“समझ ही नहीं आ रहा कि मुझसे गलती कहां हुई?” श्री राम शास्त्री का स्वर कातर था। वह अपांग एक अफसोस में डूबे थे। जीवन के आखिरी छोर पर पहुंच कर उलझ गये थे। अब उन्हें कोई रास्ता ही न सूझ रहा था जिस पर वो चल कर शेष जीवन बिता लें। “एक तपस्या की तरह जिया मैंने अपना जीवन स्वामी जी। लेकिन ..”
मैंने सामने बैठे श्री राम शास्त्री को कई बार खोजी निगाहों से खोजा परखा है। मुझे भी एहसास हुआ है कि ये आदमी झूठ नहीं बोल रहा है। उसके ललाट पर उसका किया तप लिखा है। उसकी बात चीत से, उसके हाव भाव से संपूर्ण सत्यता टपक रही है। उसकी आंखें एकदम निश्छल हैं और उसका पश्चाताप भी उत्तर मांग रहा है।
“हुआ क्या?” मैंने पूछ लिया है। “दुखद घट गया कुछ ..?” मेरा प्रश्न है।
“नहीं! दुखद तो कुछ नहीं घटा।” उन्होंने तुरन्त उत्तर दिया है। “काशी विद्या पीठ में मैं संस्कृत का प्राध्यापक रहा हूँ। मेरे शिष्य आज ऊंचे ऊंचे पदों पर विद्यमान हैं। मैंने उम्र भर विद्या दान की है। मैंने शास्त्रों का अध्ययन किया है और ..”
“फिर दुख कैसा?” मैं बीच में बोल पड़ा हूँ। “आप तो ..”
“वही तो ..?” उन्होंने भी तुनक कर कहा है। “अवकाश प्राप्ति के बाद जो धन प्राप्त हुआ वो बेटे को सोंप दिया और सोचा – अब निफराम से दिन बिताऊंगा! पत्नी का तो पहले ही देहान्त हो गया है। अकेला बेटा है, बहू है और बस .. मैं ..”
“तो फिर ..?”
“तो फिर – बहू ने धक्के मार कर घर से बाहर निकाल दिया!”
“और बेटा ..?”
“बेटा चुपचाप, खड़े खड़े देखता ही रहा। मैं चला तो ये भी नहीं पूछा कि मैं कहां जाऊंगा, किधर मुड़ूंगा और .. और क्या मेरे पास कोई पैसा धेला भी है या कि नहीं!” एक आश्चर्य डोल रहा है शास्त्री श्री राम की आंखों में।
अब मेरा नम्बर है सोचने का कि चार चार बेटे और गुलनार का वो फलता फूलता साम्राज्य गरीब पीतू को पव्वा पीने की सजा सुना रहा था! उस पीतू को जो उस साम्राज्य के लिए तन मन से समर्पित था – श्री राम शास्त्री की तरह!
“फिर क्या हुआ?” मैंने संभल कर शास्त्री से पूछा है।
“फिर ..?” तनिक हंसे हैं शास्त्री जी। “फिर मैं निकला एक अभिमान पथ पर स्वामी जी! मैंने सोचा – मेरे तो अनेकों शिष्य हैं! सब समर्थ हैं और संपन्न हैं और सभी ऊंचे ऊंचे पदों पर विराजमान हैं! फिर मुझे क्या टोटा?” ठहरे हैं शास्त्री जी। तनिक संभले हैं वह। “लेकिन स्वामी जी अफसोस के साथ कहूंगा कि गुरु दक्षिणा के नाम पर ..”
“कोई कुछ नहीं देता शास्त्री जी।” मैंने भी उनकी बात का समर्थन किया है।
“तो क्या आप भी मुझे निराश ही लौट जाने को कहेंगे?” शास्त्री जी ने पूछा है।
“नहीं!” मैंने उत्तर दिया है। “ये आश्रम आप का है। आप जब तक चाहें रहें सहें!” मैंने बड़े ही विनम्र भाव से कहा है।
अचानक मेरी दृष्टि घूमी है तो मैंने देखा है कि आज का सारा समाज उलटी राह पर चल पड़ा है! न कोई गुरु को पूजता है और न कोई मॉं बाप को पूछता है! एक अंधी दौड़ में सब शामिल हैं और गलत दिशा में दौड़ लगा रहे हैं। कहां जाकर टिकेंगे, मैं ये भी बता सकता हूँ और शायद श्रीराम शास्त्री भी अब जान गये होंगे!
घोर अनिष्ट होने की आशंका से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता!
“सोचता हूँ स्वामी जी कि जो शिक्षा मैंने दी शायद उस में कोई खोट था।” श्री राम शास्त्री बताने लगे हैं।
हॉं! ठीक ही कह रहे हैं शास्त्री जी। हमारी शिक्षा मे ही खोट है तभी तो हम चलते चलते जीने की राह से भटक जाते हैं!
