“हम शादी कब करेंगे बाबू?” नेहा ने बेहद मीठी आवाज में विक्रांत से एक ऐसा प्रश्न पूछा था जिसने उसका सारा सोच विमोच छिन्न भिन्न कर डाला था।
नेहा को समग्र रूप से पाने की विक्रांत की अमर अभिलाषा उसके गले से आकर लिपट गई थी, उसे मनाने लगी थी, उस रिझाने लगी थी औ .. और कहने लगी थी कि ..
“एक फिल्म और ..? मेरे लिए नेहा।” विक्रांत का आग्रह भी कम वजनी न था।
नेहा चुप हो गई थी। विक्रांत अपने कौंधते, कचोटते और सताते ख्वाबों और खयालों में जा खोया था। कोई था .. शायद एक विचार था .. नहीं नहीं एक प्रश्न था जो उसे बहुत गहरे में घाव दे रहा था .. काट रहा था .. कचोट रहा था और ..
“सोने की चिड़िया का सौदा खुड़ैल क्यों कर रहा था?” विक्रांत इस प्रश्न के उत्तर न जाने कब से खोज रहा था। “उसका हिन्दू बाप उसकी मुसलमान मॉं को छोड़ कर चला गया था – ये कोई कारण न था जिसके लिए वो देश का ही सौदा कर बैठा था।”
खुड़ैल फिल्में बनाता था और उन फिल्मों की मीडिया भूरी भूरी प्रशंसा करता था जबकि फिल्में थीं तो घटिया! प्रासंगिक भी नहीं थीं और समाज दोनों के लिए घातक थीं। कोई बड़ा गिरोह था जो खुड़ैल के पीछे से खेल खेल रहा था।
अचानक ही विक्रांत की आंखों के सामने कई किरदार एक साथ आ खड़े हुए थे। साहबज़ादा सलीम था – वो नेहा का अमर आशिक था और खुड़ैल का पैट कलाकार था। वो पैसे वाला था और न जाने किन किन पुराने भारतीय मुगल सुलतानों से जुड़ा था। लेकिन आज भी वो सल्तनतें उसके दिमाग में जिंदा थीं।
और .. और हॉं वो भाई? दुबई में बैठा रमेश दत्त का चहेता भाई – इसका माई बाप था। ढ़ेरों पैसे लेकर बैठा भाई रमेश दत्त के एक इशारे पर जम कर पैसा लुटाता था। फिल्म जगत में भाई का पैसा उसकी नस नस में खून की तरह बहता था, फिल्मों को जीवन प्रदान करता था और जहां भी जिधर भी कोई खतरा होता था उसके लम्बा और समर्थ हाथ उस खतरे को खत्म कर देता था।
और वो पोंटू था – जिसके बिना फिल्म जगत का गुजारा ही न था। शराब के बाद तो हर कलाकार को पोंटू के प्रोडक्टस की ही जरूरत होती थी और पोंटू हर किसी फिल्म कलाकार का चहेता बन बैठा था।
और सुलेमान साहब की छत्र छाया में बैठा खुड़ैल तो अजर अमर था।
“खुड़ैल इज दी टिप ऑफ दी आइसबर्ग!” विक्रांत के दिमाग में यह बात बैठ गई थी। “देश को खरीदकर खा जाने वाला ये सिंडीकेट एक बड़ा और अंतर राष्ट्रीय मगरमच्छ था।” निष्कर्ष निकाला था – विक्रांत ने।
“करो न इसका इलाज ..?” विक्रांत का अंतर बोला था। “बिक जाने दोगे देश को?” यह प्रश्न विक्रांत के सामने एक जिद्दी बालक की तरह आ खड़ा हुआ था।
“मैं .. मैं अकेला क्या कर सकता हूँ मित्र?” विक्रांत की बे बसी उसकी आंखों में तैर आई थी। “अपनी विधवा मॉं का एक मात्र सहारा हूँ और उसका अकेला ही पूत हूँ।” वह तनिक उदास होते हुए बोला था। “ये लोग तो बहुत समर्थ हैं, संपन्न हैं, बलशाली हैं और ..”
“अंग्रेजों से भी ज्यादा?” फिर वही प्रश्न आ खड़ा हुआ था।
विक्रांत को उत्तर तो आता था पर वो कुछ कहना न चाहता था। वह समझ तो रहा था कि कल का और आज का काल खंड अलग अलग तो न था। लेकिन .. लेकिन वह कितना समर्थ था – स्वयं में, ये उसकी समझ में न आ रहा था।
“मैं कर भी क्या सकता हूँ मित्र?” हार कर विक्रांत ने भी प्रश्न ही पूछ लिया था।
“भगत सिंह ने क्या किया था?” फिर से वही प्रश्न आ खड़ा हुआ था। “वो कितना समर्थ था, कितना संपन्न था और वो कौन कौन सी सेनाओं का मालिक था?”
“लेकिन .. लेकिन .. मैं ..?”
“एक फिल्म तो बना ही सकते हो?”
“हॉं! हॉं हॉं! फिल्म बनाऊंगा – अवश्य बनाऊंगा।” विक्रांत उछल पड़ा था। वह बहुत प्रसन्न था। “इसी काल खंड को लेकर, इसी नाम से नेहा को लेकर फिल्म बनाऊंगा और इसे नाम दूंगा – काल खंड!”
