पृथ्वी राज ने अपनी सामर्थ्य के बारे में जमा जोड़ लगाया था। बहुत बारीक एक रेखा पृथ्वीराज को नजर आई थी। लालू का समर्थन मिलना तो असंभव था। काग भुषंड के साथ हुल्लड़ खड़ा था। अब केवल गरुणाचार्य ही बचे थे। वो एक ऐसे महामुनि थे जो कि सहज हल निकाल सकते थे।
“मैं चूंकि इस कथित अपराध से संबंध रखता हूँ अत: मैं कोई निर्णय न लूंगा।” पृथ्वीराज ने दो टूक कहा था। “तेजी मेरी पत्नी है और आने वाले साम्राज्य की महारानी है। अत: उसके प्रति कोई दोषारोपण है तो उसका न्याय ..” उसने ठहर कर सभी जमा महानुभावों को देखा था। “गरुणाचार्य करेंगे!” पृथ्वीराज ने ऐलान किया था।
न्यायसंगत घोषणा थी। पृथ्वीराज अब अपने दायित्व से मुक्त था। वह जानता था कि अगर गरुणाचार्य चाहेंगे तो सब कुछ संभव हो जाएगा।
एकाएक फिर गरुणाचार्य का कद बहुत बढ़ गया लगा था।
काग भुषंड तनिक उदास हुआ लगा था। उसे फिर से एक बार की गलतीयों का एहसास हुआ था। उसने खुल कर गरुणाचार्य का विरोध किया था और उन्हें बुरा भला तक कह डाला था। अब किसी भी हालत में गरुणाचार्य उसका मन चाहा तो करेंगे ही नहीं – वह जानता था।
“गंभीर प्रश्न है वत्स।” गरुणाचार्य की संगीन आवाज गूंजी थी। “वक्त भी तो अजब गजब चल रहा है। युद्ध के मैदान से भ्रामक खबरें आ रही हैं। घोर अनिर्णय की इस घड़ी में इस प्रकार का कोई निर्णय लेना आसान न होगा।” उनकी राय थी।
पृथ्वीराज एक बार फिर जी गया था। नकुल ने भी गरुणाचार्य का आभार माना था कि कम से कम उन्होंने आई विपदा को कुछ वक्त के लिए टाल दिया था। लेकिन तेजी गंभीर थी। वह जानती थी कि देश द्रोह का लगा ये आरोप अब ताउम्र उसका दामन न छोड़ेगा। उसे अब कुछ हट कर करना होगा – कुछ ऐसा जो ..
“श्रेष्ठ विचार है भगवन!” लालू ने समर्थन किया था। “पहले युद्ध जीता जाए!” उसने एक साथ सभी जमा महानुभावों को घूरा था। “इस प्रश्न को संग्राम के बाद ही हल करते हैं।” उसने दूरदर्शिता दिखाई थी।
काग भुषंड का छोड़ा तीर खाली गया था। फिर एक बार हाथ में आई सत्ता बालू की तरह मुट्ठी में से सरक गई थी। लेकिन उसका प्रश्न और प्रस्ताव था वजनी। उसके हाथ में कुछ ठोस आ गया लगा था।
संतो की गोद में बैठी भोली तेजी से सोच रही थी।
बहुत तलाशने के बाद भी उसे कहीं तेजी नजर नहीं आई थी। न जाने पृथ्वीराज कौन पाताल में जा डूबा था? उसका कोई अता पता अभी तक भोली के हाथ न लगा था। उसका मन हुआ था कि एक बार फिर वो छज्जू बंदर से मिले और इस जमावड़े की पूरी खोज खबर ले आए।
आखिर हो क्या रहा था – भोली ये जान लेना चाहती थी।
उसका मन था – उसका प्रण था – और उसका दायित्व भी था कि इस तेजी से अपना हिसाब चुकता करे जिसने उसकी मालकिन संतो की जान लेने की साजिश रची थी। भला हो उस छज्जू का जिसने भोली की मदद कर दी। वरना तो संतो कब की स्वर्ग सिधार गई होती।
है कहां ये सौख तेजी? गया कहां ये धूर्त पृथ्वीराज? लेकिन जाएगा कहां – भोली ने दांत किटकिटाए थे। गंगा मइया से तो माफी मांग लूंगी पर इस तेजी और पृथ्वीराज की तो मैं बोटी बोटी काट कर खा जाऊंगी – वह कहती रही थी।
“क्या करें भाभी?” नकुल चिंतित था। “कुछ समझ में नहीं आ रहा है!” उसने गंभीर स्वर में कहा था। “इस कौवे ने तो बुरा फंसा दिया!” उसने काग भुषंड को कोसा था। “अब हो तो क्या हो?”
