“मैं पूजा पर बैठता हूँ तो ये लोग हंसते हैं स्वामी जी।” श्री राम शास्त्री शिकायत कर रहे हैं। वे पूर्ण रोष में हैं। “इन गंवारों को ये तक पता नहीं कि मेरे मंत्रोच्चार का अर्थ क्या है। इन पशुओं को तो ..”

बाप रे बाप! कितना अभिमान है श्री राम शास्त्री को अपनी विद्वता पर। किसी को भी ये अपने समान मानते ही नहीं। भयंकर बीमारी से ग्रसित हैं। वंशी बाबू की ही बात ठीक है। ये मिल जुल कर रहने के आदी नहीं हैं। ये अपने खजानों में और किसी का साझा नहीं कर सकते। ये तो ..

“ये पशु नहीं – ये मानव श्रेष्ठ हैं, महर्षि!” मैंने विनम्र भाव से कहा है। एक पल में ही मैंने आश्रम में रहते सेवकों का पूर्वानुलोकन किया है। जब कीर्तन में सब बैठते हैं तो सब एक जान और एक प्राण होते हैं। “ठीक से पहचानिये इन्हें!” मैंने अपनी राय भी दी है।

“यहां कोई नियम कानून ही नहीं है।” श्री राम शास्त्री की शिकायत है।

“हैं नियम कानून!” मैंने प्रतिवाद किया है। “वंशी बाबू ..”

“क्या हैं – वंशी बाबू?” भड़क गये हैं श्री राम शास्त्री। “गाय बैलों की तरह यहां ये लोग इस तरह भ्रमण करते हैं मानो ..”

“वही तो – शास्त्री जी हाहाहा!” मैं खुल कर हंसा हूँ। “वही तो मन की मौज है जिसमें ये लोग जी लेते हैं।” मैंने बताया है। “देखिये! यहां जो भी आता है, वो हारा थका आता है। वो आता है जो कहीं न कहीं बाजी हारा है, परास्त हुआ है और राह भटक गया है।” मैंने अब शास्त्री को आंखों में घूरा है। मेरा तात्पर्य है उन्हें बताना कि वो भी तो उनसे अलग नहीं हैं। वो भी तो राह भटकने पर यहां चलकर आये हैं। “इनका मन रूठ गया है, आहत हो गया है और कोई गहरी चोट खा गया है। अब यहां रहकर वो अपने मन को मनाते हैं ओर वो प्रयोजन करते हैं जो उन्होंने पहले कभी नहीं किए।”

“कौन से प्रयोजन हैं? मैंने तो देखा है कि ..”

“मसलन कि सेवा भाव!” मैंने श्री राम शास्त्री की बात काटी है। “हम केवल और केवल सेवा भाव का प्रयोजन ही सब को बताते हैं।” मैंने जोर देकर सेवा भाव को उन्हें समझाने का प्रयत्न किया है। “स्वेच्छा से सेवा करना जब मन को आ जाता है तो बेड़ा पार हो जाता है।” मैं हंस पड़ा हूँ। मैं जानता हूँ कि श्री राम शास्त्री का मार्ग भी यही है। वो घोर स्वार्थी मनुष्य हैं। वंशी बाबू किसी से कुछ नहीं कहते लेकिन फिर भी आप देखेंगे कि आश्रम का काम निज का तिज चलता रहता है। क्यों? मैंने प्रश्न पूछा है।

अब श्री राम शास्त्री चुप हैं। शायद उन्होंने पहली बार किसी इस तरह की संस्था को देखा है जहां निस्वार्थ सेवा होती है। उन्होंने तो कभी बिना स्वार्थ के कोई काम जीवन में किया ही नहीं। अतः उन्हें अटपटा लगता है कि आश्रम में लोग एक ऐसे आनंद में जीते हैं जिसका कोई मोल है ही नहीं।

“शास्त्रों के अनुसार तो ..” श्री राम शास्त्री अब अपने बचाव में शास्त्रों की आड़ ले रहे हैं।

“शास्त्र भी तो मन की ही खोज हैं!” मैंने उनकी बात काटी है।

“अरे नहीं स्वामी जी!” बिगड़ते हुए बोले हैं शास्त्री जी। “ये मन ही तो सारी व्याधियों का मूल है।” उन्होंने बताया है।

“हां! थका हारा मन तो विध्वंस की ही बात करता है।” मैंने मान लिया है। “लेकिन प्रसन्न मन तो बड़ा ही स्वप्नदर्शी है। ये तो आताल-पाताल तक की खोज कर लाता है शास्त्री जी।” मैंने बताया है। “सारा ये सांसारिक खेल मन की ही तो रचना है। जब मन करता है तो हम करते हैं – चाहे वो खोज हो, सोच हो, विज्ञान हो या अध्यात्म हो!” मैं हंसा हूँ। “वरना तो वीरानों में भटकने के लिए ..”

“लेकिन ये मन मानता कहां है?” शास्त्री जी ने आपत्ति की है। “ले तो इतना चंचल है कि ..”

“मान जाता है। बार बार आग्रह करने पर मानता है।” मैंने श्री राम शास्त्री की निगाहों को पलट कर देखा है। “आ जाता है वश में और बन जाता है आपका मित्र!” मैं मुसकुरा रहा हूँ।

“लेकिन स्वामी जी ..”

“मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।” मैंने एक प्रस्ताव उनके सामने रक्खा है। “मानते हैं कि नहीं?” मैंने पूछा है।

मान जाते हैं शास्त्री जी क्योंकि जीने की राह यही तो है।

मेजर कृपाल वर्मा

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