई जी।” उसने प्रसन्न होते हुए कहा था।
डेढ़ साल का वक्त न जाने कब चुटकियों में उड़ गया था।
उन दोनों के बीच अभी भी अबोला बैठा था। दोनों थके हारे महसूस रहे थे। लेकिन आज का ये एकांत अनूठा था। चांदनी गाने लगी थी और उन दोनों से साथ देने का आग्रह कर रही थी। झींगुरों ने संगीत देना स्वीकार लिया था तो गीदड़ उनके विरोध में दहाड़ें मारने लगे थे।
“मैं बंबई लौट कर जाना नहीं चाहती बाबू।” नेहा ने चुप्पी तोड़ी थी। “मैं तो यहीं मां के साथ रहूंगी।” वह बता रही थी। “यहां .. यहां इन गुलाबों के साथ बतियाना मुझे अच्छा लगता है। इनकी कोमल पंखुरियों का स्पर्श कितना आनंद देता है – मैं बता नहीं सकती।” तनिक सी मुसकुराई थी नेहा। “और ये मौली? पास आ बैठता है, फिर याचक निगाहों से मुझे घूरता है। सच बाबू! मैं .. मैं अपने खरगोशों के साथ खेल कर न जाने ..” नेहा ने मुड़ कर विक्रांत को देखा था। “तुम ही चले जाओ!” उसने मचलते हुए कहा था।
“अकेला मैं भी न जाऊंगा!” विक्रांत ने दो टूक कहा था।
फिर से मौन लौटा था। पतोहरी चटकी थी तो रात की नीरवता बिखर गई थी। विक्रांत को आने वाला संघर्ष याद हो आया था।
“फिल्म का प्रमोशन करना होगा – साथ साथ।” विक्रांत ने शर्त सामने रख दी थी। “उसके बाद फिल्म रिलीज कर दोनों साथ लौट आएंगे।”
“लेकिन फिल्म रिलीज होने के बाद तो हंगामा होगा।” नेहा ने घबराते हुए कहा था।
“होगा तो।” विक्रांत भी मान गया था। “कालखंड की रिलीज के बाद तो तूफान आएगा ही।” वह स्वीकार रहा था। “वही तूफान जिसे अब देश में आ जाना चाहिए।”
“लेकिन क्यों?”
“देश खतरे में है नेहा!” गंभीर था विक्रांत। “देशद्रोहियों के इरादे नेक नहीं हैं। आज फिर से भारत प्रासंगिक हो उठा है। अब सभी को भारत ही चाहिए। और .. और .. हम ..?”
“फिर तो हम भी खतरे में आ जाएंगे?” नेहा का प्रश्न था।
विक्रांत ने कोई उत्तर नहीं दिया था।
“क्यों न हम पहले शादी कर लें?” नेहा पूछ लेना चाहती थी। उसका मन डर गया था – बेकार के झंझटों से। वह चाहती थी अब कि उसका कल्पित सुख स्वप्न जल्दी से जल्दी आ पहुंचे।
“और फिर बच्चे पैदा कर लें .. ओर उन्हें बंबई भेज दें?” विक्रांत ने मजाक किया था। और अब हो हो कर हंस रहा था।
पूरनमल ने उन्हें आवाज देकर पुकारा था। तब उन्हें याद आया था कि मां उनका खाने पर इंतजार कर रही थीं।
“तुम लोग कभी भी खाना वक्त पर नहीं खाते हो।” माधवी कांत शिकायत कर रही थी। “सेहत के लिए भी ये ठीक नहीं है विक्रांत।” उनका सुझाव था।
“हमारी जिंदगी – हमारी अपनी है कहां मां।” उत्तर नेहा ने दिया था। “रंग मंच की कठपुतलियां हैं – हम दोनों।” वह हंसी थी। “जो चाहे जब और जहां चाहे वहां हमें बुला ले और नचा ले, हंसा ले और चाहे तो रुला ले।” वह कहती रही थी। “ओह, शिट!” कोसा था नेहा ने। वह अप्रसन्न थी।
“तू मत जा बंबई, बेटी।” माधवी कांत ने नेहा का दर्द भांप लिया था। “तू यहीं रह मेरे साथ।” उनका आग्रह था। “ये लौटेगा तो शादी कर दूंगी।” उनका निर्णय था।
मौली ने नेहा की आंखों को पढ़ा था। उनमें मां का दुलार छलक आया था। मौली को भी मां से यही दरकार थी। वही एक तो थी जो सबके हित में थी, सुख दुख में थी वरना तो जमाना कुल मिला कर जमा खर्च ही था।
“मां! बिना नेहा के फिल्म रिलीज नहीं होगी। दूल्हा के बिना बरात कैसी?” विक्रांत की दलील थी। “हम .. हम .. यूं गए और यूं लौटे।” वह हंसा था। “अब रह ही क्या गया है?” उसका प्रश्न था।
मां मान गई थीं। उन दोनों ने भी लौटने की हामी भर ली थी। और न जाने कैसे कन्हैया को भी भनक लगी थी तो वो भी उनके साथ बंबई जाने के लिए आ पहुंचा था।
सुधीर बंबई लौटा था। पूरी टीम उसी के साथ बंबई पहुंच गई थी। काल खंड अचानक ही चर्चा में आ गई थी। कालखंड के गीत और संगीत हवा में गूंजने लगे थे। कन्हैया की बांसुरी लोगों के मन मोह रही थी। तीन लोकल गीत थे और तीनों में कन्हैया की बांसुरी के बोलों का जादू नगीना सा जड़ गया था।