“लेकिन सौदाईयों से सतर्क रहना दोस्त!” चेतावनी साथ ही चली आई थी। “इन्हें तो भनक भी न लगे – खरीद लेंगे तुम्हें भी!”
बहुत खतरनाक आदमी था ये खुड़ैल – विक्रांत जानता था।
सर्व प्रथम तो एक कहानी लिखनी होगी – विक्रांत ने स्वयं से कहा था। एक ऐसी कहानी जिसमें देश की युवा पीढ़ी को सीधा संदेश जाए कि तुम्हारा देश बिक रहा है, सौदाई कौन है और इसका उपचार क्या है।
आज लगा था विक्रांत को कि शहीद भगत सिंह की तरह उसे भी आज अपने जीने का अर्थ समझ आ गया था।
“शादी के बाद मैं फिल्मों में काम नहीं करूंगी।” नेहा भी अपने जीने के अगले अनुमान लगा रही थी। “मस्त एक हिरनी की तरह मैं कुलांच भरती, भागती दौड़ती, पूरी धरा को नापती और मुक्त और मस्त और व्यस्त और ..” रुकी थी नेहा। उसे अपना सोच कहीं गलत हुआ लगा था। “व्यस्त होने से उसका अर्थ क्या था?”
“व्यस्त क्यों नहीं? हमारे बच्चे नहीं होंगे?” हंस पड़ी थी नेहा। “हॉं हॉं! एक बेटा और एक बेटी होंगे! उनके नाम भी सनातनी होंगे ओर उनकी परवरिश भी सनातनी होगी।” सोचे ही जा रही थी नेहा।
अचानक ही उसे लगा था कि वो पूर्वी विश्वास की गोद में बैठी उस गर्मी का सुख भोग रही थी जो पूर्वी विश्वास की ममता की करामात थी। और वह फिर पूर्वी विश्वास को अपने गृहस्थ को सींचते संभालते देख रही थी। एक एक पल उनका अपने लिए नहीं अपने बच्चों के लिए और बाबा के लिए होता था। अपना तो उन्हें ध्यान ही न रहता था।
“मैं भी घर में पूर्वी की तरह एक मंदिर बनाऊंगी।” प्रफुल्लित हुई नेहा सोच रही थी। “बच्चों को भी पूजा पाठ के संस्कार दूंगी और पूर्वी की तरह मैं भी ..”
और ये लो! नेहा के सामने उसका बचपन आ खड़ा हुआ था। अपने छोटे बहन भाई की उंगली पकड़े नेहा उनके सुख दुख में जी जीन से शामिल होती थी और क्या मजाल कि उन्हें ताती बयार भी छू जाए!
“बाबा का कितना खयाल रखती है पूर्वी!” अचानक नेहा को याद हो आता है। “मैं भी बाबू के हर सुख दुख का ध्यान रक्खूंगी!” नेहा एक व्रत जैसा लेती है। “मैं भी बाबू की तन मन से सेवा करूंगी।” उसने फिर से वायदा किया है। “मैं .. मैं भी ..”
“एक फिल्म ओर नेहा?” अनायास ही विक्रांत का आग्रह चला आया है।
“नहीं करूंगी!” नेहा रूठ जाती है। “ये भांति भांति के किरदार करना मुझे अब अच्छा नहीं लगता है बाबू! मैं तो अब तुम्हारी सेवा का सुख ही लूंगी! मैं तो अब तुम्हारी दासी बनकर ही जीऊंगी – मेरे देवता!” नेहा का ऐलान था।
“और .. और जब कोरा मंडी में हमारी नेहा नाचेगी तो ..?” अचानक ही नेहा ने खुड़ैल की उल्लसित आवाज को सुना था।
“अब नहीं नाचेगी नेहा! मैं वेश्या का किरदार नहीं करूंगी।” नेहा भभक उठी थी तो बोली थी।
“किसने कहा ..?” विक्रांत पूछ रहा था। “काल खंड में तो मैं शेखर हूँ और तुम हो शिखा!” वह हंस कर नेहा को मना रहा था। “शिखा का किरदार काल खंड में एक ऐसी भारतीय नारी का होगा नेहा जो शेखर के साथ ही शहीद होगी और समाज को संदेश देगी ..”
“तालियां .. तालियां ..!” उछल पड़ी थी नेहा। “मैं करूंगी इस किरदार को तुम्हारे साथ बाबू!” नेहा लिपट गई थी विक्रांत से।
कितना अनमोल पल था वह नेहा के जीवन का?
“और मैं अभागी तुम्हारे साथ मर भी तो न पाई बाबू?” नेहा को पश्चाताप ने आ घेरा था। “देश भक्ति भुला कर खुड़ैल ने मुझे देश द्रोह के रास्ते पर डाल दिया था।” सब कुछ याद आ रहा था नेहा को। “मैं बाद में समझी थी कि खुड़ैल के लिए फिल्में बनाना तो मात्र एक खेल था। उसका असली खेल तो ..”
“मैं तो बहुत पहले इसका ये गेम ताड़ गया था नेहा।”विक्रांत बता रहा था। “और अगर तुम्हारा साथ न छूट गया होता तो मैं इसे तभी बर्बाद कर देता।”
“बावली हो गई थी मैं बाबू!” रो रही थी नेहा। “हमारी शादी ..?” हिलकियां बंध आई थीं नेहा की। “ओ बाबू! मैं अभागी तो तुम्हारी दुल्हन भी न बन सकी ..!”
सॉरी बाबू .. वैरी वैरी सॉरी!