“हो क्या सकता है?” तेजी ने सीधा प्रश्न पूछा था।
“कौवे की मौत!” नकुल का तीखा उत्तर था। “न होगा बांस – न बजेगी बांसुरी।” उसने तनिक मुसकुराकर तेजी को देखा था। “इसे चाहता ही कौन है?” नकुल का विचार था। “है तो निरा कबाब की हड्डी! कल को ये कौवा सारे साम्राज्य में छा जाएगा!”
“इलाज ..?” तेजी ने सूक्ष्म प्रश्न किया था।
“छज्जू!” नकुल का उत्तर भी उतना ही सूक्ष्म था। “छज्जू बंदर ने बहुत कुछ कर दिखाया है और अगर उसका एक हल्ला और हो गया तो समझो कि कौवे खत्म!” वह हंस गया था।
अब तेजी गंभीर थी। उसे नकुल की बताई युक्ति जम गई थी। बंदरों का साथ उनका साथ न था। यों भी कौवों के बदले बंदरों को न्योत लेना कोई न्याय संगत बात न थी। बंदर उनका साम्राज्य कभी न चलने देंगे – तेजी जानती थी।
“कोढ़ के बदले खाज न लाओ देवर जी!” तेजी ने स्पष्ट कहा था। “मैं सोच रही हूँ कि ..” तेजी बहुत लंबे पलों तक नकुल की आंखों में कुछ खोजती रही थी।
नकुल भी गंभीरता से तेजी को देखता रहा था। उसने जो तेजी के कहने पर किया था उसका उसे पश्चाताप नहीं था। वह तो आज भी तेजी के लिए सब कुछ करने को तैयार था। यहां तक कि अपनी जान जाने तक की उसे परवाह न थी।
“कहो भाभी!” नकुल ने चुप्पी तोड़ी थी। “मेरी तो आपके लिए जान भी हाजिर है।” उसने दो टूक कहा था। “मुझे मरने से तो डर लगता ही नहीं। कहो तो इस कौवे के पंख मैं ही नोच लूं?”
“नहीं नहीं देवर जी!” तेजी गंभीर थी। “चलते हैं – हम दोनों। यहां से भाग लेते हैं!” तेजी ने बहुत ही अप्रत्याशित सुझाव नकुल के सामने रख दिया था। “अलग से हम एक और साम्राज्य रचेंगे – मैं और तुम।” तेजी ने एक भिन्न प्रकार की घोषणा की थी।
नकुल असमंजस में पड़ गया था। फिर उसे होश आया था। उसने मुड़ कर मुसकुराती तेजी को देखा था। प्रस्ताव क्या बुरा था? जान देने से तो भला ही था कि यहां से प्रस्थान किया जाए!
“जो आज्ञा भाभी!” नकुल का स्वर संयत था। “मैं तो हूँ ही आपका!” उसने तेजी को आश्वस्त कर दिया था।
शशांक की लाई खबर सही थी। हुल्लड़ ने उन अंधेरों में रेंगते जुगनुओं को जा पकड़ा था। जैसे ही हाथियों के दस्तों ने दस्तक दी थी वैसे ही जुगनुओं का सैलाब थम गया था। टिम-टिम करती रोशनी गायब हो गई थी। उस अंधेरे में एक और नया व्यामोह भर आया था। एक दूसरा ही विभ्रम खड़ा हो गया था।
जंगलाधीश को अब आगे बढ़ने को कहा गया था।
शेरों के मुंह लटक गए थे। उनके सामने खड़ा न मानव था न दानव! जो मंत्र तंत्र था उससे शेरों को लड़ना कब आता था? जो गंध आ रही थी – वह बहुत बुरी थी। और जो संकेत आ रहे थे वो भी भयानक थे।
आखिर ये था क्या माजरा? इस प्रश्न को फिर से शशांक के पास भेजा गया था।
“माजरा कुछ नहीं है!” लालू तनिक झल्लाया था। “डर गए हैं ये लोग!” उसका आरोप था। “जानवर जो हैं! लड़ने की समझ है कहां इनमें?”
लेकिन पृथ्वीराज का दिमाग खुला था।
“आप दिव्य दृष्टि से देखें आचार्य कि ये माजरा क्या है?” पृथ्वीराज ने आग्रह किया था। “ये कौन सी चाल चल गया है अब की बार – ये आदमी?”
लेकिन कमाल ये हुआ था कि पूरा निरीक्षण परीक्षण करने के बाद भी आचार्य गरुणाचार्य स्वयं भी ये नहीं बता पाए थे कि उनके सामने खड़ी वो बला थी क्या?
अंधेरी रात गहराने के साथ साथ पृथ्वी राज का संकट भी बहुत गहरा गया था।
आदमी ने फिर एक बार उन सब को पूंछ से आकर पकड़ लिया था।