कोरा मंडी का प्रचारित अग्गड़-बग्गड़ संगीत ओर संवाद लोगों को अचानक ही अखरने लगे थे। बड़े लंबे समय के बाद उन का मन पसंद संगीत सुनाई दिया था। कालखंड के अकेले ट्रेलर ने हंगामा खड़ा कर दिया था।
“गुरु!” रमेश दत्त ने माजिद मुकीम की आवाज को पहचान लिया था। “कहां सोए पड़े हो?” वह पूछ रहा था। “यहां तो चौड़ा हो गया!” उसने सूचना दी थी।
“क्या हुआ?” चौंक कर रमेश दत्त ने पूछा था।
“कालखंड!” उत्तर था माजिद का। “गुरु से आगे चेला निकल गया।” उसने उलाहना दिया था। “कसम ले लो गुरु!” माजिद कहे जा रहा था। “ये फिल्म कोरा मंडी की बधिया बिठा देगी।” उसने अपना अनुमान कह सुनाया था।
रमेश दत्त के मुंह का जायका बिगड़ गया था। उसने आंख उठा कर जन्नत जहांगीर को देखा था। तभी नेहा की याद दौड़ी चली आई थी। जन्नत जहांगीर ने भी महसूसा था कि कुछ बेहद बुरा घट गया था। रमेश दत्त को यों क्षत विक्षत होते उसने पहली बार देखा था। अब तो वो कोई दूसरा ही रमेश दत्त था – जिसे वो देख रही थी।
“नेहा लौट आई?” रमेश दत्त ने हिम्मत बटोर कर माजिद मुकीम से पूछा था।
“नहीं!” माजिद का उत्तर था। “विक्रांत भी नहीं लौटा है।” उसने सूचना दी थी। “लेकिन ..”
“लेकिन क्या?”
“विक्रांत की फौज लौट आई है गुरु!” माजिद ने चेतावनी दी थी। “सारा यूपी और बिहार बंबई चला आया है। मां कसम गुरु ..”
रमेश दत्त ने फोन काट दिया था।
“मैं फिर से अकेली रह जाऊंगी!” माधवी कांत का गला भर आया था। “तू नहीं जानती नेहा कि ..”
“मैं सब जानती हूँ मां!” स्नेह पूर्वक बोली थी नेहा। “मैं जल्दी लौट आऊंगी। जल्द से जल्द मैं आपके पास लौटूंगी।” नेहा का वायदा था।
साथ बंबई जाता कन्हैया बहुत खुश था। उसके लिए तो बंबई एक नया संसार ही था। वह तो पहली बार ही अपने घर की चौखट लांघ कर बाहर की दुनिया में निकला था। मौली अलग से बेचैन था। वह भी समझ गया था कि नेहा जा रही थी। न जाने कैसे कैसे आग्रह थे उसकी आंखों में! नेहा का भी कलेजा टूट टूट रहा था। कई बार उसने गुलाबों को नजर भर कर देखा था तो कई बार खरगोशों के साथ खेल आई थी। पूरनमल अलग से चुप था।
“तेरे जाने से कोई भी खुश नहीं है – तू मुझे पूछ ले!” माधवी कांत ने कहा था।
“क्यों मां?” विक्रांत तड़का था। “मैं बहुत खुश हूँ!” उसने नेहा को निहारते हुए कहा था। “तुम नहीं जानती मां कि बंबई वालों को नेहा का कित्ता इंतजार होगा?” वह हंसा था। “नेहा के जाते ही जैसे बंबई में बहार लौट आएगी और ..”
नेहा का मन खिल उठा था।
और मोहन सिंह स्टेट का द्वार लांघते ही नेहा को बंबई पुकार बैठी थी। नेहा को अचानक ही रमेश दत्त याद हो आया था। न जाने कितना कितना न सूख गया होगा – खुड़ैल नेहा के इंतजार में? वह खुल कर हंसना चाहती थी लेकिन संकोच ने उसे रोक दिया था। फिर भी खुड़ैल को अपने मन मंदिर में प्रवेश करने से नेहा न रोक पाई थी।
खुड़ैल जैसे कामदेव का अवतार था और नेहा जैसे हर हर मायने में उसके वशीभूत थी।
कितनी चतुराई ओर चालाकी से खुड़ैल नेहा के तन को, मन को, विचार और भावनाओं को अपने वश में कर लेता था। मना कर फिर पुकारता था और फिर तो एक के बाद एक .. दूजा और तीजा पड़ाव आता ही चला जाता था। जैसे बिल्ली कबूतर को फफेड़ डालती है – उसी तरह से खुड़ैल भी उसे खाता पचाता चला जाता था और अंत में घायल करके ही छोड़ता था।
लेकिन विक्रांत ..? किसी कल्पित देवता या पवित्र, प्रांजल, शुद्ध और सात्विक प्रेमी जैसा था। विक्रांत के संसार में अनैतिक जैसा कुछ भी न था। सब कुछ था लेकिन था सब नीति निर्धारित।
शायद .. शायद ही क्यों सच में ही विक्रांत का संगठित संसार मां माधवी के दिए संस्कारों से ही संपन्न था।
नेहा ने मुड़ कर मां माधवी कांत को देखा था। उन्हें आगोश में समेटे नेहा खूब रोई थी।
“तू आ जाना!” हिलकियां रोक कर मां माधवी कांत ने नेहा से अंतिम आग्रह किया था।
विक्रांत की आंखें भी सजल हो आई थीं।